
रफ़त फ़ातिमा
पॉज़िटिव सोच यानी मौजूदा हालात में लड़ने की ताक़त पैदा करना, आपसी सहयोग की भावना पैदा करना, जिस परिवार से कोई हमेशा के लिये चला गया उसके आंसू पूछना है। लेकिन साथ में व्यवस्था पर सवाल करना, इस क़िस्म के हालात पैदा कैसे हुए, इस पर बात करने का हौसला रखना भी ज़रूरी है। यही है पॉज़िटिव सोच और उसका फ़लसफ़ा।
लेकिन जिस तरह व्यवस्थित तरीक़े से गिरोह द्वारा पॉज़िटिव/ सकारात्मक व्यवहार के दर्शन की घुट्टी पिलायी जा रही है वह किसी भी कोण से positivity नहीं है बल्कि एक कोशिश है कि सत्ता के अपराध, अमानवीय अप्रोच और घिनौना चेहरे पर पर्दा पड़ा रहे। पूरा एक साल मिला था, पूरा एक साल, क्या किया? क्या हमारे जीवन का कोई मूल्य नहीं है? सवाल क्यों ना हो?
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अगर आप सामाजिक प्राणी नहीं हैं, भेड़ियों की तरह एक विशेष गिरोह के सदस्य हैं तो आप पर इस “मातमी माहौल” से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। अलबत्ता यह हो सकता है कि आप भी ‘नीरो की बांसुरी’ का आनंद लें और कहें कि क्या धुन बजायी है!!!
ईस्ट इंडिया कम्पनी को याद करिये जिसका मक़सद केवल अधिक से अधिक ज़मीन, धन, व्यापार में हिस्सेदारी हासिल करना होता था, आज उसके वारिस ऐसा कर रहे हैं।
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पॉज़िटिविटी के दर्शन का सबक़ वह पढ़ा रहे हैं जो सरकार से उसकी जवाबदेही की बात को राष्ट्र का विरोध समझते हैं और हर- हर…. घर- घर… का उद्घघोष करते हैं।
सत्ता की बेहिसी के भेंट चढ़ गये लोगों को पॉज़िटिविटी के नकारात्मक पहलू का पाठ मत पढ़ाइये। बल्कि सवाल करने का हौसला फ़राहम करिये, और उनको सोचने पर मजबूर भी करिये कि उन्होंने ऐसे लोगों को क्यों सत्ता दिलायी, कहीं ऐसा ना हो इस नकारात्मक पॉज़िटिविटी के प्रचार में जनता अपनी समस्याओं को भूल जाए और फिर मौत के सौदागरों के हाथों धार्मिक और जज़्बाती शोषण का शिकार हो जाये।
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