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डंके की चोट पर : कहीं नफरत की आंधी न चला दे एनआरसी

 

शबाहत हुसैन विजेता

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस यानि एनआरसी ने असम में रह रहे 19 लाख 7 हजार लोगों को एक झटके में विदेशी बना दिया है। यह लोग कहां रहेंगे। अब क्या करेंगे, यह अभी स्पष्ट नहीं है। इन लोगों को हालांकि कानूनी लड़ाई लड़ने की छूट मिलेगी लेकिन अपनी इस लड़ाई में यह कहां तक कामयाब हो पाएंगे यह तो भविष्य में ही तय हो पायेगा।

एनआरसी कोई एक दिन में तैयार कानून नहीं है। जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे उस दौर में इसकी जरूरत महसूस की गई थी। कागजी खानापूरी होते-होते साढ़े तीन दशक बीत गये। इस कानून की जरूरत महसूस की गई थी ताकि पड़ोसी देश बांगलादेश से अवैध रूप से भारत में आकर बस गये लोगों की पहचान की जा सके।

बांगलादेश 1971 में बना था इसलिये यह तय किया गया कि खुद को भारतीय नागरिक साबित करने के लिये वह ऐसे दस्तावेज पेश करें जिसमें 1951 से वह खुद या उनके पूर्वज भारत में रह रहे थे। असम के करीब 40 लाख लोग ऐसे दस्तावेज पेश नहीं कर पाये जिसमें वह खुद को या अपने पूर्वजों को भारत में रहता हुआ साबित कर पाते। बाद में उन लोगों को भी भारतीय मान लिया गया जिन लोगों का नाम 1971 की मतदाता सूची में शामिल था।

असम में 19 लाख 7 हजार लोगों पर भारतीय नागरिकता छिन जाने की तलवार लटकी है। कानूनी लड़ाई के जरिये भी अगर यह लोग खुद को भारतीय साबित नहीं कर पाते हैं तो इन्हें बाकायदा अरेस्ट किया जायेगा। उनकी सम्पति जब्त कर ली जायेगी। उन्हें डिटेंशन कैम्प में रखा जायेगा।

एनआरसी का चाबुक अभी पश्चिम बंगाल में भी चलना है। जाहिर है कि पश्चिम बंगाल में भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग मिलेंगे जो अपनी नागरिकता को साबित नहीं कर पाएंगे। लाखों की तादाद में अपनी नागरिकता खोने वाले लोगों के साथ क्या किया जाना है यह बात भी अभी स्पष्ट नहीं है। बांगलादेश की सरकार से भी अभी इस मुद्दे पर भारत सरकार की कोई बात नहीं हुई है। बांगलादेश भी लाखों लोगों को अपना नागरिक क्यों स्वीकारेगा और क्यों अपने देश की नागरिकता देगा।

भारत में अगर वाकई घुसपैठिये हैं तो उन्हें निश्चित रूप से देश से बाहर किया जाना चाहिये लेकिन इतनी बड़ी संख्या में जिन लोगों को अचानक विदेशी मान लिया गया है और उनकी सम्पति छिन जाने और देश में न रहने देने की चुनौती के सामने होने से कहीं अगर ऐसे लोग देश विरोधी गतिविधियों में लगे लोगों के हाथों की कठपुतली बन गये तो देश के सामने इससे भी बड़ी चुनौती आ जायेगी।

आजादी के बाद से लगातार भारत तरह-तरह की चुनौतियों से जूझ रहा है। इन चुनौतियों में आतंकवाद सबसे बड़ी चुनौती है। आतंकवाद की वजह से देश ने बड़ी संख्या में अपने लोगों को खोया है। हजारों जवानों ने अपनी जान गंवाई है। पंजाब के आतंकवाद के पर कतरने के लिये इन्दिरा गांधी ने आपरेशन ब्ल्यू स्टार किया तो उन्हें इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। पड़ोसी देश श्रीलंका से आतंकवाद के सफाये में मदद के लिये राजीव गांधी ने भारत से शांति सेना भेजी तो उन्हें भी अपनी जान देनी पड़ी।

आतंकवाद की दीमक आम लोगों को तो चाट ही जाती है साथ ही वह सुरक्षा के घेरे में रहने वाले महत्वपूर्ण लोगों को भी लील जाती है। पड़ोसी देश द्वारा पोषित आतंकवाद एक जमाने से धरती के स्वर्ग को जहन्नुम बनाने का काम करता रहा है। कश्मीर में हो रही खूंरेजी में बड़ी संख्या में सेना के जवान और नागरिक अपनी जान गंवा चुके हैं।

एनआरसी के जरिये अगर वास्तविक घुसपैठियों की वापसी का रास्ता तैयार होता है तो भविष्य में नये घुसपैठिये भारत में घुसपैठ से इसलिये डरेंगे कि यहां रहकर वह जो सम्पति अर्जित करेंगे वह भी जब्त हो जायेगी और उनका भविष्य भी अनिश्चित हो जायेगा लेकिन अगर एनआरसी की भेंट वह लोग चढ़ गये जो इसी देश के नागरिक थे लेकिन अपनी नागरिकता को साबित नहीं कर पाये तो उनके रिश्तेदारों में आक्रोश की ज्वाला जलेगी। अपने ही लोगों के दिल में अपने ही लोगों के खिलाफ जलने वाली आग मौजूदी दौर के आतंकवाद से ज्यादा ज्वलनशील होगी और उसे बुझाना और भी मुश्किल होगा। ऐसे हालात में जब सरकार के सामने एक तरफ कुआं और एक तरफ खाई वाली स्थिति है तब सरकार को भी हर कदम फूंक-फूंककर रखना होगा।

एनआरसी जैसे बड़े कदम को उठाने से पहले सरकार को सोशल मीडिया पर माहौल खराब कर रहे लोगों पर नजर रखने का इंतजाम भी करना चाहिये। सोशल मीडिया पर जो लोग अभी सरकार का पक्ष लेते नजर आ रहे हैं वास्तव में वह सरकार की राह में ऐसे कांटे बो रहे हैं जिनसे बचकर निकल पाना सरकार के लिये भी आसान नहीं होगा।

एनआरसी को लेकर सोशल मीडिया पर जिस तरह की सामग्री परोसी जा रही है वह सरकार के खिलाफ माहौल ही तैयार कर रही है। 19 लाख से ज्यादा लोगों के अचानक अपनी नागरिकता खो देने का मंजर सामने आया है वह वास्तव में मोदी सरकार की देन नहीं है। सरकार किसी की भी होती यही होता। इसका ड्राफ्ट तो राजीव गांधी की सरकार ने तैयार किया था। उसके इम्पलीमेन्ट में साढ़े तीन दशक लग गये।

इस बात को सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को जानकारी नहीं है। अपने अधकचरे ज्ञान को वह जिस तरह से पेश कर रहे हैं वह देश में नफरत का माहौल तैयार करने में लगा है। सरकार आनी जानी है। लोकतंत्र में सरकारें बदलने का सिलसिला चलता रहेगा लेकिन अगर नफरत पर कंट्रोल की नीति नहीं बनाई गई तो आने वाला दौर कितना भयावाह होगा उस पर सोचकर ही सिहरन होती है।

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