डा. उत्कर्ष सिन्हा
बांग्लादेश की ताज़ा हिंसा ने साफ दिखा दिया है कि 2024 के राजनीतिक उथल‑पुथल और सत्ता‑परिवर्तन के बाद वहाँ की सत्ता‑संरचना के भीतर कट्टरपंथी ताकतें न सिर्फ पुनर्गठित हो रही हैं, बल्कि सड़कों पर अपने एजेंडे को खुलेआम लागू करने की स्थिति में पहुँच चुकी हैं। शरिफ़ उस्मान हादी जैसे छात्र‑युवा नेता की मौत के बाद भड़की भीड़ ने जिस तरह मीडिया हाउस, सांस्कृतिक संस्थानों और भारत‑समर्थक प्रतीकों को निशाना बनाया, उसने यह संकेत दे दिया कि यह सिर्फ एक भावनात्मक उभार नहीं, बल्कि संगठित राजनीतिक‑धार्मिक परियोजना है। सवाल अब सिर्फ यह नहीं है कि बांग्लादेश हिंसा से कब उबरेगा, बल्कि यह है कि यह देश किस दिशा में धकेला जा रहा है – एक समावेशी लोकतंत्र की ओर या एक “हाइब्रिड इस्लामी रिपब्लिक” की ओर, जहाँ असली सत्ता कट्टरपंथ और सैन्य‑इंटेलिजेंस गठजोड़ के हाथ में हो।
हादी की मौत से शुरू हुई आग
शरिफ़ उस्मान हादी 2024 के छात्र‑युवा आंदोलन का एक अहम चेहरा बन चुके थे, जिन्हें सुरक्षा बलों की गोली लगने के बाद अस्पताल में दम तोड़ने की खबर ने पूरे देश को हिला दिया। उनकी मौत ने उस पीढ़ी के ग़ुस्से को दोबारा जगा दिया जो पहले ही बेरोज़गारी, महंगाई और राजनीतिक अस्थिरता से टूट चुकी थी, लेकिन सड़कों पर उतरी भीड़ को जिस दिशा में मोड़ा गया, वह आकस्मिक नहीं लगती।

हिंसा का पहला शिकार राज्य नहीं, मीडिया बना – Prothom Alo और The Daily Star जैसे बड़े अख़बारों के दफ्तरों पर हमले, आगज़नी और तोड़फोड़ की घटनाएँ यह दिखाती हैं कि निशाना उस विचारधारा पर था जो बांग्लादेश के भीतर सेक्युलर‑उदार लोकतांत्रिक नैरेटिव को बचाए रखने की कोशिश कर रही थी। इस भीड़ में ऐसे समूहों की सक्रिय मौजूदगी दर्ज की गई जो लंबे समय से जमात‑ए‑इस्लामी और दूसरे कट्टर संगठनों से जुड़े रहे हैं, यानी ग़ुस्से की असली दिशा वहीं से तय होती दिखी।
तख्तापलट के बाद की सत्ता‑संरचना और कट्टरपंथ की वापसी
शेख़ हसीना के इस्तीफ़े के बाद बनी अंतरिम व्यवस्था को शुरू में “लोकतांत्रिक संक्रमण” की दिशा में एक मौका माना गया, लेकिन धीरे‑धीरे यह स्पष्ट होने लगा कि सड़कों की ताकत जिनके हाथ में थी, उन्हें सत्ता‑संरचना में भी हिस्सेदारी दी जा रही है। डॉ. मुहम्मद यूनुस की अगुआई वाली व्यवस्था पर यह आरोप लगातार लगा कि उसने जमात‑केंद्रित और कट्टरपंथी इस्लामी समूहों को “स्थिरता” के नाम पर वैध राजनीतिक स्पेस दिया, ताकि वे खुलकर राज्य के खिलाफ़ हथियारबंद विद्रोह न करें।
यही स्पेस आज हिंसा के रूप में लौट रहा है। जमात‑ए‑इस्लामी और उसके छात्र/युवा विंग्स – जिन पर 1971 के युद्ध अपराधों की विरासत से लेकर आतंकी नेटवर्क तक के आरोप लगे – अब सड़कों पर न सिर्फ भीड़ मैनेज कर रहे हैं, बल्कि सत्ता के साथ सौदेबाज़ी की स्थिति में भी हैं। यह मॉडल पाकिस्तान के 1980‑90 के दशक की याद दिलाता है, जहाँ “जेहाद” और “लोकतंत्र” को साथ‑साथ चलाने की कोशिश ने अंततः पूरे समाज को चरम हिंसा और अस्थिरता की ओर धकेल दिया था।
आईएसआई और नया ‘ढाका सेल’
बांग्लादेश में कट्टरपंथी राजनीति के पुनरुत्थान को पाकिस्तान की आईएसआई के पूर्वी मोर्चे की नई रणनीति से अलगाकर देखना भूल होगी। कई रिपोर्टों के अनुसार ढाका स्थित पाकिस्तान उच्चायोग के भीतर एक विशेष “ढाका सेल” सक्रिय है, जिसमें सैन्य‑इंटेलिजेंस अधिकारी तैनात हैं और जिसका घोषित उद्देश्य तो कूटनीतिक व सुरक्षा‑सहयोग है, लेकिन वास्तविक एजेंडा भारत‑विरोधी और इस्लामी नेटवर्क को मज़बूत करना माना जा रहा है।
