Tuesday - 9 January 2024 - 12:54 PM

यूपी की राजनीति में आए हर मोड़ पर दिखाई दिए मुलायम ! 

विवेक अवस्थी 
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव का निधन हो गया है. वह 82 साल के थे. गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली. उनका निधन देश के लिए बड़ा नुकसान है और राजनीति के एक  युग का अंत भी है.
बीते 55 वर्षों से उत्तर प्रदेश की राजनीति में आए हर मोड पर मुलायम सिंह दिखाई दिए, फिर चाहे वो सत्ता में रहे हों या ना रहे हों. मुलायम सिंह के नजदीकी लोग हमारे सरीखे लिखने वाले पत्रकारों को पता है कि मुलायम सिंह 24 घंटे एक्टिव रहते थे. उन्हें देश की परवाह अस्पताल के बिस्तर पर भी होती थी. राजनीति के सक्रिय रहते हुए तो उनकी चिंताओं को सबने देखा सुना ही है.
मुलायम सिंह से हमारा को दोस्ताना नहीं था, लेकिन मैं उन खुशनसीब लोगों में हूँ जिन्हें पत्रकारिता की शुरुआत करते वक्त मुलायम सिंह की कवरेज करने का मौका मिला. उनकी तमाम चुनावी रैलियों, प्रेस कॉन्फ्रेंस और पार्टी के सम्मेलनों की रिपोर्ट लिखते हुए उन्हें जाना समझा. पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए वह हमेशा ही उपलब्ध रहने वाले देश और यूपी के एकमात्र नेता रहे हैं. जेड प्लस सुरक्षा घेरे में रहते हुए भी वह कार्यकर्ताओं से कभी दूर नहीं हुए. उनकी यह सर्वसुलभता ही उन्हें देश के अन्य नेताओं से अलग कर नेताजी का ख़िताब दिलाती है.
अपने 55 साल के लंबे राजनीतिक करियर में मुलायम सिंह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. यही नहीं वे सात बार सांसद रहे और आठ बार विधायकी का चुनाव जीता. 1967 में विधायक बनने वाले मुलायम ने फिर मुड़कर नहीं देखा. बीते 55 वर्षो में मुलायम सिंह ने कई सरकारें बनाई और बिगाड़ी. चौधरी चरण सिंह मुलायम सिंह को अपना राजनीतिक वारिस और अपने बेटे अजीत सिंह को अपना क़ानूनी वारिस कहा करते थे. बाद में परिस्थितियां कुछ ऐसे बनी कि यूपी के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में मुलायम सिंह ने अजीत को पछाड़ा.
इसके कुछ वर्षों बाद मंदिर आंदोलन में शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती को गिरफ्तार कराके मुलायम सिंह यादव रातों रात धर्मनिरपेक्षता के नए चैंपियन बन गए थे. मंदिर आंदोलन के दौरान उनकी “परिंदा पर नहीं मार सकेगा” की टिप्पणी आज भी लोग भूले नहीं है. खांटी राजनेता मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक ‘दांव-पेच’ उनके सहयोगियों और विरोधियों दोनों को हतप्रभ कर देते थे. कभी मुलायम के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखने वाले दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण रहे हैं.
कुश्ती के शौक़ीन मुलायम सिंह ने अपनी राजनीति की शुरुआत वर्ष 1967 में की थी. वरिष्ठ पत्रकार सुनीता ऐरन ने अपनी किताब ‘अखिलेश यादव: विंड्स ऑफ चेंज’ में लिखा है कि मुलायम ने अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत 1967 में एसएसपी के टिकट पर जसवंतनगर से मैदान में उतरने के साथ की, जो सीट उन्हें नाथू सिंह ने बतौर गिफ्ट दी थी और चुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने.
मुलायम सिंह के सहयोगी और सपा के संस्थापक सदस्य कुंवर रेवती रमण सिंह कहते हैं, ‘लोहिया, राज नारायण और फिर चरण सिंह के संगठनों ने कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोला और इन नेताओं के संरक्षण में ही मुलायम सिंह  बतौर राजनेता सियासत की सीढ़ियां चढ़े और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार की वजह साबित हुए. ऐसे मुलायम सिंह ने कांशीराम के साथ मिलाकर यूपी में नया इतिहास भी बनाया था. लेकिन बाद में कांशीराम और मुलायम सिंह की मेहनत से बनाया गया सपा-बसपा गठबंधन टूट गया. इसके टूटना हमने नजदीक से देखा है. कैसे कांशीराम अड़ गए और मुलायम सिंह नाराज हुए, यह हमने देखा.
