Wednesday - 17 January 2024 - 8:45 PM

पैराशूट प्रत्याशी ही क्षेत्र के विकास को लगाते हैं ग्रहण

डा. रवीन्द्र अरजरिया

लोकसभा चुनावों की बयार तेज होती जा रही है। प्रचार के हथकण्डे नये-नये रूपों में सामने आ रहे हैं। वक्तव्यों की धार तेज होने के साथ-साथ बेलगाम भी होने लगी है। राजनैतिक दलों के टिकिट वितरण में अपनाई जाने वाली नीतियों को आलोचनाओं के उपहार मिलने लगे हैं।

पैराशूट प्रत्याशियों को पार्टी के अनुशासनात्मक फरमान के सहारे कार्यकर्ताओं पर थोपा जा रहा है। क्षेत्र के रूठे नेताओं को लालीपाप पकड़ाकर बहलाया जा रहा है। ऐसे में कार्यकर्ता से नेता बनने की सारी संभावनायें अस्तित्वहीन होने लगीं हैं। चाटुकारिता के गुड लगे हंसिये से समर्पण की भावनाओं को किस्तों में कत्ल किया जा रहा है।

पार्टी के संगठनात्मक स्वरूप को मजबूत करने की दिशा में सर्वस्व समर्पित करने वालों को मीठा बोली से मृगमारीचिका दिखाई जा रही है। विरोध के स्वरों को दबाने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद के पुरातन शस्त्रों का प्रयोग होने लगा है। कहीं अतीत की करनी का दण्डात्मक भय, तो कहीं सुखद भविष्य की तस्वीर दिखी जा रही है।

कार की गति से कहीं अधिक तेजी से विचार चल रहे थे कि तभी फोन की घंटी बज उठी। फोन पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के राजनैतिक विश्लेषक राकेश शर्मा की आवाज सुनकर मन प्रसन्न हो उठा। उन्होंने बताया कि हमारी कार ने उन्हें अभी-अभी ओवर टेक किया है। वे भी अपनी कार से भोपाल जा रहे हैं। हमने ड्राइवर को सड़क के किनारे गाड़ी रोकने के लिए कहा।

कुछ ही समय में उनकी गाड़ी भी हमारे नजदीक आकर रूकी। आत्मीयता भरे अभिवादन के उपरान्त कुशलक्षेम पूछने-बताने की बारी आई। हमने उनसे अपनी कार में चलने तथा रास्ते में चर्चा करने का निवेदन किया। इस पर वे मुस्कुराये बिना न रह सके। हम दोनों एक साथ थे और उनकी कार हमें फोलो कर रही थी।

मन में चल रहे विचारों पर हमने उनकी राय जाननी चाही। स्वाधीन भारत के इतिहास का बखान करते हुए उन्होंने कहा कि पैराशूट प्रत्याशी ही क्षेत्र के विकास को लगाते है ग्रहण। सशक्त नेतृत्वविहीन क्षेत्रों को राजनैतिक दल अपनी चारागाह समझकर मनमाने उम्मीदवार थोप देते हैं। असंतोष के स्वरों को दमनकारी चक्रों से अस्तित्वहीन कर दिया जाता है।

कहीं मिठाई का लालच तो कहीं पिटाई का भय दिखाया जाता है। यहां मिठाई अर्थात लाभ और पिटाई अर्थात हानि के अर्थो में है। स्वजनों और परिजनों की उन्नति-अवनति भरी स्क्रिप्ट भी दिखाई जाती है। हमने उनकी बात को बीच में ही काटते हुए क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं पर इसके प्रभाव को रेखांकित करने की बात कही।

हताशा और निराशा के दावानल में फंसे कार्यकर्ता की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि निकट अतीत में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा की पराजय का कारण कांग्रेस की विजय कदापि नहीं कही जा सकती। मुख्यमंत्रियों के चेहरे और टिकिट वितरण में कार्यकर्ता की अनदेखी ही मुख्य कारण रहे हैं।

