Friday - 5 January 2024 - 6:40 PM

LAMP फेलो बनाम एक सांसद का लॉगइन, राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा कौन?

टीएमसी नेता महुआ मोइत्रा ने लोकसभा सदस्यता रद्द करने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है. कैश फॉर क्वेरी मामले में एथिक्स कमेटी की सिफारिश के बाद महुआ की संसद सदस्यता शुक्रवार को रद्द कर दी गई थी.

दरअसल लोकसभा में 8 नवंबर को वित्त और नैतिकता पर संसदीय समिति के सदस्‍य गिरधारी यादव ने यह कह कर एक दिलचस्‍प स्थिति पैदा कर दी कि वे अपने सवाल खुद अपलोड नहीं करते बल्कि उनके निजी सहायक करते हैं क्‍योंकि उन्‍हें कंप्‍यूटर चलाना नहीं आता। इस पर स्‍पीकार ओम बिड़ला को सदस्‍यों से कहना पड़ गया कि ‘’यह मानकों के खिलाफ है। मैं उन सांसदों के खिलाफ कार्रवाई कर सकता हूं जो अपने सवाल खुद नहीं बनाते।‘’

तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा के बारे में संसदीय आचार समिति की रिपोर्ट सदन में रखे जाने की इस समूची बहस में वह अहम सवाल किसी ने नहीं पूछा जो खुद महुआ ने इंडियन एक्‍सप्रेस से बातचीत के दौरान 10 नवंबर को पूछा था, ‘’LAMP का क्‍या?” सांसदों के लिए विधायी सहायक (LAMP) वह नुक्‍ता है जो महुआ मोइत्रा पर समूची बहस को ही तिल का ताड़ साबित करता है।

महुआ ने 10 नवंबर को इंडियन एक्‍सप्रेस को दिए एक इंटरव्‍यू में कहा था, ‘’कोई भी सांसद अपने सवाल खुद तैयार नहीं करता… या तो लैम्‍प करते हैं या फिर इनटर्न। आप क्‍या जानते हैं कि कौन सा कारोबारी समूह आपके इनटर्न या लैम्‍प के पास जाकर उसे सवाल उठाने को दे रहा है?”

महुआ के प्रकरण में लैम्‍प को समझना बहुत जरूरी है। लैम्‍प यानी लेजिस्‍लेटिव असिस्‍टेंट्स टु मेम्‍बर्स ऑफ पार्लियामेन्‍ट वे संसदीय सहायक होते हैं जो सांसदों को एक फेलोशिप के माध्‍यम से उपलब्‍ध कराए जाते हैं। लैम्‍प का सवाल उठाकर महुआ ने एक विसिलब्‍लोअर की भूमिका निभाई है। उनके कहने का आशय यह है कि जो काम सीधे नहीं किया जा सकता उसे लैम्‍प फेलो के माध्‍यम से अप्रत्‍यक्ष ढंग से किया जा सकता है। अगर वाकई सांसदों को संसदीय सहायकों की आवश्‍यकता है तो इसके लिए उन्‍हें कानूनी प्रावधान बनाना चाहिए, लेकिन ऐसी कोई भी व्‍यवस्‍था नहीं है बल्कि खतरनाक यह है कि लैम्‍प फेलोशिप को राज्‍येतर विदेशी और घरेलू ताकतें अनुदानित करती हैं। यह चलन अपने आप में अनैतिक है जिसका बचाव संभव नहीं है।

इस संबंध में संसद के पीठासीन अधिकारियों की चुप्‍पी बेहद खतरनाक है। स्‍पीकर ओम बिड़ला ने जब 8 नवंबर को सांसदों से अनुरोध किया कि वे अपने सवाल खुद अपलोड करें, तो ऐसा नहीं है कि उन्‍हें लैम्‍प फेलोशिप का पता नहीं था लेकिन उन्‍होंने इसका कोई जिक्र नहीं किया।

महुआ का उठाया सवाल दो समाचार रिपोर्टों की याद दिलाता है। एक द न्‍यू इंडियन एक्‍सप्रेस में 5 अगस्‍त, 2012 को छपा था: Foreign hand in Parliament cut और दूसरा 17 मार्च, 2014 को द इकनॉमिक टाइम्‍स में Foreign funds in legislative research body come under Home Ministry scrutiny शीर्षक से छपा था।

क्‍या यह कारोबारियों द्वारा लैम्‍प फेलो को विदेशी और घरेलू अनुदान देने के रास्‍ते भारत की संसदीय प्रक्रियाओं को प्रभावित करने की कोशिश नहीं दिखती? यह बात सामने आई है कि सांसदों के संसदीय कौशल को सुधारने में मदद करने के लिए रखे जाने वाले शोध सहायकों को अनुदानित करने में फोर्ड फाउंडेशन, वालमार्ट, ईबे जैसी ताकतें दिलचस्‍पी लेती रही हैं ताकि वे संसदीय प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकें।

