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कर्नाटक राजनीति के ‘सिकंदर’ हैं येदियुरप्पा


प्रीति सिंह

हारी बाजी को जिसे जीतना आता है, वह सिकंदर कहलाता है। यह लाइन वर्तमान में कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा पर सटीक बैठ रही है। वह अपनी कुशल रणनीति और सूझबूझ से ही हारी हुई बाजी जीत कर कर्नाटक की सत्ता में काबिज हुए हैं।

कहते हैं, प्यार और जंग में सब जायज होता है। आप किस तरीके से जीत हासिल किए हैं यह मायने नहीं रखता, मायने रखता है सिर्फ जीत। कर्नाटक की राजनीति में भी ऐसा ही कुछ हुआ। कर्नाटक के नये मुख्यमंत्री व बीजेपी नेता युदियुरप्पा ने हारी बाजी को जीत कर एक बार फिर सिकंदर बन गए हैं।

कर्नाटक की राजनीति में 76 वर्षीय येदियुरप्पा की अहमियत का अंदाजा उनकी उम्र का नंबर देखकर लगाया जा सकता है। जिस बीजेपी ने सक्रिय राजनीति की सीमा 75 बताकर बीते लोकसभा चुनाव में 75 पार सभी वरिष्ठ नेताओं को टिकट नहीं दिया, वहीं येदियुरप्पा के लिए बीजेपी ने यह सीमा नजरअंदाज कर दिया।

येदियुरप्पा की अहमियत का अंदाजा इससे भी लगा सकते हैं कि वंशवाद के खिलाफ मुखर बीजेपी के बाद भी येदियुरप्पा का पूरा परिवार राजनीति में हैं। बड़ा बेटा राघवेन्द्र लोकसभा में सांसद है तो छोटा बेटा विजेन्द्र राज्य में विधायक और येदियुरप्पा की मित्र शोभा कारंलादेज लोकसभा सांसद हैं।

यदि कर्नाटक में बीजेपी कमल खिलाने में कामयाब हो पाई थी तो येदियुरप्पा की ही वजह से। उन्हीं की मेहनत का नतीजा है कि कर्नाटक में बीजेपी की तीन बार सरकार बनी और वह मुख्यमंत्री। इस बार येदियुरप्पा चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लिए हैं। हां, यह अलग बात है कि वह एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये।

बीजेपी के पास येदियुरप्पा का विकल्प नहीं

ऐसा नहीं है कि बीजेपी शीर्ष नेतृत्व ने येदियुरप्पा का विकल्प नहीं ढूढा। येदियुरप्पा की काट बीजेपी ने दो बार ढूढा लेकिन बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी।

बीजेपी ने सदानंद गौड़ा और जगदीश शेट्टर को मुख्यमंत्री बनाकर भरोसा जताया था लेकिन ये दोनों उनके भरोसे पर खरे नहीं उतरे। बीजेपी का यह राजनैतिक प्रयोग चला नहीं और हर बार चुनाव के समय कर्नाटक जीतने के लिए बीजेपी को लिंगायत समुदाय के सबसे बड़े नेता येदियुरप्पा के दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ी।

येदियुरप्पा की ताकत है लिंगायत की वफादारी

कर्नाटक में येदियुरप्पा इतने ताकतवर है तो इसके पीछे कौन है, इसका जिक्र अमूमन होता है। दरअसल येदियुरप्पा की ताकत 17 प्रतिशत लिंगायत का वोट वैंक है। इस वोट बैंक की वफादारी येदियुरप्पा की ताकत है जो उन्हें कर्नाटक का सिकंदर बनाए हुए है।

लिंगायत समुदाय की वफादारी येदियुरप्पा के प्रति इस कदर है कि वह किसी के बहकावे में नहीं आती। 2015 में कांग्रेस नेता सिद्धारमैया ने लिंगायतों को अल्पसंख्यक दर्जा देने का लॉलीपॉप दिया था, बावजूद इन लोगों ने येदियुरप्पा का साथ नहीं छोड़ा।

येदियुरप्पा के नेतृत्व में लड़े गए 2018 के विधानसभा चुनाव में 104 सीट और लोकसभा की 28 सीटों में से 25 सीटें येदियुरप्पा ने मोदी की झोली में डाली।

