अभिषेक श्रीवास्तव
अभी कल ही सफर के दौरान बनारस फ्लाइओवर हादसे पर ओमप्रकाश दीवाना का बिरहा सुनते हुए मन में खयाल आ रहा था कि पॉलिटिक्स को समझाने के लिए कल्चर का फॉर्म यानी सांस्कृतिक स्वरूप और उसे प्रसारित करने का माध्यम कितने ज़रूरी पहलू हैं।
नब्बे साल तक कथित जनवादी ताकतें जो नारे देती रहीं, उन्हें पॉपुलर कल्चर के माध्यमों से लोगों के बीच ले जाने की नाकामी ने हमारी पब्लिक स्पेस को ही भ्रष्ट कर डाला। बीच की ज़मीन ही नहीं रही। उस ज़मीन को आज भी रिक्लेम करने पर कोई बात नहीं कर रहा। हर किसी को चुनावी हार जीत की तकनीकी बहस में रुचि है, कल्चर का मैदान पूरी तरह दूसरों के चरने के लिए छोड़ दिया गया है।
ऐसे में आज जब सिनेमाहॉल में इंटरवल के दौरान दो स्कूली बच्चों को अनुच्छेद 15 के संवैधानिक पहलुओं पर बात करते सुना, तो अनुभव सिन्हा के प्रति थोड़ा भरोसा जगा, जिन्हें मुल्क के कमज़ोर कथानक के चलते मैं भूल चुका था।
आर्टिकल 15 फिल्म मुल्क के मुकाबले कई मायनों में बेहतर है, सिनेमाई भी और विषय प्रवर्तन व प्रसारण के लिहाज से भी। सिनेमा को सिनेमा ही होना चाहिए, संदेश हो तो बेहतर। यह फिल्म दोनों का निर्वाह बराबर करती है। विरोध या निंदा करने वालों की अपनी राजनीति है, लेकिन मेरा ध्यान एक ऐसे आयाम की तरफ गया जो है तो बहुत सूक्ष्म, लेकिन उसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
दो साल पहले दिल्ली में पत्रकार पी. साईनाथ का एक व्याख्यान हुआ था जिसका विषय थोड़ा परंपरा से हट कर था। व्याख्यान अमीरों के Moral Compass के दिशा बदलाव के बारे में था। कैसे उदारवाद ने अभिजात्य वर्ग के नैतिक जगत को भ्रष्ट बनाया है, उस पर साईनाथ ने बड़े विस्तार से बात रखी थी।
आर्टिकल 15 का नायक और उसका आदर्शवाद मुझे उस व्याख्यान की याद दिलाता है। पता नहीं स्क्रिप्ट लिखने वाले के दिमाग में आयुष्मान खुराना के किरदार को रचते हुए क्या चल रहा होगा, लेकिन मुझे ऐसा लगा कि हम जिस हकीकत से जितना दूर होते हैं, उसे इतनी ही शिद्दत से महसूस कर सकते और बदल सकते हैं।

कविता पर इलियट का भी एक ऐसा ही कथन था, कि कवि और भोक्ता में जितनी दूरी होगी कविता उतनी ही प्रामाणिक होगी। सवाल तो बनता ही है कि जिन नाइंसाफियों को हम रोज़ाना अपने इर्द गिर्द घटता देखते हैं, उन्हें लेकर हमारी प्रतिक्रिया इतनी शुष्क क्यों हो जाती है।
मार्क्स ने सर्वहारा क्रांति का अगुवा आखिर मध्यवर्ग को ही क्यों बताया था? मजदूर वर्ग को क्यों नहीं? सबसे बड़ी गुलामी वह है जो आज़ादी का अहसास दिलाती हो। संसदीय राजनीति में आइडेंटिटी पॉलिटिक्स और उसके वाहक दल ऐसी गुलामियों के प्रणेता हैं।
याद करिए जाटव का बयान, कि एक बार जब फूल और हाथी साथ आ गए तो उसने साइकिल का बटन दबा दिया। इससे बड़ा कटाक्ष क्या हो सकता है पहचान के आधार पर संसदीय राजनीति करने वालों की नाकामी पर?
आर्टिकल 15 कई चीजों को साथ लेकर चलती है, तो केवल इसलिए क्योंकि चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। हिंदुत्व, पहचान की राजनीति, दलित उत्पीड़न, दलितों में भी क्लास का सवाल, रैडिकल दलित उभार, निचली जातियों का असर्शन, मध्यक्रम की जातियों की कूटनीति, प्रशासनिक जड़ता, सत्ता का संतुलन और इस बीच एक असहमत को चौतरफा न्यूट्रलाइज करने की कोशिशें – ये सब एक ही सिक्के के पहलू हैं।
अव्वल तो जो बात यह फिल्म स्थापित करती है वो यह, कि निजी पहल या आदर्श से व्यवस्था में बदलाव संभव नहीं है। ब्रह्मदत्त के जुमले में कहें तो इनफैक्ट, यह फिल्म नायक को बनाती नहीं, बने हुए नायक की सड़ी हुई व्यवस्था के समक्ष नाकामी और नायकीय सीमाओं का उद्घाटन करती है।
दूसरे, समुदाय के भीतर से निकले दूसरे नायक निषाद की नियति को भी फिल्म उद्घाटित करती है, जिसका अंत में एनकाउंटर हो जाता है। कुल मिलाकर समझने वाली बात ये है कि वर्ण व्यवस्था का सवाल संसदीय राजनीति और निजी नायकत्व से आगे का प्रश्न है।
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इसका इलाज क्या होगा, फिल्मकार वह बताने को न तो बाध्य है न ही उसे बताना चाहिए, चूंकि उसके पास वह है भी नहीं। अस्सी के दशक के भ्रमित करने वाले नायकत्व का दौर अब जा चुका, यह साफ है।
इस लिहाज से सिनेमा के माध्यम से जाति के प्रश्न पर मध्यवर्ग को सेंसिटाइज करना ही फिल्म की कामयाबी होगी, यदि ऐसा हुआ तो। नहीं हुआ, तब भी फिल्म मुकम्मल है। वैसे, क्या आर्टिकल 19 पर भी कोई फिल्म बनाने की सोच रहा है? अगर हां, तो इधर संपर्क करें।
काफी कहानियां बिखरी पड़ी हैं। वैसे कायदे से तो होना यह चाहिए कि संविधान की अलग अलग धाराओं और अनुच्छेदों पर फिक्शन क्रिएट किया जाता।
अनुभव सिन्हा ने शुरुआत कर दी है। नज़ीर सामने है। धरती वीरों से खाली नहीं हुई है। आगे भी जो होगा, अच्छा ही होगा।
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )
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