Friday - 12 September 2025 - 1:24 PM

अब अदालतों में अधिकतर निर्णय होता है, न्याय नहीं

उबैद उल्लाह नासिर

विगत एक महीने में दिल्ली हाई कोर्ट के तीन महत्वपूर्ण निर्णय आए। पहला-प्रधानमंत्री को अपनी डिग्री सार्वजनिक करना आवश्यक नहीं। दूसरा-बिना आरोपपत्र दाखिल हुए, बिना मुकदमा चले, विगत पांच वर्षों से जेल में बंद उमर खालिद, शर्जील इमाम और अन्य मुस्लिम नवजवानों की ज़मानत अर्जी खारिज कर दी गई। तीसरा-अडानी के खिलाफ लिखी गई प्राणगुहा ठकुरत्ता समेत देश के कुछ वरिष्ठ और अत्यंत सम्मानित पत्रकारों की रिपोर्ट प्रकाशित करने पर पाबंदी लगा दी गई।

किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति से पूछा जाए कि क्या ये तीनों निर्णय इंसाफ के तकाजों को पूरा करते हैं और क्या इनमें पक्षपात साफ नहीं झलकता, तो उसका जवाब यही होगा कि ये निर्णय पूरी तरह से पक्षपाती और अन्यायपूर्ण हैं। न्याय की परिभाषा यही है कि वह न केवल किया जाए, बल्कि किया हुआ दिखाई भी दे। यदि ऐसा नहीं है तो यह न्याय नहीं बल्कि केवल “निर्णय” होगा।

एक ओर हत्या और बलात्कार के सजायाफ्ता मुजरिमों की सजा माफ कर दी जाती है, किसी को बार-बार पैरोल दिया जाता है, केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर खुलेआम “गोली मारो सालों को” का नारा लगाते हैं और अदालत कह देती है कि यह हंसकर कही गई बात गैरकानूनी नहीं है।

दूसरी ओर दिल्ली दंगों में अभियुक्त बनाए गए उमर खालिद आदि का मामला हो या भीमा-कोरेगांव मामले में अभियुक्त बने स्वर्गीय स्टेन स्वामी और प्रोफेसर साईनाथ का मामला, यह सब हमारी न्याय व्यवस्था पर बदनुमा धब्बा बन गए हैं।

उमर खालिद आदि की ज़मानत अर्जी खारिज कर दिए जाने का मामला तो देश की सरहदों से भी बाहर निकल गया है। अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस पर पूरे एक पेज की स्टोरी छापकर भारत की न्याय प्रणाली पर सवाल खड़े किए हैं।

अखबार ने लिखा है कि उमर खालिद आदि बिना मुकदमा चले पांच साल से जेल में बंद हैं—यह मोदी के भारत में विरोध की आवाज़ उठाने की कीमत अदा कर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त बुद्धिजीवी नोम चोम्स्की ने एक बयान में कहा कि “केवल एक बात सामने आई है कि वे (उमर खालिद आदि) विरोध और प्रोटेस्ट के अपने संवैधानिक अधिकार का उपयोग कर रहे थे और एक आज़ाद समाज में यह बुनियादी अधिकार है।

इस निर्णय से ज्यादा खतरनाक है ज़मानत अर्जी का विरोध करते हुए सालिसिटर जनरल तुषार मेहता का यह कथन कि ऐसे मामलों में अभियुक्त को सजा मिलने या बरी होने तक जेल में ही रखा जाना चाहिए।

उनका यह कथन पूरी न्याय व्यवस्था को ही उलट-पुलट (Upside down) कर देने वाला है। इसका सीधा मतलब है कि अभियुक्त के कोई संवैधानिक, न्यायिक या मानवीय अधिकार नहीं हैं।

सरकार जिसे चाहे राष्ट्रविरोधी मामलों में फंसा कर जिंदगी भर जेल में रख सकती है। लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ को दबाने का यह सबसे प्रभावी हथियार होगा।

एक ओर सुप्रीम कोर्ट कहता है कि “बेल अधिकार है और जेल अपवाद,” दूसरी ओर उमर खालिद आदि की ज़मानत अर्जी खारिज होना, और तीसरी ओर देश के सबसे बड़े न्यायाधिकारी का यह अलोकतांत्रिक, अमानवीय और असंवैधानिक मशविरा—यह सब देश को किस दिशा में ले जा रहा है, यह बड़ा सवाल खड़ा करता है।

