Thursday - 11 January 2024 - 1:41 PM

बड़े अदब से : आजादी का नाटक

तीन घंटे गर्मी और उमस में तपकर निकले बच्चों के हाथ में मिठाई दी जा रही थी। आजादी आसानी से नहीं मिलती, आजादी मीठी होती है, यह बच्चे जान गये थे। गांधी, नेहरू क्रांतिक्रारी बने बच्चे भी मिठाई पाकर खुश थे। ये बच्चे आजादी के नाटक के पात्र थे। बच्चों ने काफी मेहनत की थी।

पाठको, आपको बाल्य काल में खींच कर ले चलते हैं।  इस सेमी कान्वेंट स्कूल में इंडिपेंडेंस डे के फंक्शन के लिए आजादी का नाटक तैयार हो रहा है। स्कूल के कमरा नम्बर फोर ए में नाटक के लिए बच्चे छांटे जा रहे हैं। किसी को गांधी बनना है तो किसी को नेहरू। गांधी बनने में खर्चा कम आता है। एक मटमैली सी धोती को लंगोटी बनाकर लिपट जाओ और डंडा पकड़ लो। सिर पर मुलतानी मिट्टी और आंखों पर हवादार गोल चश्मा। नेहरू बनने में काफी खर्चा आता है। हर कोई नेहरू नहीं बन सकता। गरीब बच्चे गांधी बनने की फिराक में रहते हैं। टीचर जी भी जानती हैं कि कौन ड्रेस की राशि जमा कर सकता है और कौन पैसा न दे पाने के कारण बीमार पड़ जाएगा। राशि का सूचकांक साल दर साल बढ़ता जाता है।

पिछले साल सफेद कुर्ता-पाजामा जो चार सौ में नारे सहित सिल रहा था इस बार साढ़े पांच सौ में टोपी के साथ सिलवाये जा रहे हैं। टोपियां दिल्ली से मंगवाई जा रही हैं। बताते हैं कि दिल्ली की टोपी जो एक बार सिर पर फिट हो जाती है तो नाटक खत्म होने तक जमीं रहती हैं। अंग्रेज सार्जेंट और ऑफिसरों की ड्रेसेज आर्डर से बनवायी जा रही हैं। हजार-हजार का खर्चा आ रहा है। लांग बूट कानपुर से मंगवाये गये हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

गोरे-चिट्टे बच्चे जिनकी बोलचाल की अंग्रेजी थोड़ी ठीक है, अंग्रेज पुलिस अधिकारी बनाये जा रहे हैं और जो शक्ल से कम पढ़ा-लिखा और देहाती जैसा लुक देता है, सिपाही में भर्ती हो रहा है। कुछ क्रांतिकारी का रोल कर रहे हैं। उनके कुर्ते फटे हुए हैं। वे अनशन करेंगे, नारे लगायें और लाठियां खायेंगे। क्रांतिकारी बने बच्चे अक्सर शिकायत करते हैं कि अंग्रेज सच्ची-मुच्ची में उनकी पीठ पर जमा देते हैं। अंग्रेज बच्चे होशियार हैं और मैम को समझा देते हैं -‘रियल्टी, मैम रियल्टी। टोड़ा बोत टो चलटा हाय।” टीचर जी बच्चों को करेक्टर में पाकर खुश हैं। महारानी विक्टोरिया की तरह क्रांतिकारियों को डपट देती हैं-‘रोज तो हमसे डंडे खाते ही हो, दो चार और खा लोगे तो कौन सी आफत आ जाएगी।” दीपावली में खरीदी गयी पटाखे वाली बंदूक को लेकर वे पूरे स्कूल में अकड़कर घूमते रहते हैं।…

कार्यक्रम में भाग ले रहे बच्चों को बाकी बच्चों से विशेष ट्रीटमेंट मिलता है। वे क्लास से छुट्टी -याफता होते हैं। उनका होमवर्क उसके बगल वाला बच्चा रात-रात भर जाग कर करता है। प्रैक्टिस के बाद केला या पेटीज दी जाती है। बाकी बच्चे केले को ऐसी ललचाई निगाहों से देखते हैं मानो कभी देखा ही न हो। वे काफी करीब आकर ये देखने का प्रयास करते हैं कि पेटीज आलू वाली है या पनीर वाली। एक आध सहपाठी पुराना लिया-दिया गिनाकर, पेटीज का कोना पाने में सफल भी हो जाते हैं।फाइनेंशियल क्रंच की वजह से मनमसोस कर रह गये बच्चे, अगली बार के लिए अभी से गुल्लक में पैसे जोड़ने की प्रेरणा ले रहे हैं।…

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हमारे जमाने में भी आजादी ताजी-ताजी आयी थी। हमारे स्कूल में भी नेहरू और गांधी बनने की होड़ लगी थी। मैंने भी अपने पिताजी से कहा कि मैं भी गांधी बनना चाहता हूं। उन्होंने कहा कि बेटा ‘गांधी बनना है तो विचारों से, कर्म से बनो, स्वांग धर कर नहीं।” मैं कभी गांधी नहीं बन सका। पिता जी भी नहीं बने। जब मेरी गांधी न बन पाने वाली उम्र का मेरा बेटा, गांधी बनने के लिए मचला तो मैंने उसे मांगकर लायी गयी धोती पहनायी। तार मोड़कर चश्मा तैयार किया और बालों में मुल्तानी मिट्टी लगाकर रूई की मूंछ लगा दीं। थोड़ी देर में उसकी। दोनों आंखें सूज आयीं। टीचर ने उसे तुरन्त घर लौटाते हुए कहा कि इसे डाक्टर के पास तुरन्त ले जाइये…कहीं गांधी बनने के चक्कर में यह अंधा न हो जाए।…

घर लौटते हुए बच्चे ने बड़ी मासूमियत से पूछा- ‘पापा, ये सभी गांधी बेमौत क्यों मारे गये?”

मेरे बच्चे की आंखें और भी सुर्ख हो उठी थीं।… टीचर की बातें मेरे कानों में गूंज रही थीं-‘ इसे डाक्टर के पास तुरन्त ले जाइये…कहीं गांधी बनने के चक्कर में यह अंधा न हो जाए।” …

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं) 

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