प्रेमेन्द्र श्रीवास्तव
‘पिताजी जब पाकिस्तान से सब कुछ छोड़कर शरणार्थी बनकर लखनऊ आये थे तो उनकी उम्र सिर्फ आठ साल थी। दो बड़े भाई और बहनें भी साथ में आयी थीं। सरवाइवल की जंग थी।
छोटे मोटे काम धंधे करके किसी तरह गुजर बसर हो रही थी। चार साल के भीतर बाबाजी गुजर गये। लगभग सभी बड़े नौकरी के कारण लखनऊ छोड़कर चले गये।
पिताजी और दादीजी रह गये। पैसा था नहीं काम धंधा शुरू करने के लिए। ठेला लगाया। अंडे बेंचे। फिर तत्कालीन मुख्यमंत्री सीबी गुप्ताजी ने स्टेशन के सामने गुरुनानक मार्केट बनवायी शरणार्थियों के वास्ते।
यहीं एक छोटी सी दुुकान मेरे पिताश्री सुभाष चंद्र सेठी को भी मिली। पैसे भी नहीं थे दुकान का दाम चुकाने के लिए लेकिन किसी तरह व्यवस्था कर होटल खोल दिया। उनके सामने दो दुकानों को लेकर एक सरदार जी ने भी होटल खोल दिया।
उनके पास ग्राहकों को बैठाने के लिए जगह भी थी, उनके कम्पटीशन में पिताजी का होटल कोई खास नहीं चल पा रहा था। मेरी दो बहनें और एक भाई कुल मिलाकर पूरे परिवार का खर्चा निकालना मुश्किल हो रहा था।
दुकान के अगल बगल लोग रेवड़ियां बनाते और बेचते थे। जब मैं पैदा हुआ तो पिताजी ने अपना काम बदलकर मेरे नाम से रेवड़ियां बनाने और बेंचने का काम शुरू किया। यह धंधा चल निकला।
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पिताजी ने छोटा सा कारखाना डाला उसमें लखनऊ की मशहूर गुलाब रेवड़ियां बनती थीं। चीनी और गुड़ की रेवड़ियों की काफी डिमांड रहती। कारखाने और दुकान मिलाकर सत्तह लोग लगते थे।
पांच बोरी छह बोरी चीनी की रेवड़ियां रोज बनतीं। यूपी के लगभग सभी शहरों में हमारी रेवड़ियां जाने लगीं। पिताजी को इस काम में बहुत मजा आने लगा। उनकी गुड़ की रेवड़ी दूर दूर तक मशहूर थीं।
वो देशी घी के साथ कोई सीक्रेट मसाला उसमें मिलाया करते थे। उन्होंने ही सबसे पहली बार गुलाब के साथ साथ केवड़े की सुगंध वाली रेवड़ियां इंट्रोड्यूज कीं।” बताते हैं ‘नवीन रेवड़ी शॉप” के सुभाष चंद्र सेठी के सुपुत्र नवीन चंद्र सेठी।
‘पिताजी मुझे पता नहीं क्यों इस काम से दूर रखते थे। वह रेवड़ी के निर्माण से लेकर बिक्री तक सारा काम खुद सम्भालते थे। उन्हें इस धंधे की काफी नॉलेज थी। वह हवा का रुख देखकर बता दे देते थे कि आज चाशनी बैठ जाएगी या नहीं।
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होता यह था कि अगर पुरवाइया हवा में आपने चाशनी बनाना शुरू किया और मसाले डाले तभी हवा का रुख बदलकर पछुआ हो गया तो चाशनी बैठ जाएगी। दरअसल रेवड़ी का निर्माण एक जटिल व मेहनत वाला काम है।
पहले चाशनी तैयार कर उसमें आरारोट डालकर ठंडा किया जाता है। उसके बाद उसे आधा पौना घंटा खींचा जाता है। फिर उसको चवन्नी अठन्नी और रुपया साइज की रेवड़ी बनाने के लिए वैसे ही मोटे पतले डंडे बनाकर उसे गट्टे की तरह काटा जाता है।
