Tuesday - 26 August 2025 - 12:55 PM

शिक्षा का भविष्य: चुनौतियाँ, विरोधाभास और समाधान

अशोक कुमार

शिक्षा की अवधारणा केवल तथ्यों और आँकड़ों के संचय तक सीमित नहीं है; यह एक उद्देश्यपूर्ण, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया है जो समाज के लक्ष्यों को आकार देती है और उसे आगे बढ़ाती है।

इसका वास्तविक अर्थ मनुष्य को मानव बनाना और उसके जीवन को प्रगतिशील, सांस्कृतिक और सभ्य बनाना है।

यह व्यक्ति और समाज, दोनों के आंतरिक विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिक्षा एक आजीवन चलने वाली त्रि-ध्रुवीय प्रक्रिया है, जिसमें अध्यापक, छात्र और सामाजिक वातावरण (पाठ्यक्रम सहित) तीन मुख्य स्तंभ हैं।

अच्छी शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान की मात्रा बढ़ाना नहीं, बल्कि छात्रों को एक स्वस्थ और समृद्ध संसार के लिए तैयार करना, उनकी सोच को विकसित करना और दूसरों की बातों को गहराई से समझने में सक्षम बनाना है।

ऐतिहासिक रूप से, भारतीय शिक्षा का लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे जीवन के सर्वांगीण लक्ष्यों को प्राप्त करना रहा है।

आधुनिक समय में भी, कोठारी आयोग जैसे विभिन्न आयोगों ने राष्ट्र के आर्थिक उत्पादन में वृद्धि, सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता, जनतंत्र को सुदृढ़ बनाने और नैतिक मूल्यों के विकास जैसे व्यापक लक्ष्यों को निर्धारित किया है।

हालाँकि, एक गहरा विरोधाभास यह है कि जहाँ हम सैद्धांतिक रूप से सर्वांगीण विकास की बात करते हैं, वहीं व्यवहार में हमारी शिक्षा प्रणाली का मुख्य ध्यान केवल रोजगार-केंद्रित हो गया है। यह असंतुलन लक्ष्य-विहीन शिक्षा को जन्म देता है, जो अंततः शिक्षित बेरोजगारी की समस्या को और गहरा करता है।

वर्तमान संरचना और नीतिगत ढाँचा

स्वतंत्रता के बाद से, भारतीय शिक्षा प्रणाली 10+2+3 के पारंपरिक पैटर्न पर संरचित रही है। हाल ही में, राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 ने 5+3+3+4 की नई पाठ्यचर्या प्रणाली अपनाकर इस ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन का प्रस्ताव रखा है। इस नीति का उद्देश्य 2030 तक शिक्षा का सार्वभौमिकरण करना और कक्षा 5 तक मातृभाषा में अध्यापन पर विशेष जोर देना है। यह एक प्रगतिशील कदम है, लेकिन इसके कार्यान्वयन की चुनौतियाँ बनी हुई हैं। वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (ASER) के आँकड़े लगातार छात्रों में बुनियादी पढ़ने और अंकगणितीय कौशल की कमी को दर्शाते हैं, जो नीतियों और उनके जमीनी क्रियान्वयन के बीच की खाई को उजागर करता है।

सार्वजनिक शिक्षा: वित्तपोषण और संस्थागत बाधाएँ

यह एक आम धारणा है कि सरकार सार्वजनिक शिक्षा पर पर्याप्त खर्च नहीं करती है, और आँकड़े इस धारणा को बल देते हैं। यद्यपि शिक्षा मंत्रालय के बजटीय आवंटन में निरपेक्ष रूप से वृद्धि हुई है (2025-26 के लिए अनुमानित ₹1,28,650 करोड़), लेकिन यह वृद्धि भ्रामक हो सकती है।

पिछले चार वर्षों से, शिक्षा पर कुल सार्वजनिक व्यय (केंद्र + राज्य) सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के लगभग 2.9% पर स्थिर बना हुआ है, जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा अनुशंसित 6% के लक्ष्य से बहुत कम है। यह दर्शाता है कि शिक्षा पर खर्च केवल समग्र आर्थिक विस्तार के साथ तालमेल बिठा रहा है, इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता के रूप में कोई विशेष बढ़ावा नहीं मिला है।

इस समस्या को राज्यों का खराब राजकोषीय स्वास्थ्य और गहरा करता है, क्योंकि शिक्षा पर कुल व्यय का लगभग 76% राज्यों द्वारा वहन किया जाता है। अपर्याप्त वित्तपोषण का सीधा प्रभाव संस्थागत गुणवत्ता पर पड़ता है:
शिक्षकों की कमी: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के अनुसार, केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों के 35%, एसोसिएट प्रोफेसरों के 46% और सहायक प्रोफेसरों के 26% पद रिक्त हैं।

अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा: UDISE (2019-20) के आँकड़ों के अनुसार, केवल 12% स्कूलों में इंटरनेट और 30% में कंप्यूटर उपलब्ध हैं। 23% स्कूलों में बिजली तक नहीं है।गुणवत्ता में गिरावट: अपर्याप्त संसाधन, शिक्षकों की कमी और पुरानी शिक्षण विधियों के कारण सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में गिरावट आई है, जिससे वे निजी संस्थानों के सामने अप्रतिस्पर्धी हो गए हैं।

निजी क्षेत्र का उदय और संबंधित चिंताएँ

सार्वजनिक शिक्षा की इन्हीं कमियों के कारण पिछले दो दशकों में निजी शिक्षा का तेजी से विकास हुआ है। 2021-22 में, कुल स्कूलों में से 32% से अधिक निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूल थे।

सरकार ने भी सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) और शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 के माध्यम से निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया है, जिसके तहत निजी स्कूलों को आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के छात्रों के लिए 25% सीटें आरक्षित करनी होती हैं, जिसकी प्रतिपूर्ति सरकार करती है।

हालांकि निजीकरण ने विकल्प प्रदान किए हैं, लेकिन इसने गंभीर सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को भी जन्म दिया है। निजी स्कूलों की भारी फीस उन्हें अधिकांश आबादी की पहुँच से बाहर कर देती है, जिससे एक समानांतर शिक्षा प्रणाली का निर्माण होता है जहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा केवल उन्हीं को मिलती है जो इसका खर्च उठा सकते हैं।

 गुणवत्ता सुधार के लिए रणनीतिक रोडमैप

फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली, जिसे दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, एक शक्तिशाली सबक प्रदान करती है। वहाँ की सफलता का आधार निजीकरण नहीं, बल्कि एक मजबूत, समान और पूरी तरह से सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित प्रणाली है।

फिनलैंड की सफलता के स्तंभ हैं:शिक्षक का सम्मान और स्वायत्तता: वहाँ शिक्षक बनना एक अत्यंत प्रतिष्ठित पेशा है और शिक्षकों को अपनी शिक्षण विधियों को चुनने की पूरी स्वतंत्रता होती है। समग्र मूल्यांकन: ग्रेडिंग और उच्च-दाँव वाली परीक्षाओं के बजाय सीखने की प्रक्रिया और मौखिक मूल्यांकन पर जोर दिया जाता है।

समान अवसर: सभी छात्रों को, उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना, समान गुणवत्ता वाली शिक्षा मिलती है।

इसके विपरीत, भारत में यह धारणा है कि केवल निजीकरण ही गुणवत्ता ला सकता है। हालाँकि, राजस्थान की आदर्श योजना इस धारणा को चुनौती देती है। इस सरकारी पहल के माध्यम से, प्रणालीगत सुधारों, बुनियादी ढाँचे के उन्नयन और शिक्षक रिक्तियों को भरकर सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में इतना सुधार किया गया कि नामांकन में लगभग 700,000 छात्रों की वृद्धि हुई, जिनमें से कई छात्र निजी स्कूलों से वापस आए। यह साबित करता है कि रणनीतिक निवेश और मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति से सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

नीतिगत और संस्थागत सुधारों की आवश्यकता

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की ओर बढ़ने के लिए एक बहु-आयामी रणनीति की आवश्यकता है: वित्तीय प्रतिबद्धता बढ़ाना: सरकार को शिक्षा पर अपना बजटीय व्यय GDP के अनुशंसित 6% तक बढ़ाने का लक्ष्य रखना चाहिए। यह केवल आवंटन बढ़ाने के बारे में नहीं है, बल्कि धन के प्रभावी उपयोग को सुनिश्चित करने के बारे में भी है।

शिक्षक सशक्तिकरण: शिक्षकों के रिक्त पदों को तत्काल भरना, उन्हें नियमित और आकर्षक वेतन देना, और उन्हें विश्व स्तरीय सेवा-पूर्व और सेवाकालीन प्रशिक्षण प्रदान करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

शिक्षकों को फिनलैंड की तरह अधिक स्वायत्तता और सम्मान देना होगा।NEP 2020 का प्रभावी कार्यान्वयन: रटने की संस्कृति को समाप्त करने और महत्वपूर्ण सोच, रचनात्मकता और समस्या-समाधान जैसे 21वीं सदी के कौशल को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है।

मूल्यांकन में सुधार: पारंपरिक परीक्षाओं से हटकर, मूल्यांकन को PARAKH (समग्र विकास के लिए प्रदर्शन का आकलन, समीक्षा और ज्ञान का विश्लेषण) जैसे राष्ट्रीय मूल्यांकन केंद्र के माध्यम से नियमित, रचनात्मक और दक्षता-आधारित बनाया जाना चाहिए।निजी क्षेत्र का सख्त विनियमन: निजी स्कूलों में वित्तीय पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत नियामक ढाँचा स्थापित करना आवश्यक है ताकि वे शिक्षा के मिशन से विचलित न हों।

(लेखक पूर्व कुलपति, कानपुर एवं गोरखपुर विश्वविद्यालय; पूर्व विभागाध्यक्ष, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर)

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