Saturday - 6 January 2024 - 9:08 PM

मस्जिद, मदरसा और मुसलमान

फैज़ान मुसन्ना

इस्लाम में शिक्षा के दो मुख्य प्रतीक मस्जिद और मदरसा हैं । मगर दुर्भाग्य से  अब इनका नाम अशांत प्रतीको के तौर से जाना जाता है , हालांकि सच्चाई कुछ और है  । इस्लाम की शुरुआत  के दौर से ही और अभी भारत के आजाद होने तक मस्जिद और मदरसा शिक्षा  व दीक्षा के लिये सभी समुदायों के एकत्र होने का स्थान था । मगर आज हालात इतने खराब हो चुके हैं कि बहुत से गैर मुस्लिमों ने तो वहां जाना ही त्याग दिया है ।

इस्लाम के यह ऐसे दो प्रमुख केन्द्र थे जहां लोग बिना धार्मिक भेद भाव के शरण लेते थेे । कहा जाता है कि रामचरित मानस के लेखक तुलसीदास ने भी मस्जिद में ही शरण ली थी।

मगर अब लोग इन स्थानों को तलाश  करने के बजाये ,बचने लगे हैं । पाकिस्तान और भारत में अब मस्जिद में जाने से पूर्व लोग यह मालूम करना जरूरी समझते हैं कि अमूक मस्जिद किस मुस्लिम सम्प्रदाय  की है। रही सही कसर मदरसों ने पूरी कर दी मुसल्मानों के मध्य आपस में पनप रहे विचारधारात्मक नफरत के पेड को खाद, पानी और हवा दे कर । इन इस्लाम विरोधी कृत्यों के विरोध को ,आतंकवाद के समर्थक इस्लाम विरोधी कह कर नकार देते हैं।

मस्जिद शब्द की उत्पति अरबी भाषा के सज्दा शब्द से हुई है। खुदा के सामने सज्दा इस्लाम में इबादत का प्रमुख अंग है , इसलिए मुसल्मान मस्जिद में ही इबादत करते हैं। वहीं इस्लाम के उदभव के समय से ही मस्जिद ने मुसल्मानों के सामुदायिक केन्द्र का रूप ले लिया था।

मुसलमान यहीं एकत्र हो कर आपने सामुहिक निर्णय लिया करते थे। जब मदीना ने औपचारिक रूप से प्रथम इस्लामी राज्य का दर्जा प्राप्त कर लिया तब मस्जिद को समाज में और भी अधिक अहम भूमिका प्राप्त हो गयी थी।

औरत और मर्द दोनो ही मस्जिद में इबादत करते थे , और इस्लाम के आखरी रसूल के उपेदशों को सुनते थे। शहर में आये अजनबियों भले ही वो मुसल्मान ना हों , को भी मस्जिद में ही इस शर्त के साथ पनाह मिलती थी कि वो इसकी पवित्रता की शर्तों का उल्लघन नहीं करेगें। उस समय के बुद्धिजीवी भी मस्जिदों में लोगों से सर्म्पक करते थे । मुस्लिम समाज की समाजिक और धार्मिक जिन्दगी मस्जिदों के गिर्द ही घूमती थी ।

इस्लाम की शुरूआत में मदरसा  और मस्जिद साथ ही होते थे। मदरसों में शिक्षा की शुरूआत कुरआन , प्रारंभिक गणित और अरबी भाषा के ज्ञान के  साथ होती थी । इस्लामी मान्यता के अनुसार कुरआन एक आसमानी किताब है और अल्लाह ने इसे मुसल्मानो को तोहफे रूप में दिया है जाहिर है कि तोहफा अलमारी में सजाने नहीं बल्कि इस्तेमाल के लिए होता है और किताब का उपयोग पढने के लिए होता है।

