
अब्दुल हई
भाजपा ने मॉडल टाउन से कपिल मिश्रा को उम्मीदवार बनाया है, ये आम आदमी पार्टी के बागी मंत्री रह चुके हैं। इन्होंने लंबे समय से आम आदमी पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था। इसी तरह कांग्रेस ने चांदनी चौक से विधानसभा चुनाव के लिए अल्का लांबा को प्रत्याशी बनाया है। भाजपा ने गांधीनगर से विधायक रहे अनिल वाजपेयी को प्रत्याशी बनाया है। अनिल वाजपेयी ने लोकसभा चुनाव के समय दिल्ली भाजपा का दामन थामा था। इसी प्रकार द्वारका से विधायक रहे आदर्श शास्त्री को भी कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में उतारा है।
आम आदमी पार्टी ने आदर्श शास्त्री का टिकट काटकर कांग्रेस के पूर्व सांसद महाबल मिश्रा के बेटे विनय मिश्रा को टिकट दिया है। वहीं, बदरपुर से विधायक रहे एनडी शर्मा ने बसपा का दामन थाम लिया है। बसपा ने एनडी शर्मा को टिकट दिया है। आम आदमी पार्टी ने भी बहुत से ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जिन्होंने टिकट मिलने से महज सप्ताह भर पहले ही पार्टी की सदस्यता ली। इनमें ज्यादातर प्रत्याशी कांग्रेस से आए हैं। द्वारका से विनय मिश्रा, बदरपुर से रामसिंह नेताजी, मटिया महल से शोएब इकबाल, गांधीनगर से दीपू चैधरी, हरिनगर से राजकुमारी ढिल्लो और जयभगवान उपकार (बसपा) ऐसे दल बदलू हैं, जिन्हें आम आदमी पार्टी की ओर से टिकट दिया गया है
कुछ जनसेवक या जनप्रतिनिधि मौका परस्त होते हैं और वो सत्ता का सुख भोगने के लिए जिस राजनीतिक पार्टी का पलड़ा भारी होता है उस राजनीतिक पार्टी का दामन थाम लेते हैं। यह नेता भले ही गली-मोहल्ले के स्तर वाले क्यों न हों, लेकिन अपनी पार्टी में इन्हें शामिल कराने वाले नेता-पदाधिकारी इनका बखान ऐसे करते हैं कि मानो इनके साथ आ जाने से विरोधी पार्टी की रीढ़ ही टूट गई हो। उनके पदनाम भी ऐसे बताए जाते हैं जैसे उनका कद काफी बड़ा हो।
आज के दौर में चुनाव प्रक्रिया भी ऐसा ही रूप धारण करती जा रही है, जैसे किसी राजतंत्र में या मुगल साम्राज्य के दौरान उत्तराधिकार को लेकर हुए संघर्ष। उस समय भी प्रबुद्ध वर्ग अपने-अपने चहेतों का पक्ष लेते नजर आते थे, ताकि शासन सत्ता में उन्हें भी बड़ा पद मिल सके, वहीं आज के समय में हो रहा कि शासन सत्ता अपने चाहने वालों के हाथों आ सके और सत्ता में कोई बड़ा पद मिल सके।
यह भी पढ़ें : “विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के मुकाबिल आम आदमी”
सच है जनता जानती सब कुछ है, फिर चाहे तो राजनीतिक दल बदल लो। आज के दौर में जनता के सामने कोई अच्छा विकल्प भी तो नहीं है। नोटा का विकल्प, केवल विकल्प मात्र है उसमें खुद की कोई ताकत नहीं। हालांकि पिछले विधानसभा में दिल्ली की जनता के सामने आम आदमी पार्टी एक अच्छा विकल्प थी, लेकिन अब वह भी उसी ढर्रे पर चल पड़ी है जो अन्य राजनीतिक पार्टियां करती हैं। न कोई नीति है न कोई विचारधारा, बस कुछ शेष है तो वह दूसरे की खामियों को गिनाना।
जब पिछली बार दिल्ली विधानसभा चुनावों में आप ने बेहतर प्रदर्शन करते हुए जीत दर्ज की और पहली ही बार में देश की राजधानी में सरकार बना ली। उद्देश्य था वर्तमान राजनीतिक पार्टियों से अलग स्वच्छ छवि की पार्टी और सरकार बनाना। परंतु पार्टी तब नकारात्मकता की ओर बढ़ी जब उसने उन्हीं नेताओं का साथ लिया, जो भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त थे और आपराधिक छवि वाले नेताओं की जमात में थे। एक दृष्टि से यह आप के लिए बहुत ही गलत था क्योंकि आम आदमी पार्टी एक नए उद्देश्य से खड़ी हुई और एक समय केंद्र के खिलाफ भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल जैसे बिलों पर आंदोलन किया। यह सही हो सकता है कि आप सरकार ने दिल्ली में काफी अच्छा काम किया हो लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वह लड़खड़ा रही है।