यह 1993 की बात है. यूपी में पहली बार एसपी-बीएसपी की साझा सरकार बनी थी. वह भी अयोध्या कांड के बाद बीजेपी के ‘जो कहा-वह किया’ नारे को पार पाते हुए. सरकार बनने के कुछ ही समय बाद जिला पंचायत चुनावों की प्रक्रिया शुरू हुई तो दोनों पार्टियों के रिश्तों में कड़वाहट आनी शुरू हो गई. आग में घी का काम किया तारा देवी कांड ने. तारादेवी लखनऊ के ग्रामीण इलाके में बीएसपी की वर्कर थीं.
वह जिला पंचायत सदस्य का चुनाव लड़ रही थीं. उनका अपहरण हो गया. सरकार में बराबर के साझीदार होते हुए भी एक कार्यकर्ता का अपहरण हो जाना, बसपा बीएसपी के लिए शर्मिंदगी का विषय बन गया था.
इस मामले ने नाराज कांशीराम एक रात अचानक ही मुलायम सिंह यादव से बात करने के लिए दिल्ली से लखनऊ पहुंच गए. इसकी जानकारी होने पर मैं भी उनसे मिलने पहुंच गया. तो कांशीराम वह खासे गुस्से में दिखे. अपने रिश्तों की बुनियाद पर मैंने उनसे हक जताते पूछ लिया कि आगे क्या हो सकता है तो उनका जवाब था, कल सबेरे स्टेट गेस्ट हाउस आ जाओ/ तुम्हारे सामने मुलायम सिंह यादव से बात करूंगा।
अगले दिन जब गेस्ट हाउस पहुंचा तब मुलायम सिंह पहुंचे नहीं थे. करीब छह बजे मुलायम सिंह यादव जी तेज कदमों के साथ कांशीराम के कमरे में आए. कमरे में पत्रकारों को देख कर वह हैरान हुए. उनकी हैरानी को देख कांशीराम जी ने कहा कि हमें आपसे कुछ बात करनी है. इस पर मुलायम सिंह जी ने कहा कि बात इन लोगों के सामने नहीं हो सकती, अगर बात करनी है तो इन लोगों  को पहले कमरे से बाहर करिए. कांशीराम जी ने कहा आज जो भी बात होगी, इन लोगों के सामने ही होगी.
मुलायम सिंह यह कहते हुए कमरे से बाहर निकल गए कि सरकार रहे या जाए, मुझे कोई फिक्र नहीं. फिर कांशीराम जी की तरफ से भी तल्ख टिप्पणी हुई और कमरे में सन्नाटा पसर गया. कांशीराम जी ने हम लोगों से कहा कि 11 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस करूंगा, आज सरकार का आखिरी दिन होगा. 11 बजे जब प्रेस कॉन्फ्रेंस शुरू हुई तो नजारा एकदम उलट था.
कांशीराम ने साझा सरकार के पांच साल चलने का दावा भी यह कहते हुए कर दिया कि बहुजन समाज के लोगों की सरकार को वह अपमान सहकर भी चलाएंगे. कांशीराम जी ने यू टर्न क्यों लिया? यह अब रहस्य नहीं है. वास्तव में बसपा के विधायक समर्थन वापसी के पेपर पर दस्तखत करने को तैयार ही नहीं हुए क्योंकि मुलायम सिंह की सरकार ठीक कार्य कर रही थी. ऐसे में पार्टी पर टूट का खतरा देखकर कांशीराम ने अपनी रणनीति बदल दी. लेकिन इस घटना के बाद से सपा -बसपा के रिश्ते में दरार आ गई.
मुलायम सिंह के राजनीतिक सफर के ऐसे किस्से बहुत है. तमाम किताबें उन्हें लेकर लिखी गई है. यहीं नहीं मुलायम सिंह ये अभिन्न सहयोगी रहे बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, अमर सिंह, आजम खान के साथ उन्हें रिश्तों को लेकर यूपी की राजनीति में भूचाल उठता रहा है. भाजपा के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह जिनके साथ मुलायम सिंह का उनकी राजनीतिक अदावत चलती थी. उन कल्याण सिंह का संकट के समय मुलायम सिंह ने साथ दिया. मुलायम सिंह दोस्ती निभाने वाले नेता थे. हर राजनीतिक दल के मुखिया उनका सम्मान करते रहे है. देश की राजनीति में मुलायम सिंह ऐसा सुलभ नेता दूसरा कोई नहीं है. अब  उनका ना होना देश की राजनीति के लिए बड़ा नुकसान है.
Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com