इस सेल की भूमिका तीन स्तरों पर बताई जाती है – जमात‑ए‑इस्लामी, ICS और अन्य इस्लामी संगठनों के शीर्ष नेतृत्व से संपर्क और “कॉर्डिनेशन”; सोशल‑मीडिया, डिजिटल प्रचार और भारत‑विरोधी नैरेटिव की थिंकटैंक‑स्तरीय इंजीनियरिंग; और कुछ सीमावर्ती और शहरी क्षेत्रों में धन, प्रशिक्षण और लॉजिस्टिक सपोर्ट के माध्यम से “प्रॉक्सी नेटवर्क” खड़ा करना।
सूचनाएँ यह भी हैं कि जमात नेतृत्व के प्रमुख लोग हाल के महीनों में पाकिस्तान उच्चायोग के साथ कई मीटिंगें कर चुके हैं, जो 1971 के बाद पहली बार इस स्तर का खुला राजनीतिक नज़दीकी संकेत देती हैं। यह वही समय है जब बांग्लादेश में भारत विरोधी नारे, भारतीय मिशनों के बाहर प्रदर्शन और सोशल मीडिया पर सुनियोजित प्रोपेगैंडा एक साथ उछाल लेते दिखे।
बाहरी एजेंसियाँ और ‘मैनेज्ड क्राइसिस’ की राजनीति
पाकिस्तान अकेला नहीं है। पिछले एक‑दो साल में बांग्लादेश के राजनीतिक संक्रमण पर नज़र रखने वाली वैश्विक और क्षेत्रीय एजेंसियों के अपने‑अपने हित रहे हैं, जिन्हें “रिजीम‑चेंज” और “इंडिया‑बैलेंसिंग” की व्यापक रणनीतियों के संदर्भ में समझा जा सकता है। चीन के लिए यह मौका ऐसे पड़ोसी को अपने आर्थिक‑रणनीतिक दायरे में और कसकर बाँधने का है, जो एक तरफ हिंद महासागर में प्रवेश‑द्वार है और दूसरी तरफ भारत के पूर्वी सीमांत पर दबाव बनाने की क्षमता रखता है।
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भारतीय सुरक्षा एजेंसियों का आकलन है कि बांग्लादेश को “लो‑इंटेंसिटी क्राइसिस ज़ोन” बनाकर रखना पाकिस्तान और चीन, दोनों के लिए उपयोगी हो सकता है, क्योंकि इससे भारत की राजनीतिक और सैन्य ऊर्जा का बड़ा हिस्सा पूर्वी सीमा और पूर्वोत्तर राज्यों की सुरक्षा में उलझा रहेगा। इसके साथ‑साथ बांग्लादेश के भीतर भारत‑विरोधी भावनाओं को हवा देकर न सिर्फ दिल्ली‑ढाका भरोसे को कमजोर किया जा सकता है, बल्कि दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग (SAARC/BBIN) के वापसी की किसी भी संभावना को रोका जा सकता है।
हिंदू‑ अल्पसंख्यक और मीडिया: आसान निशाने
ताज़ा हिंसा में दो प्रतीक विशेष रूप से निशाने पर रहे – मीडिया और अल्पसंख्यक। मीडिया हाउसों पर हमले यह संदेश देते हैं कि “कथानक” पर नियंत्रण की लड़ाई अब खुलेआम सड़कों पर लड़ी जा रही है; जो भी अख़बार या चैनल कट्टरपंथ की आलोचना करेगा, उसे “भारत‑समर्थक” या “इस्लाम‑विरोधी” करार देकर दंडित किया जाएगा।
अल्पसंख्यक समुदायों के लिए यह हिंसा एक और डरावनी परत जोड़ती है। पिछले एक‑दो साल में हिंदू, बौद्ध, ईसाई और अहमदिया समुदायों पर बड़ी संख्या में छोटे‑बड़े हमलों, मंदिरों में तोड़फोड़ और जबरन विस्थापन की घटनाएँ दर्ज की गई हैं, जिनका उद्देश्य सामाजिक‑मानसिक स्तर पर स्थायी असुरक्षा उत्पन्न करना है। इस स्थिति में अल्पसंख्यक परिवार या तो चुप्पी को ही सुरक्षा समझते हैं या फिर धीरे‑धीरे पलायन की ओर देखते हैं, जिससे बांग्लादेश की बहुलतावादी पहचान कमजोर होती जाती है।
थकान, ग़ुस्सा और विकल्पों की तलाश में फंसी आम जनता
