जुबिली स्पेशल डेस्क
देश के बड़े समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि “सड़कें अगर खामोश रहेंगी तो संसद आवारा हो जाएगी।” उनका आशय साफ था कि लोकतंत्र तभी ज़िंदा रहता है जब जनता जागरूक और सक्रिय हो।
लेकिन संसद के हालात देखकर लगता है कि लोहिया की बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। मॉनसून सत्र का हिसाब बताता है कि लोकसभा में 120 घंटे काम होना था, लेकिन हुआ सिर्फ 37 घंटे।
यानी 83 घंटे बेकार गए। इसका मतलब है कि 31% ही काम हुआ और 69% समय बेकार की राजनीति और हंगामे में बर्बाद हो गया। यही हाल राज्यसभा का भी रहा, 120 घंटे के काम के बदले सिर्फ 47 घंटे काम हुआ। 73 घंटे हंगामे की भेंट चढ़े।
इसका असर सीधे जनता पर पड़ा। बलिया जैसे इलाकों में जब अंधेरे में मोबाइल की टॉर्च की रोशनी में इलाज करना पड़ता है, तब आम लोग उम्मीद करते हैं कि संसद में बहस होगी, समाधान निकलेंगे। लेकिन हकीकत ये है कि जनता के 204 करोड़ रुपए सिर्फ हंगामे में बर्बाद कर दिए गए।
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- लोकसभा में 83 घंटे का नुकसान = ₹124.5 करोड़
- राज्यसभा में 73 घंटे का नुकसान = ₹80 करोड़
- कुल = ₹204.5 करोड़ की बर्बादी
और ये सब उस समय हुआ जब देश 79वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा था। लेकिन संसद 79 घंटे भी नहीं चल पाई। कई दिनों का हाल देखिए
- 24 जुलाई: लोकसभा सिर्फ 12 मिनट चली
- 1 अगस्त: फिर सिर्फ 12 मिनट
- 23 जुलाई: 18 मिनट
- 4 अगस्त: 24 मिनट
21 दिनों में सिर्फ 5 दिन लोकसभा 1 घंटे से ज़्यादा चली। सवाल उठता है कि जिन्हें जनता ने 5 साल की जिम्मेदारी देकर संसद भेजा, वे एक घंटे भी काम क्यों नहीं कर पाते?
पहली लोकसभा में 333 बिल पास हुए थे। तब बहस भी होती थी और काम भी। लेकिन आज राजनीति बढ़ गई, चर्चा घट गई। पिछली 17वीं लोकसभा में (2019–2024) सिर्फ 222 बिल पास हुए। इस बार कई अहम बिल तो पास हुए, लेकिन बिना बहस के।
विडंबना ये है कि संसद में बैठने वाले 93% सांसद करोड़पति हैं। हर महीने उन्हें जनता के पैसे से लगभग ₹2.5 लाख वेतन-भत्ता मिलता है। लेकिन जब काम की बात आती है तो सत्र का बड़ा हिस्सा हंगामे में निकल जाता है।