अशोक कुमार
आज जब हम पर्यावरणीय संकट की बात करते हैं, तो अक्सर हमारे दिमाग में प्रदूषण फैलाने वाले कारक जैसे कि उद्योग, वाहनों का धुआँ, प्लास्टिक कचरा, पेड़-पौधों की कटाई आदि आते हैं। लेकिन इन समस्याओं के पीछे एक और बेहद महत्वपूर्ण लेकिन अदृश्य कारक होता है, जिसे हम “राजनीतिक प्रदूषण” कह सकते हैं। यह वह प्रदूषण है जो सीधे हवा, पानी या मिट्टी को तो प्रदूषित नहीं करता, लेकिन नीतियों, फैसलों और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के माध्यम से प्रदूषण की समस्या को और जटिल बना देता है।
राजनीतिक प्रदूषण एक ऐसा सामाजिक और नीतिगत परिप्रेक्ष्य है, जो यह बताता है कि किस प्रकार राजनीतिक निर्णय, लापरवाही, भ्रष्टाचार और वोट बैंक की राजनीति के चलते पर्यावरणीय संकटों को रोकने की कोशिशें कमजोर पड़ जाती हैं। यह सीधे तौर पर पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता, बल्कि प्रदूषण से निपटने के प्रयासों को बाधित करता है।
इसका मुख्य उद्देश्य प्रदूषण की समस्या के समाधान में आने वाली राजनीतिक बाधाओं को उजागर करना है,
जैसे कि कानूनों का अभाव, कार्यान्वयन में लचरता, जिम्मेदारी से बचाव और केवल चुनावी लाभ के लिए पर्यावरण का उपयोग।पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रभावी कानून बनाने की प्रक्रिया में अक्सर सरकारें धीमी होती हैं। कई बार सालों तक जरूरी कानून या नीतियाँ केवल मसौदे के स्तर पर अटकी रह जाती हैं। प्रदूषण जैसे आपातकालीन मुद्दों पर भी नीतिगत निर्णयों में देरी होती है।
उद्योगपतियों और राजनीतिक वर्ग के बीच गठजोड़ राजनीतिक प्रदूषण का एक अहम हिस्सा है। कई बार बड़ी कंपनियाँ प्रदूषण नियंत्रण नियमों का उल्लंघन करती हैं, लेकिन उनके खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं होती। इसके पीछे राजनीतिक चंदा, लॉबिंग और सत्ता-संबंधी हित छिपे होते हैं।
प्रत्येक चुनाव के समय राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में प्रदूषण को नियंत्रित करने के बड़े-बड़े वादे करते हैं – जैसे स्वच्छ हवा, स्वच्छ नदियाँ, हरे-भरे शहर आदि। लेकिन सत्ता में आने के बाद अक्सर ये वादे अधूरे रह जाते हैं। जब प्रदूषण का स्तर चरम पर होता है – उदाहरण के लिए दिल्ली में सर्दियों के दौरान वायु प्रदूषण – तो राजनीतिक दल एक-दूसरे पर दोष मढ़ने में लग जाते हैं। कोई पराली जलाने को दोष देता है, तो कोई नगर निगम की लापरवाही को। लेकिन वास्तविक समाधान के लिए सामूहिक पहल नहीं होती।
राजनीतिक दल कई बार प्रदूषण से निपटने के लिए केवल प्रतीकात्मक और अस्थायी कदम उठाते हैं, जैसे कि “सम-विषम योजना”, “एंटी-स्मॉग गन” या “ग्रीन वीक”। ये कदम लंबे समय तक चलने वाले प्रभावशाली समाधान नहीं होते, बल्कि केवल जनता को यह दिखाने के लिए होते हैं कि सरकार कुछ कर रही है।
राजनीतिक निर्णयों के चलते पर्यावरणीय संसाधनों – जैसे पानी, जंगल, जमीन – का असमान वितरण होता है। बड़ी विकास परियोजनाओं के नाम पर आदिवासी इलाकों से जंगलों को उजाड़ा जाता है, जिससे प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है और गरीब समुदायों का जीवन प्रभावित होता है।
कई बार सरकारें यह तर्क देती हैं कि “विकास” के लिए पर्यावरणीय बलिदान जरूरी है। लेकिन इस विकास का लाभ सीमित लोगों को मिलता है, जबकि पर्यावरण का नुकसान पूरी जनता को झेलना पड़ता है। यह एक प्रकार का पर्यावरणीय अन्याय है, जिसे राजनीतिक रूप से नजरअंदाज कर दिया जाता है।
राजनीतिक प्रदूषण को बनाए रखने में कभी-कभी मीडिया की भूमिका भी आलोचनीय रही है। कई मीडिया चैनल पर्यावरणीय मुद्दों को पर्याप्त प्राथमिकता नहीं देते या उन्हें राजनीति से जोड़कर सनसनीखेज बना देते हैं। इससे लोगों का ध्यान असली मुद्दे से भटक जाता है।
हालांकि कुछ स्वतंत्र मीडिया संस्थान और पर्यावरण कार्यकर्ता इस दिशा में जागरूकता फैलाने का प्रयास करते हैं, लेकिन जब तक सरकार और राजनैतिक दल गंभीरता से इन मुद्दों को नहीं लेंगे, तब तक वास्तविक बदलाव संभव नहीं है।
राजनीतिक प्रदूषण का सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि समस्या के समाधान की वास्तविक इच्छाशक्ति खत्म हो जाती है। नीतियाँ बनती हैं, लेकिन लागू नहीं होतीं। बजट आवंटित होता है, लेकिन उसका उपयोग नहीं होता। और इस सबका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है:खराब हवा से फेफड़ों की बीमारियाँ,गंदा पानी पीने से बच्चों में कुपोषण,वन क्षेत्र नष्ट होने से जलवायु परिवर्तन,गर्मियाँ अधिक गर्म और सर्दियाँ अधिक जहरीली होती जा रही हैं
राजनीतिक प्रदूषण की समस्या को समाप्त करना आसान नहीं है, लेकिन नामुमकिन भी नहीं। इसके लिए कदम उठाए जा सकते हैं !जब आम नागरिक पर्यावरण को लेकर सजग होंगे और सरकार से जवाबदेही मांगेंगे, तब ही राजनीतिक इच्छाशक्ति पैदा होगी। पर्यावरण से जुड़ी नीतियों को मजबूत, पारदर्शी और राजनीतिक प्रभाव से मुक्त बनाना जरूरी है।राजनीतिक एजेंडे में पर्यावरण को केवल एक मुद्दा नहीं, बल्कि नीति निर्धारण का केंद्र बनाया जाना चाहिए।न्यायपालिका और स्वायत्त निकायों को पर्यावरणीय मामलों में तेजी से और निष्पक्ष निर्णय लेना चाहिए, ताकि राजनीतिक हस्तक्षेप न हो।
निष्कर्ष
राजनीतिक प्रदूषण एक गंभीर लेकिन नजरअंदाज की गई समस्या है, जो न केवल पर्यावरणीय संकट को बढ़ा रही है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को भी कमजोर कर रही है। जब तक राजनीति में पर्यावरण को केवल एक चुनावी मुद्दा समझा जाएगा और वास्तविक समाधान की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए जाएंगे, तब तक प्रदूषण की समस्या बनी रहेगी।
आज जरूरत है उस राजनीतिक प्रदूषण को खत्म करने की, जो असली प्रदूषण को खत्म नहीं होने देता।
(लेखक पूर्व कुलपति, कानपुर एवं गोरखपुर विश्वविद्यालय; पूर्व विभागाध्यक्ष, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर रह चुके है)