प्रीति सिंह
गृहिणियों की आय की गणना उनके काम, श्रम और बलिदान के आधार पर होनी चाहिए। घर में किसी महिला के काम करने की अहमियत दफ्तर जाने वाले उसके पति की तुलना में किसी भी मायने में कम नहीं है।
यह टिप्पणी देश के शीर्ष अदालत की है। अदालत ने यह अहम फैसला साल 2014 में दिल्ली में हुई एक सड़क दुर्घटना में दंपती की मौत के मामले में दिया है।
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में दशकों से घर में काम करने वाली महिलाओं के लिए काल्पनिक आय सुनिश्चित करने की मांग की जा रही है। दरअसल हमारे समाज में गृहणियों के कामकाज की कोई गिनती नहीं होती, जबकि गृहणियां भी किसी कामकाजी महिला या पुरुष से कम काम नहीं करती।

शायद ही कोई गृहणी हो जिसे-सारा दिन तो घर पर ही रहती हो, न धूप में घूमना न ऑफिस के फाइलों में मगजमारी। फिर भी शिकायत। ऐसी बातें न सुनने को मिली हो। यह बात हर उस महिला को आए दिन सुनने को मिलती है जब वह पारिवारिक जिम्मेदारियों में कहीं चूक जाती है।
हमारे समाज में गृहणियों के काम को इतना कम करके आंका जाता है जैसे कि वो सारा दिन घर पर सोई रहती है या टीवी सीरियल देखकर टाइम पास करती है। जबकि सच तो यह है कि अगर आफिस ऑवर 8 से 10 घंटे हैं तो एक घरेलू महिला प्रतिदिन 16 घंटे कार्य करती हैं और मजे की बात है इसकी न कहीं कोई गिनती होती है न ही इसके बदले उसे पैसे मिलते हैं। ऊपर से वर्किंग महिलाओं को ज्यादा ऊंचा करके मापा जाता है घरेलू महिलाओं के मुकाबले।
आंकड़ों के मुताबिक महिलाएं औसतन एक दिन में 299 मिनट अवैतनिक तरीके से घरेलू कामों को करती हैं, जबकि पुरुष सिर्फ 97 मिनट करते हैं। इसी तरह से एक दिन में महिलाएं अपने घर के सदस्यों की अवैतनिक देखभाल में औसतन 134 मिनट खर्च करती हैं, जबकि इसमें पुरुष सिर्फ 76 मिनट निकालते हैं। देखा जाए तो गृहिणियों का योगदान धनार्जन करने वाले गृहस्वामियों से कम नहीं है, बावजूद इसके उनके काम को हम सभी हल्के में लेते हैं। उन्हें धन्यवाद कहना तो दूर अनेक अवसरों पर उनका अपमान भी होते देखा गया है।
इसके अलावा यह भी सोचने वाली बात है कि जहां घर बाहर कार्य करने वालों को सप्ताह में एक दिन की छुट्टी का कानूनी प्रावधान है वहीं, महिलाएं जो प्रतिदिन 16 घंटे काम करती हैं, उनके लिए एक दिन का भी अवकाश नहीं। यहां तक कि महिला दिवस के दिन और न ही मजदूर दिवस के दिन। कामकाजी लोगों की छुट्टी होती है तो वह आराम करते हैं और इसके उलट जब परिवार के बाकी सदस्य छुट्टी होने की वजह से घर पर होते हैं तो उन्हें ज्यादा काम करना पड़ता है।
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पहले की तुलना में देखे तो समाज की सोच में थोड़ा बदलाव आया है। लेकिन यह बदलाव पर्याप्त नहीं है। कुछ वर्षों पहले तक घर का कार्य करने वाली महिलाएं खुद को हाउसवाइफ बोलती थीं, आज संबोधन या स्वपरिचय में जरा बदलाव आया है। वो खुद को होममकेर, होम इंजीनियर या घर की सीईओ कहने लगी हैं। 2001 में हुई जनगणना में कहा गया था कि भारत में 36 करोड़ महिलाएं नान वर्कस हैं।