चुनाव की दिशा बदलने की क्षमता रखते हैं लिंगायत

कर्नाटक की राजनीति वोक्कालिगा समुदाय और लिंगायत के बीच बंटी हुई है। वोक्कालिगा समुदाय का वोट बैंक देवगौड़ा परिवार के साथ खड़ा रहता है और लिंगायत येदियुरप्पा के साथ।

दरअसल कर्नाटक की राजनीति में लिंगायत समुदाय 224 सीटों में से 120 सीटों पर वीरशैव के साथ मिलकर चुनाव को किसी भी दिशा में मोडऩे की क्षमता है। येदियुरप्पा की ताकत उनके साथ खड़ा 17 प्रतिशत लिंगायत वोट बैंक है जिसे बीजेपी नजरअंदाज नहीं कर सकती और सच यह है कि कर्नाटक में बीजेपी के पास येदियुरप्पा से बड़ा कोई नेता नहीं है।

येदियुरप्पा से पंगा लेना पड़ा है भारी

येदियुरप्पा जब पहली बार 2008 में मुख्यमंत्री बने तो थोड़े समय के भीतर ही अनंत कुमार के नेतृत्व में चलने वाली कर्नाटक बीजेपी की दूसरी लॉबी ने उनके खिलाफ बगावत की शुरूआत कर दी। 39 महीने के भीतर ही येदियुरप्पा का नाम जब लोकायुक्त की जांच में आया, तो बीजेपी संसदीय बोर्ड ने उनसे इस्तीफा ले लिया।

अनंत कुमार ने आडवाणी के सहयोग से जगदीश शेट्टर को नया मुख्यमंत्री बनाने की पूरी कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हुए।

तब के बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अरूण जेटली और राजनाथ सिंह को भेजकर विधायकों के बीच गुप्त मतदान कराए जिसमें येदियुरप्पा के उम्मीदवार और वर्तमान में केन्द्रीय मंत्री सदानंद गौड़ा को सबसे ज्यादा वोट मिले।

बीजेपी हाईकमान को येदियुरप्पा की पसंद सदानंद गौड़ा को मजबूरन मुख्यमंत्री बनाना पड़ा।

येदियुरप्पा से पंगा लिया तो बीजेपी सत्ता से हुई बाहर

2012 में जब येदियुरप्पा लोकायुक्त जांच का सामना कर रहे थे तब बीजेपी ने उन्हें साइड लाइन कर दिया था। 2013 विधानसभा चुनाव की कमान मांगने वाले येदियुरप्पा की काट बीजेपी ने अनंत कुमार के करीबी दूसरे लिंगायत नेता जगदीश शेट्टर को सदानंद गौड़ा की जगह मुख्यमंत्री बनाकर खोजा।

उसी दौरान येदियुरप्पा के घर पर छापे भी पडे । इस सबसे परेशान येदियुरप्पा ने बीजेपी छोड़कर क्षेत्रीय पार्टी बना ली। इसका नतीजा यह हुआ कि 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई।  सत्ता से बाहर होने के बाद बीजेपी को येदियुरप्पा की ताकत का अहसास हुआ।

जब 2014 के लोकसभा चुनाव का नेतृत्व करने के लिए बीजेपी संसदीय बोर्ड ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को कमान सौंपी तो सबसे पहला काम नरेन्द्र मोदी ने येदियुरप्पा की बीजेपी में वापसी कराकर पूरी की।

येदियुरप्पा ने भी मोदी के लिए सबसे महत्वपूर्ण लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार होते हुए भी 17 लोकसभा सीटें दिलाकर मोदी को दिल्ली पहुंचाने में मदद की। तब से मोदी और येदियुरप्पा की कमेस्ट्री में कोई बदलाव नहीं आया है।

कन्नाटक की राजनीति में अपनी अंतिम पारी खेल रहें येदियुरप्पा के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे 39 महीने के सरकार का अपना रिकार्ड तोड़कर चार साल स्थायी सरकार चलाएं जो बागी विधायकों की महत्वकांक्षा और बेहद कम बहुमत के साथ बेहद मुश्किल हो सकता है, लेकिन येदियुरप्पा के साथ पीएम मोदी हैं और राज्य में उनके सामने चुनौती देने वाला कोई बड़ा नेता नहीं है।

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