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जाने क्यों जरूरी है ओजोन परत

जुबिली न्‍यूज डेस्‍क 

पर्यावरण का अर्थ है पृथ्वी का आवरण और इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है ओजोन परत या ओजोन शील्ड। एक रंगहीन गैस स्तर के रूप में पृथ्वी से करीब 15 से 35 किमी. ऊपर मौजूद ओजोन परत मुख्य रूप से पृथ्वी के समतापमंडल में पाई जाती है, जो सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करती है।

प्रकृति ने इस कवच की आवश्यकता इसलिए तय की है, क्योंकि सूरज की अल्ट्रावॉयलेट किरणें और इनका रेडिएशन पृथ्वी पर प्रतिकूल असर डालते हैं। इन्हें ही रोकने का काम ओजोन परत का है।

ओजोन परत पृथ्वी को सूर्य की हानिकारक अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाने का काम करती है। ओजोन परत के बिना जीवन संकट में पड़ सकता है, क्योंकि अल्ट्रावायलेट किरणें अगर सीधे धरती पर पहुंच जाए तो ये मनुष्य, पेड़-पौधों और जानवरों के लिए भी बेहद खतरनाक हो सकती हैं। ऐसे में ओजोन परत का संरक्षण बेहद महत्वपूर्ण है।

हर साल 16 सितंबर को वर्ल्ड ओजोन डे मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का मकसद लोगों को ओजोन परत के प्रति जागरूक करना है। ओजोन परत, ओजोन अणुओं की एक परत है जो 10 से 50 किलोमीटर के बीच के वायुमंडल में पाई जाती है।

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वायु मंडल के स्‍ट्रेटोस्फियर में ओजोन परत होती है। यूवी किरणों से त्‍वचा कैंसर तथा मोतियबिंद आदि अनेक भयावह रोग फैलते हैं। साथ ही ये किरणें पौधों की नस्‍ल व उसके विकास में भी बाधक है और इनसे समुद्री खाद्य चक्र भी कुप्रभावित होता है। क्‍योंकि ये संवेदनशील जीवों को नष्‍ट करने की क्षमता रखते है।

मानव निर्मित कुछ रासयनिक पदार्थ ओजोन परत को क्षति पहुंचा रहे हैं, जिससे ओजोन परत या तो पतली होती जा रही है या उसमें छेद होता जा रहा है। जिससे ओजोन परत की प्रतिरोधक क्षमता कम होता जा रही है।

अनुमान यह है कि हर एक दशक में लगभग 3 फीसदी ओजोन परत की प्रतिरोधक ओजोन की कमी होती जा रही है। एकअध्ययन केअनुसार वर्तमान गति से यदि ओजोन में कमी आती रही तो वर्ष 2075 तक 6 करोड नए त्‍वचा कैंसर तथा 170 करोड मोतियबिंद के नए मामले आ सकते है।

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बता दें कि वर्ष 1913 में सबसे पहले फ्रांसीसी भौतिकशास्त्री चाल्र्स और हेनरी ने ओजोन परत की खोज की थी। वह यह देखना चाहते थे कि जो रेडिएशन सूर्य से पृथ्वी तक पहुंचता है वो आखिर किन कारणों से पृथ्वी के भीतर नुकसान नहीं पहुंचाता, क्योंकि वह तापक्रम करीब 5500-6000 डिग्री सेंटीग्रेड तक माना जाता है।

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यह ओजोन परत अपने 97-99 फीसद तक सूरज की मध्यम फ्रीक्वेंसी की अल्ट्रावॉयलेट किरणों को पृथ्वी तक आने नहीं देती और पृथ्वी बड़े नुकसान से बची रहती है। वर्ष 1976 में हुए एक अन्य शोधकार्य में पाया गया कि मानवीय गतिविधियों के कारण धीरे-धीरे ओजोन परत भी नष्ट हो रही है।

लंबे समय से ओजोन परत पर शोधकार्य जारी है। शोध में सामने आया कि इस परत के नष्ट होने के मुख्य कारणों में वे गैसें हैं, जो उद्योगों का उत्पाद हैं। इसमें

क्लोरीन, ब्रोमीन जैसे दो तत्व हैं, जो इसको बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं और जिनके कारण यह परत पतली होती जा रही है। इसमें ध्रुवीय क्षेत्र व अंटार्कटिका ने इसका ज्यादा असर झेला।

वर्ष 1970 में वैज्ञानिकों ने इस शोध का अध्ययन करके इसे आगे बढ़ाने की कोशिश की। इसी कारण अमेरिका को भी सुपरसोनिक ट्रांसपोर्ट स्थगित करना पड़ा, क्योंकि लगभग हर बड़े एयरक्राफ्ट नाइट्रोजन ऑक्साइड छोड़ते हैं। वर्ष 1974 में अमेरिकन केमिस्ट मारियो और शेरवुड ने एक अध्ययन में पाया कि कार्बन, फ्लोरीन व क्लोरीन के परमाणु वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन में ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने की सबसे ज्यादा क्षमता है। इसी अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए क्रुट्जन मोलीना और रोलैन ने इस कार्य में बड़ा योगदान दिया। इसके लिए उन्हेंं वर्ष 1995 में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया।

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16 सितंबर, 1987 को संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में ओजोन छिद्र से उत्पन्न चिंता के निवारण के लिए कनाडा के मांट्रियल शहर में दुनिया के 33 देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसे ‘मांट्रियल प्रोटोकॉल’ कहा जाता है। इसकी शुरुआत एक जनवरी, 1989 को हुई। इस प्रोटोकॉल का लक्ष्य वर्ष 2050 तक ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले रसायनों पर नियंत्रण करना था।

प्रोटोकॉल के मुताबिक, यह तय किया गया था कि ओजोन परत का विनाश करने वाले पदार्थ क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) के उत्पादन और उपयोग को सीमित किया जाए, लेकिन इस पर बहुत ज्यादा अमल नहीं हुआ। जिससे इसके हानिकारक प्रभाव भी झेलने पड़े।

इसके बाद 19 दिसंबर, 1994 को संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) ने 16 सितंबर को ओजोन परत के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस घोषित किया। 16 सितंबर 1995 को पहली बार विश्व ओजोन दिवस मनाया गया।

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