
जुबिली न्यूज़ डेस्क
संसद में पास हो चुके दो किसान बिलों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन की हलचल पूरे देश में फैल रही है। कांग्रेस सहित कई विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे पर सरकार के खिलाफ लामबंद हो चुकी हैं। कई राज्यों के किसान इन बिलों का विरोध कर रहे हैं। विपक्ष की ओर से इसपर जबरदस्त सक्रियता देखने को मिल रही है। लेकिन मोदी सरकार भी लगभग तय कर चुकी है कि वह बैकफुट नहीं जाएगी। ऐसे में आइए एक नजर डालते हैं किसानों के आन्दोलन के इतिहास पर और समझते हैं कि इसका कब कब क्या असर हुआ।
सबसे पहले केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के समय हुए किसान आन्दोलन की ही बात करते हैं। बता दें कि केंद्र में सरकार बनने के तुरंत बाद यूपीए राज में पास किए गए भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने का प्रयास किया था, जिसका देश भर में विरोध हुआ और सरकार को पीछे हटना पड़ा था। अब तक छह साल के कार्यकाल में यही एक मामला है, जब मोदी सरकार फैसला करके पीछे हटी है।
हालांकि तमिलनाडु के किसानों के आन्दोलन पर भी सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा था और काफी छीछालेदर के बाद उनसे बातचीत करके उन्हें दिल्ली से वापस भेजा गया था। तमिलनाडु के किसानों का यह आन्दोलन भी बड़ी चर्चा में रहा था। इस दौरान किसानों के अनोखे-अनोखे प्रदर्शन की वजह से न सिर्फ मीडिया ही बल्कि सोशल मीडिया में भी जमकर जगह मिली थी।
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अब बात करते हैं वर्तमान में जारी आन्दोलन की। सबसे पहले तो एक बात समझनी होगी कि इस आन्दोलन की व्यापकता क्या है ? अगर गौर किया जाए तो किसान पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश कुछ हिस्सों में किसान आंदोलित हैं। पंजाब में किसानों ने तीन दिन तक रेल रोको आंदोलन का ऐलान किया है तो किसान संगठनों ने 25 सितंबर को भारत बंद का ऐलान किया है। बंगाल में टीएमसी, लेफ्ट फ्रंट और दूसरी सहयोगी पार्टियां भी किसानों के साथ अलग-अलग विरोध प्रदर्शन करने की तैयारी में हैं। वहीं तमिलनाडु में 28 सितंबर से DMK और उसके सहयोगियों ने भी विरोध प्रदर्शन करने का ऐलान किया है।
लेकिन अभी यह आन्दोलन उस तरह व्यापक नहीं दिख रहा जिस तरह की उम्मीद विपक्षी दलों को थी। ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिकतर राज्यों में किसानों को ये मुद्दा सीधे तरीक़े से प्रभावित नहीं कर रहा है। इसकी वजह है देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न प्रकार की खेती का किया जाना और सरकारी खरीद की प्रक्रिया।
महाराष्ट्र की बात तो वहां आंदोलन अधिकतर पश्चिमी हिस्से में दिखते हैं जहां गन्ने और प्याज़ की खेती होती है। महाराष्ट्र में किसान बड़ा वोटबैंक है लेकिन यहां गन्ना किसान अधिक हैं और गन्ने की ख़रीद के लिए फेयर एंड रीमुनरेटिव सिस्टम (एफ़आरपी) मौजूद है और उसका मूल्य तय करने के लिए शुगरकेन कंट्रोल ऑर्डर अभी भी है। उत्तर प्रदेश में भी काफी ज़मीन हॉर्टिकल्चर के लिए इस्तेमाल होने लगी है जिसका एमएसपी से कोई लेना-देना नहीं है।
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मध्यप्रदेश में आंदोलन का खास असर नहीं है। इसकी वजह है वहां कभी किसानों के मज़बूत संगठन नहीं रहे हैं। लेकिन वहां भी मंडियों में इसका विरोध हुआ है और मंडी कर्मचारियों ने हड़ताल की है। हालांकि आने वाले दिनों में यह आंदोलन तेज़ हो सकता है।

अगर किसान आंदोलन के इतिहास को देखें तो आपका पता चलेगा कि आंदोलन का केंद्र ज़्यादातर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश रहा है। पंजाब और हरियाणा में राजनीति किसानों से जुड़ी है और इस कारण वहां पार्टियों के लिए किसानों के पक्ष में आना मजबूरी है।
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हरियाणा के किसान आन्दोलन की बात करें तो इससे पहले भी प्रदेश में कई बड़े किसान आंदोलन हुए हैं। बंसीलाल की सरकार हो या फिर भजनलाल और ओमप्रकाश चौटाला का राज, इन तीनों मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में कई बड़े किसान आंदोलन हुए हैं। इन आंदोलनों में पुलिस की लाठी और गोली से कई किसानों की मौत हुई, जिनके बाद प्रदेश में सत्ता परिवर्तन होता चला गया।
बता दें कि हरियाणा में 1980 में पहला किसान आंदोलन हुआ। यह आन्दोलन बिजली के फ्लैट रेट और स्लैब प्रणाली से छेड़छाड़ के विरोध में हुआ था। उस समय काफी बवाल होने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल को अपना फैसला वापस लेना पड़ा था।
इसके बाद प्रदेश में दूसरा बड़ा आंदोलन 1991 के दौरान हुआ। उस समय भी मुख्यमंत्री भजनलाल ही थे। इस आन्दोलन में आधा दर्जन किसान मारे गए थे और कई घायल हो गए थे। आन्दोलन का असर यह हुआ कि 1996 में भाजपा के सहयोग से बंसीलाल की हविपा की सरकार बन गई। उसके बाद 2000 में चौटाला की बहुमत के साथ सरकार बन गई। इस बीच किसानों का संघर्ष लगातार जारी रहा।
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चौटाला की सरकार में भी गोलीबारी में आठ किसान मारे गए थे, जिसके बाद उनकी सरकार भी चली गई। चौटाला की सरकार जाने के बाद कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने जींद से दिल्ली तक किसान यात्रा निकाली और 2005 में सरकार बनाई। उसके बाद राज्य में कोई उग्र किसान आंदोलन नहीं हुआ। प्रदेश में 2014 से 2019 तक भाजपा की सरकार रही, लेकिन तब भी कोई किसान आंदोलन नहीं हुआ।
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