चहेतों को पद तक पहुंचाने की मंशा से पैराशूट प्रत्याशियों का जन्म होता है और फिर खोजे जाते हैं सशक्त नेतृत्वविहीन क्षेत्र। बाहरी प्रत्याशियों को न तो स्थानीय लोगों की मूलभूत समस्याओं की समझ होती है और न ही वे सही दिशा का चयन करने में सक्षम ही होते हैं। उनका जुडाव भी अनजाने क्षेत्र से केवल स्वार्थपूर्ति तक ही रहता है।

ऐसे में चंद चाटुकारों की फौज में घिरे नेता जी, विधायिका के अंग बनकर पार्टी नेतृत्व की नीतियों पर सहमति व्यक्त करने के साथ-साथ स्वयं के खजाने भरने में जुट जाते हैं। अगला चुनाव, नया क्षेत्र और नयी संभावनाओं से स्वयं के विकास की नयी नीतियां गढे लगते हैं।

ऐसे क्षेत्रों के मतदाता चुनाव के बाद स्वयं को ठगा सा महसूस करते हैं। वर्तमान चुनाव के परिणामी ऊंट की करवट जानने की गरज से हमने उन्हें टटोलना शुरू किया। अपनी मुस्कुराहट को रहस्यमयी गहराई प्रदान करते हुए उन्होंने कहा कि विधानसभा के चुनावों से हटकर लोकसभा के चुनावों को देखा जाना चाहिये। यह राष्ट्र के भविष्य को तय करेगा।

जागरूक मतदाता राष्ट्रवाद, सुरक्षा, आक्रमकता, विश्वसम्मान, विकास जैसे मुद्दों को देख रहा है जबकि अंधभक्तों की जमात, दल विशेष के साथ परम्परागत जुडाव की दुहाई पर ही कायम लग रही है। कुछ वर्गों में जातिगत कारक भी प्रभावी हो रहे हैं। लम्बे समय से मनमाना आचरण करने वालों की भीड भी अपनी-अपनी विशेषता के आधार राजनैतिक पार्टियों को ब्लैकमेल कर रही है।

देश के प्रमुख राजनैतिक दलों के घोषणा पत्रों ने स्वयं अपनी भावी नीतियों-रीतियों की व्याख्या कर दी है। उनमें उल्लेखित विभिन्न बिन्दुओं की विवेचना से देश के सुरक्षात्मक, विकासात्मक और प्रतिष्ठात्मक स्वरूप का खुलासा हो जाता है। दल-बदलू नेताओं पर हमारे द्वारा मांगी गई टिप्पणी पर उन्होंने कहा कि वर्तमान में राजनैतिक निष्ठा का दिखावा व्यक्तिगत अहम की पूर्ति के अनुपात पर निर्भर करता है।

पार्टियों के सिद्धान्त और आदर्श भी सत्ता हथियाने के हथकण्डे बनने लगे हैं। जब विरोधी विचारधाराओं के पोषक दल आपस में तालमेल कर सकते हैं तो फिर दलगत नीतियों को स्वीकारने वाले नेता भी स्वार्थपूर्ति हेतु यदि झंडा बदलकर, डंडा लेकर खडे हो जाते हैं, तो इस में आश्चर्य कैसा।

सिद्धान्त, आदर्श, कानून, मानवता जैसे शब्दों का अर्थ दूसरों को समझाने के लिए ही होता है, न कि स्वयं पर लागू करने के लिए। चर्चा चल ही रही थी कि हाई-वे पर एक साफ सुथरा ढावा नजर आया। उन्होंने चाय पीने की इच्छा व्यक्त की। हमने भी विचार-विमर्श को विराम दिया। ड्राइवर को ढ़ाबे पर गाड़ी लगाने के लिए कहा। पीछे चल रही शर्मा जी की कार भी ढ़ाबे की ओर मुड़ गई।

इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। हमें बहुत सारे पाठकों का निरंतर अनुरोध मिलता रहा है कि इस विश्लेषणात्मक स्तम्भ का समापन राष्ट्रवादी जयघोष से करें, तो आपका आदेश सिर माथे पर। जयहिंद।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये लेख उनका निजी विचार हैं)

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