फिर भी यह मान लेना गलत होगा कि पूरा बांग्लादेश ही कट्टरपंथ की ओर बढ़ चला है। ढाका, चिटगाँव और अन्य शहरों में बड़ी संख्या में छात्र, मध्यम वर्ग, पत्रकार और नागरिक समाज के कार्यकर्ता इस हिंसा की खुलकर निंदा कर रहे हैं; एडिटर्स’ काउंसिल, प्रेस क्लब, NOAB और अन्य संगठनों ने इसे लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला बताया है।
लेकिन इस प्रतिरोध के सामने सबसे बड़ी चुनौती जनता की “थकान” है। लगातार राजनीतिक संकट, अर्थव्यवस्था की मुश्किलें और बेरोज़गारी ने बड़ी आबादी को इस हद तक निराश कर दिया है कि वे “जो भी स्थिरता दे दे, वही ठीक है” वाली भावना की ओर झुकने लगे हैं। कट्टरपंथी ताकतें इसी थके हुए समाज में “कानून‑व्यवस्था” और “इस्लामी न्याय” का वादा करके जगह बना रही हैं, जबकि दूसरी तरफ लोकतांत्रिक ताकतें अब तक एक सम्मोहक, ठोस विकल्प सामने नहीं रख पा रही हैं।
भारत के लिए संदेश: सीमा के उस पार की आग
बांग्लादेश में हो रही यह उथल‑पुथल भारत के लिए केवल कूटनीतिक या मानवीय चिंता नहीं, बल्कि ठोस सुरक्षा चुनौती भी है। हिंसा के दौरान भारतीय उच्चायोग और दूतावास परिसरों के खिलाफ प्रदर्शन, anti‑India नारे और सोशल‑मीडिया ट्रोल अभियानों ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत को “दुश्मन” की तरह पेश करना इस नए नैरेटिव का अनिवार्य हिस्सा है।
यदि बांग्लादेश में जमात‑केंद्रित, पाकिस्तान‑समर्थित और सैन्य‑इंटेलिजेंस गठजोड़ की जड़ें और गहरी होती हैं, तो इसका सीधा असर असम, त्रिपुरा, मेघालय और पश्चिम बंगाल की सुरक्षा, सीमा‑पार तस्करी, कट्टरपंथी मॉड्यूलों और शरणार्थी संकट पर पड़ेगा। भारत के लिए यह समय है कि वह एक साथ दो काम करे – एक ओर जनता‑केंद्रित, विकास‑उन्मुख और सम्मानजनक कूटनीति के ज़रिए बांग्लादेशी समाज के भीतर अपने प्रति भरोसा मजबूत करे; और दूसरी ओर आईएसआई‑समर्थित नेटवर्क, ऑनलाइन प्रोपेगैंडा और सीमापार आतंकी‑अपराधी गठजोड़ के खिलाफ़ कड़ी इंटेलिजेंस और सुरक्षा रणनीति अपनाए।
चौराहे पर बांग्लादेश
आज बांग्लादेश जिस मोड़ पर खड़ा है, वहाँ से आगे दो ही रास्ते दिखते हैं। एक, कि सत्ता‑संरचना और कट्टरपंथ के बीच समझौता गहरा हो और देश एक ऐसे हाइब्रिड मॉडल की तरफ बढ़े, जहाँ चुनाव तो हों, पर असल एजेंडा जमात, आईएसआई और सैन्य‑इंटेलिजेंस गठजोड़ तय करे। दूसरा, कि बांग्लादेशी नागरिक समाज, छात्र आंदोलनों, मीडिया और प्रगतिशील राजनीतिक ताकतों का एक नया गठबंधन उभरे, जो 1971 की मुक्ति‑युद्ध की विरासत को फिर से केंद्र में रखकर कट्टरपंथी परियोजना को चुनौती दे।
ढाका की सड़कों पर बहता खून और जलते हुए अख़बार के दफ्तर आज सिर्फ एक देश की आंतरिक समस्या नहीं हैं, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया को यह चेतावनी दे रहे हैं कि अगर लोकतांत्रिक संस्थाएँ, नागरिक समाज और पड़ोसी देश समय रहते सकारात्मक हस्तक्षेप के रास्ते नहीं खोजते, तो कट्टरपंथ और बाहरी दखल मिलकर पूरे क्षेत्र को एक लंबे अस्थिर दौर में धकेल सकते हैं। सवाल यह नहीं कि बांग्लादेश बदलेगा या नहीं; सवाल यह है कि वह किस हाथ की पकड़ में बदलेगा – जनता की, या उन ताकतों की जो बंद कमरों और विदेशी दूतावासों की छाया में भविष्य लिख रही हैं।
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