
संध्या की बिखरी अलकों मे,
निशा का फैला श्याम दुकूल,
मूक है मद्धिम है पदचाप,
तुमको प्रेम सौंपना भूल।
अधर की पगली थी मदप्यास,
तभी तो रहा तुम्हे था पूज।
हाय रे भावुक था उन्माद,
प्रलय का स्वागत करता ऊज।
तुम्हारे रोदन की मुस्कान,
उड़ाता आया उर मे धूल।
हाथ मे लिए रहा जयमाल,
मगर तुम निर्मम निकले प्राण,
विसर्जित माया का व्यवहार,
प्रात है दीपक का निर्वाण।
आशा के नर्तन का नूपूर,
पद की थिरक चुभाती शूल।
मै परिचित पाले था अबतक,
नयन की कोरों मे आंसू,
शांत है निर्मल जल उसका,
ज्वाल के ध्रूम उसे न छू।
प्रकृति से माली है दुरवृत्त,।
बीनता मुरझाये मै फूल।
मूक है मद्धिम है पदचाप….

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