फिर उसे कढ़ाई में गर्म कर उसमें हिला हिलाकर तिल मिलाया जाता है। उसके बाद उसमें केवड़ा, गुलाब जल व लौंग-इलायची का पाउडर मिलाया जाता है।
अब चिप्स रेवड़ी का चलन बढ़ा है जिसे मशीनों से तैयार किया जाता है। गुड़ और चीनी के अलावा कुछ सालों से खोये की रेवड़ी भी बनने लगी है। लेकिन इसका निर्माण केवल जाड़े भर ही होता है।”
‘इसे गरीबों की मिठाई भी कहते हैं। कहते हैं कि इसका निर्माण अवध के नवाबों के दौर में हुआ था। तब एक कहावत प्रचलित थी कि लखनऊ की खुटिया और बाराबंकी की बिटिया का कोई जवाब नहीं। दोनों ही मिठास से भरी होती हैं और दोनों ही जीवन महका देती हैं।
तिल में विटामिन बी ट्वेल्व, ओमेगा-6 व ओमेगा-3 एसिड होता है। कितना भी तैलीय भोजन क्यों ने करें इसका दिल और दिमाग पर ज्यादा एफेक्ट नहीं होता बल्कि काफी फायदेमंद होता है।
जाड़े में जब हम आलसी हो जाते हैं तो हमारे बुजुर्गों ने हमें गुड़ और तिल से बनी रेवड़ी दी ताकि हमारे शरीर की सिहरन दूर हो जाए और ऊर्जा कायम रहे।
पहले जब कोई गांव से लखनऊ आता था तो लोग उससे आग्रहपूर्वक कहते थेे कि लखनऊ की रेवड़ी जरूर लाना। अब हर दूसरा आदमी डायबटीज का मरीज है।
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नयी जनरेशन इसे छूना भी पसंद नहीं करती। जहां तक पुराने कद्रदानों की बात है उनके दांत गिर चुके हैं। अब तो बस दीपावली, गंगा स्नान व मजारों पर चढ़ने वाली सिन्नी (प्रसाद) के चलते इसका अस्तित्व बचा हुआ है।
या यूं कह लीजिए मजारों में सोये पीर फकीर ही इसे जिन्दा रखे हुए हैं। यहां पर सत्तह कारखाने हैं जहां रेवड़ियों का निर्माण होता है। राजा बाजार और मोलवीगंज में भी इसके कारखाने हैं।
ट्रेनों में बिकने वाली रेवड़ी कानपुर में बनती हैं। सही मायनों में दो नम्बर की होती हैं। वह वजनदार बनायी जाती हैं और वही ज्यादा बिकती है। यूं तो मेरठ में भी रेवड़ी बनाने के कई कारखाने हैं।”
‘जैसा कि मैं बता चुका हूं कि मुझे इस काम से दूर रखा गया। जब कभी दुकान जाता तो दुकानपर बैठा आदमी मुझे ही ग्राहक समझकर रेवड़ियां दिखाने लग जाता। 2013 में पिताजी के साथ छोड़ जाने के बाद मैंने अपना एडवरटीजमेंट का बिजनेस बंद कर इसको अपना लिया।
एक किस्सा याद आता है कि एक बार एक दुकानदार आया और उसने चवन्नी साइज की रेवड़ियों के पचास पैकेट मांगे। मेरे पास जो रेवड़ी थी वो थोड़ी पुरानी थी और ढीली और चिपचिपी भी होे रही थी।
मैंने कहा कि आप इसे न लें बल्कि मैं कारखाने से मंगवा देता हूं आप वो ले जाएं। लेकिन वह तो पता नहीं क्या समझा, उन्हें ही लेने को अड़ गया। मैंने कई बार कहा कि यह उतनी अच्छी नहीं है लेकिन वह टस से मस न हुआ। अंत में मुझे हंसते हुए कहना पड़ा कि भाई ये तो मैंने तेरे लिए ही बनवाई थीं लेकिन तू ही देर से आया।”.
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