सत्ता का मोह क्या-क्या नहीं करवाता है, यह राजतंत्र के समय से जारी था और अब भी जारी है। राजनीतिक पार्टियां अपने हर प्रतिनिधि को संतुष्ट नहीं कर पाती है। यही वजह है कि नेता लोग दल बदल लेते हैं। भले ही संसद ने इनके लिए नियम बना दिए हो लेकिन वो कोई मायने नहीं रखता, जिसका ताजा उदाहरण दिल्ली विधानसभा में भी देखने को मिला है।
दिल्ली में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान 8 फरवरी को होने हैं। इस चुनाव में कई स्वार्थी नेताओं ने अपनी राजनीतिक पार्टी बदल ली है। आप और कांग्रेस के कई कई असंतुष्ट नेताओं ने बीजेपी का दामन थाम लिया, जिनमें आप युवा मोर्चा के अध्यक्ष अतुल कोहली, आप महिला शाखा की विजय लक्ष्मी, जैसमीन पीटर और कांग्रेस के पंकज चौधरी शामिल हुए। वहीं आप के विधायक आदर्श शास्त्री ने कांग्रेस पार्टी जॉइन कर ली। यहीं नहीं आप के 15 विधायकों ने पार्टी छोड़ दी। वहीं आप विधायक अल्का लांबा ने भी वक्त की नजाकत देखते हुए और कांग्रेस पार्टी के कई राज्यों में मिले बहुमत से एक बार फिर पार्टी जॉइन कर ली है। इससे पहले वह आम आदमी पार्टी की विधायक रही। इस तरह पार्टी बदलना तो सिर्फ शासन सत्ता का सुख भोगना मात्र ही है। जनता के प्रति या किसी एक विचारधारा के अनुसार कार्य करने का उद्देश्य यहां नजर नहीं आता है।
यह भी पढ़ें : क्यों चर्चा में हैं मोदी का असम दौरा
ऐसे नेताओं के चलते किसी पार्टी के युवाओं को मौका बहुत ही कम मिलता है। न किसी विधायक या सांसद की कोई योग्यता निश्चित है, न उम्र निश्चित है। कोई कितने ही बार चुना जाए, क्षेत्र का विकास वैसा ही बना रहता है। कई दिग्गज चाटुकार तो कई-कई बार से अजेय बने हुए हैं। इस प्रकार के नकारात्मक महत्त्वाकांक्षी लोगों के चलते योग्य उम्मीदवार आगे नहीं आ पाते हैं। किसी भी युवा को मौका नहीं बस जनता तो तब याद आती है जब नई सरकार चुननी हो। दिल्ली विधानसभा में ही नहीं, बल्कि केंद्र सरकार में भी युवाओं को मौका दें ऐसी पार्टियों का समर्थन देश के मतदाताओं को करना चाहिए। यह भी मांग होनी चाहिए कि नोटा को अधिक ताकतवर बनाएं, योग्यता निश्चित की जाए, जन प्रतिनिधि बनने के अवसरों को भी निश्चित किया जाए। अब देखना है जनता क्या उसी गुलाम मानसिकता से मतदान करेगी या कुछ बदलाव की आवाज उठाएगी।
चुनाव आयोग और सभी दलों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि जनता द्वारा चुनावों में नकारा गया कोई भी नेता राज्यसभा या विधानपरिषद के सहारे दोबारा जनप्रतिनिधि कहलाने का हक हासिल न कर पाए। चुनावों के समय पार्टी बदलने वाले नेताओं पर कुछ समय तक न केवल चुनाव लड़ने पर रोक लगे बल्कि उन्हें पार्टी कार्यकर्ताओं और जनता के बीच जाकर उनका विश्वास दोबारा हासिल करने जैसी कोई शर्त भी हो।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
यह भी पढ़ें : स्टडी रूम में इस इस आकृति को रखे तो पढ़ाई में लगेगा मन
यह भी पढ़ें : सरकार ने इसलिए YouTube- Google को दी चेतावनी
Jubilee Post | जुबिली पोस्ट News & Information Portal