गृहणियों के कामकाज को गंभीरता से न लेने के कारण ही साल 2012 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने एक प्रस्ताव पारित किया था कि पति के वेतन का 10 से 20 फीसदी हिस्सा पत्नियों को दिया जाएगा ताकि वो आत्मनिर्भर हो सके। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का मानना है कि घर संभालने वाली करोड़ों भारतीय गृहणियों के श्रम को कम करके नहीं आंका जा सकता। हालांकि इस प्रस्ताव को अब तक कानूनी रूप नहीं दिया जा सका है, क्योंकि तुरंत इसका विरोध शुरू हो गया था।
मगर इतना तो सच है कि हम गृहणियों के काम को कम करके नहीं आंक सकते। अगर उनके कार्य को पैसे के हिसाब से आंका जाए तो आप सुनकर हैरत में पड़ जाएंगे कि इन कामों के लिए किसी को रखा जाए तो कितना पैसा खर्च करना पड़ सकता है आपको। एक होममेकर महिला , सफाईकर्मी, रसोईया, माली , केयर टेकर, बीमार पडऩे पर नर्स, इंटीरियर डिजाइनर, बच्चों के लिए टीचर आदि कई भूमिकाएं निभाती हैं।
ग्लोबल एन.जी.ओ हेल्थ ब्रिज की स्टडी रिपोर्ट के अनुसार यदि इन घरेलू कार्यों का मूल्य तय किया जाए तो भारतीय स्त्रियां वर्ष भर में यू.एस के 612.8 बिलियन डालर्स के बराबर काम करती हैं। इसमें से भी ग्रामीण महिलाएं शहरी महिलाओं के बनिस्पत ज्यादा कार्य करती हैं।
यही कारण है कि घरेलू महिलाओं के लिए मेहनताने की मांग समय-समय पर उठती रही है। कुछ सालों पहले केरल में नेशनल हाउसवाईव्स यूनियने ऐसी ही मांग की थी और यूक्रेन एवं वेनेजुएला जैसे देशों में भी ऐसे संगठन बने हैं।
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फिलहाल सही मायनों में होममेकर्स के कार्य का सही आकलन सुप्रीम कोर्ट ने किया है। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने दुर्घटना मुआवजा संबंधी मामलों में गृहिणियों की काल्पनिक आय को लेकर एक अहम फैसला दिया है।
दिल्ली के एक पति शिक्षक और पत्नी गृहणी की दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। ऐसे मामले में मोटर व्हीकल एक्सीडेंट ट्रिब्यूनल यह देखता है कि मरने वाला कितना कमाता था, उसके बाद परिवार की वेदना, इलाज का खर्च, संतान आदि का आकलन करने के बाद मुआवजा तय किया जाता है। अब इस तरह से देखा जाए तो एक घरेलू महिला का जीवन अमूल्य है और उसका मूल्यांकन हो ही नहीं सकता। गृहणी के 24 घंटे का काम, मेहनत, अपनापन का आर्थिक मूल्यांकन किया ही नहीं जा सकता।
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सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में बहुत ही सटीक कहा है कि गृहणी (हाउस वाइफ) का काम बेहद अहम है और इसे कमतर करके नहीं आंकना चाहिए। इस मामले की सुनवाई कर रही बेंच ने दंपति की दो बेटियों और एक अभिभावक की अपील पर फैसला सुनाया और दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय में सुधार कर दिया। शीर्ष अदालत ने पूर्व में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले में सुधार करते हुए मुआवजा राशि को 22 लाख से बढ़ाकर 33.20 लाख कर दिया है।
अब बीमा कंपनी मई, 2014 से नौ फीसद सालाना ब्याज के साथ इस राशि का भुगतान करेगी। वास्तव में घर में काम करने वाली महिलाओं के लिए काल्पनिक आय सुनिश्चित करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि इससे इतने सारे कामों को करने वाली महिलाओं के योगदान को पहचान मिलेगी, जो या तो अपनी इच्छा से या सामाजिक/सांस्कृतिक मानकों के कारण ये काम करती हैं।
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