इस्लाम में शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है खुद आखरी नबी ने मुसलमानों को बाध्यकारी आदेश दिया है कि वो ज्ञान अर्थात शिक्षा          हासिल  करें ।  मदरसों में उच्च शिक्षा अथवा बाद की ऊंची कक्षाओं में कुरआन के साथ साथ विज्ञान के तमाम विषय, गणित , सामाजिक विज्ञान ,समाजशास्त्र, भूगोल आदि तमाम महत्वपूर्ण विषयों का शिक्षा दी जाती थी ।

उस समय एक छात्र को मदरसे में कम से कम 16 वर्ष गुजारने पडते थे तब कही जाकर उसको समाज में अपनी बात कहने , बहस करने अथवा शिक्षक बनने की इजाजत मिलती थी । उस समय के मदरसों को आधुनिक विश्वविद्यालय जैसी हैसियत हासिल थी , इन्ही मदरसों से शिक्षा प्राप्त अरब जगत के बहुत से विश्वविख्यात वैज्ञानिक व विचारक दुनिया को मिले हैं।

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वर्तमान में इस्लाम के यह दोनो ही केंद्र वास्तु के एतबार से तो ठीक वैसे ही हैं जैसे की शुरूआत में थे मगर उनकी आत्मा कहीं ना कहीं मरती जा रही है। यदि एक संप्रदाय का व्यक्ति दूसरे फिरके के कब्जे वाली मस्जिद में नमाज पढ ले तो खून खराबे की नौबत आ जाती है ।

इस्लाम के इन दोनो प्रतीक चिन्हो की आत्मायें अब कूच कर चुकी हैं ।

इनके वास्तु में तो कोई परिर्वतन नहीं आया है मगर अब यहां से मौलवी अपने ही मुसल्मानो  के विभिन्न संप्रदायों में नफरत भडकाने का काम करता है । चुकि इन मौलवियो के पास आय का कोई दूसरा साधन नहीं होता इसलिए यह उन मदरसों और मस्जिदों की प्रबंध समितियों के कृपा पा़़त्र होते हैं । जबकि अधिकतर मस्जिदे वक्फ बोर्ड और मदरसे अपने प्रदेशों के मदरसा बोर्ड के अधीन होते हैं।

ये किससे छुपा है कि वक्फ बोर्ड और मदरसा बोर्ड राजनीति का अखाडा होते हैं। जिस राजनैतिक दल की सरकार होती है इन संस्थाओं पर उन्ही दलों के चुनाव ना जीत पाने वाले चाटुकार मुस्लिम पोस्टर छाप नेताओं का कब्जा होता है और ये अपने आकाओं के इशारे पर इन निरिह मौलवियों को रोजा इफतार पार्टी , राजनैतिक सम्मेलनों , मुस्लिम प्रतिनिधि के तौर अथवा मन की बात पहुचाने के लिए इस्तेमाल करते हैं

लखनऊ के एक विश्वविख्यात मदरसे के छात्रो ने एक बार मुझसे सर्म्पक किया और बताया कि उन्होने सरकारी स्कूलों में ऊर्दू टीचर पद के लिए आवेदन किया था तो विभाग ने उन्हे बताया कि उनका चयन इस कारण नहीं हो सकता क्योकि उन्होने जो डिग्री और अंक तालिका अपने प्राथना पत्र में दी है उसमें ऊर्दू विषय अकिंत नहीं है ।

मैने जब मदरसे से पूछा तो पता चला कि उनका शिक्षा का माध्यम तो ऊर्दू है मगर विषय नहीं है। मदरसे के छात्रों के भविष्य से खिलवाड को अब हर हाल में रोकना होगा। क्या अच्छा होता कि मदरसे के छात्रों को अपनी रोजी रोटी के लिए नमाज पढाने अथवा कुरआन पढाने पर निर्भर ना होकर किसी पेशवर तालीम  मे पांरगत होते और उसको अपनी आय का साधन बनाते । कम से कम दाढी और टोपी का राजनैतिककरण तो रूक जाता ।

मुसल्मानो को वोट बैंक कहकर उसकी आलोचना करने वाले यदि सचमुच गंभीर है तो उन्हे मदरसों को फिर से पैग्मबरे इस्लाम की कल्पन वाला मदरसा बनाना होगा ।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं )

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