प्रेमचंद की ‘पंच परमेश्वर’ कहानी में बूढ़ी मौसी जब शेख जुम्मन से कहती हैं कि “क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?” तो उनका ईमान जाग उठता है और बिना कोई शपथ लिए जब वह न्याय करते हैं तो अपने लंगोटिया यार अलगू चौधरी के खिलाफ ही निर्णय देकर न्याय और ईमानदारी का झंडा बुलंद कर देते हैं। जबकि आज संविधान पर ईश्वर की शपथ लेकर घोर पक्षपाती फैसले किए जाते हैं।

ऊपर दर्ज तीन मुकदमे ही नहीं बल्कि दर्जनों ऐसी मिसालें दी जा सकती हैं जब न्यायमूर्ति महोदय ने न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी को अन्याय का इशारा समझकर न्याय की हत्या कर दी।

दुखद यह है कि बहुत से मामलों में यह अन्याय कभी राष्ट्रवाद के नाम पर हुआ तो कभी धर्म के नाम पर। अदालत के ऐसे निर्णयों पर करोड़ों लोगों के ज़हन में यह सवाल उठता है कि ऐसे अन्यायपूर्ण फैसलों के बाद हमारे इन जज साहबान को रात में नींद कैसे आ जाती है? उनका ज़मीर उनकी मलामत क्यों नहीं करता? वे अपनी आने वाली पीढ़ियों और जूनियरों के सामने क्या मिसाल पेश कर रहे हैं? और इतिहास उन्हें किस रूप में याद करेगा?

यह भी सच है कि ऐसी लाखों मिसालें भी पेश की जा सकती हैं जब जज साहबान ने धर्म, जाति, राष्ट्र आदि सब से ऊपर उठकर न्याय किया। लेकिन 2014 अर्थात देश में “मोदी युग” के आरंभ होते ही जहां सारा सिस्टम ही उलट-पुलट गया वहीं अदालतें भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहीं। आज हालत यह है कि चाहे न्यायालय हो या कोई जांच आयोग, जनता पहले से ही समझ जाती है कि इसका निर्णय क्या होगा।

न्यायपालिका समेत सभी संवैधानिक संस्थाओं की यह दुर्दशा लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है, क्योंकि लोकतंत्र की मजबूती और सदन में बहुमत के बल पर कोई शासक तानाशाह न बन जाए, इसी के लिए इन संवैधानिक संस्थाओं का गठन किया गया था। न्यायपालिका को सरकार के प्रभाव से दूर रखने के लिए ही उसे पूर्ण स्वतंत्रता दी गई थी। यहां तक कि जजों की नियुक्ति में भी कॉलेजियम सिस्टम लागू किया गया ताकि सरकारें अपनी मर्ज़ी के जजों का ही चयन न करें।

हालांकि एक विशेष विचारधारा के लोग न्यायपालिका में भर गए हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। मोदी सरकार ने किसी जज को (कथित तौर पर) लोया और किसी को गोगोई, शिवासुंदरम और अब्दुल नजीर आदि बनाकर न्यायपालिका की साख को गहरा धक्का पहुंचाया है। अपनी सेवा करने वाले जजों को कानून बदलकर भी रिटायरमेंट के बाद लाभान्वित करने से मोदी सरकार पीछे नहीं हटी।

संवैधानिक संस्थाओं पर से अवाम का विश्वास उठ जाना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। अब केंद्रीय चुनाव आयोग को ही ले लीजिए—इस पर अविश्वास का यह आलम है कि आम लोग इसे “केचुआ” (के चु आ) कहने लगे हैं।

उमर खालिद आदि का मामला अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है। वहां से कब और क्या निर्णय आता है यह अलग बात है, लेकिन असल मुद्दा न्यायपालिका समेत संवैधानिक संस्थाओं पर आए विश्वास के संकट का है। इस पर सरकार और इन संस्थाओं के अध्यक्षों को संजीदगी से गौर करना चाहिए।

सरकारें आएंगी-चली जाएंगी, यह अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारी भी आज हैं, कल नहीं रहेंगे। लेकिन संस्थाओं की साख को बचाए रखना अत्यंत आवश्यक है और यह सबका परम कर्तव्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह उनके निजी विचार हैं)

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