फोर्ड फाउंडेशन को भारत में कथित रूप से कुछ अवधि के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था लेकिन अनजान कारणों से उस पर से बंदिश हटा ली गई। याद रखा जाना चाहिए कि इनफोसिस के सह-संस्‍थापक एनआर नारायण मूर्ति जैसे फोर्ड फाउंडेशन के न्‍यासियों ने कथित तौर पर फाउंडेशन को केंद्र सरकार से राहत दिलवाने में भूमिका निभाई थी जबकि इस मामले में जांच का आदेश खुद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिया था।

इस मामले में गृह मंत्रालय ने पीआरएस लेजिस्‍लेटिव रिसर्च नाम की दिल्‍ली स्थित स्‍वयंसेवी संस्‍था के विदेशी अनुदान पर बंदिश लगाई थी। लैम्‍प फेलोशिप का आयोजन पीआरएस ही करती है। पीआरएस ने फोर्ड फाउंडेशन और इंटरनेशन डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर ऑफ कनाडा (आइडीआरसी) से फंड के लिए आवेदन किया था। केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक वरिष्‍ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ‘’मंत्रालय ने इस संस्‍था के संचालन की गहन जांच की थी और उसकी अर्जी को ठुकरा दिया था।‘’

पीआरएस को 2005 में शुरू किया गया था। शुरुआत में दिल्‍ली स्थित संस्‍था सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) ने इसकी नींव रखी। सीपीआर का हिस्‍सा होने के नाते पीआरएस को फोर्ड फाउंडेशन और गूगल से फंडिंग प्राप्‍त हुई।

इस संस्‍था के विदेशी अनुदान पर संकट तब खड़ा हुआ जब इसने स्‍वतंत्र रूप से काम करना शुरू किया। मार्च 2011 में इसने कंपनी कानून की धारा 25 के अंतर्गत पंजीकरण करवाया और गृह मंत्रालय से एफसीआरए के तहत विदेशी अनुदान लेने की मंजूरी मांगी।

उस वक्‍त पीआरएस को अनुदान देने वालों की कतार लगी हुई थी और केवल मंजूरी की दरकार थी। संभावित दानदाताओं में ओमिडयार नेटवर्क था जिसने एक मिलियन डॉलर का वादा किया था। इसके अलावा फोर्ड फाउंडेशन से 550000 डॉलर और आइडीआरसी से 300000 डॉलर का वादा था।

आधिकारिक सूत्रों के हवाले ये यह बात रिपोर्ट की जा चुकी है कि ‘’पीआरएस की पहुंच विधेयकों के मसौदों तक उस समय भी होती है जब वे सार्वजनिक दायरे में रखे जाने को तैयार नहीं होते। पीआरएस न सिर्फ सांसदों को इन बिलों को तैयार करने में मदद करता है बल्कि संसद में पूछे जाने वाले सवालों पर शोध करने में भी मदद देता है। पीआरएस के लोग सांसदों को संसदीय बहसों की तैयारी भी करवाते हैं। कई सांसद उतने जानकार नहीं होते इसलिए जाने अनजाने उनका इस्‍तेमाल होने का खतरा रहता है।‘’

पीआरएस के पीछे जिनके पैसे की ताकत काम करती है, उनमें अरबपति अजय पिरामल, इंडिया वैल्‍यू फंड एडवाइजर्स, जमनालाल बजाज फाउंडेशन, महिंद्रा एंड महिंद्रा, पिरोजशा गोदरेज फाउंडेशन, रोहिणी निलेकणि और टाटा सन्‍स हैं।

समाचार रिपोर्टों से पता चलता है कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्‍मेदार केंद्रीय गृह मंत्रालय शोध सहायकों (लैम्‍प) को अनुदान देने के बहाने भारत की संसदीय प्रक्रियाओं को प्रभावित करने में इनकी भूमिका की जांच कर रहा था। यह भी सामने आया है कि मंत्रालय ने अनुराग ठाकुर, दुष्‍यन्‍त सिंह, बिजयन्‍त पंडा और सैकड़ों अन्‍य सांसदों को फोर्ड, वालमार्ट, ईबे अनुदानित लैम्‍प सहायकों की मदद लेने पर आपत्ति जताई थी।

करीब 300 सांसद पीआरएस लेजिस्‍लेटिव रिसर्च के विभिन्‍न कार्यक्रमों का हिस्‍सा अब भी हैं। एक तो लैम्‍प फेलो के माध्‍यम से पीआरएस सांसदों की शोध जरूरतों को पूरा कर रहा है, दूसरे उसका एक लेजिस्‍लेटर्स नॉलेज नेटवर्क है जो सांसदों को अपने से जोड़े रखता है।

अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने 21 जनवरी, 2010 को सिटिजंस युनाइटेड के केस में इस बात पर विचार किया था कि क्‍या उन निगमों पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है जो अपने पैसे का इस्‍तेमाल चुनावी खर्चे में करते हैं। अदालत ने 5-4 के बहुमत से फैसला दिया कि ऐसा कोई भी प्रतिबंध अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के अधिकार का उल्‍लंघन करेगा। ऐसा लगता है कि भारत में आया कंपनी कानून, 2013 और 2017 व 2018 में उसमें किए गए संशोधन जो राजनीतिक दलों और एनजीओ को कॉरपोरेट अनुदान का प्रावधान करते हैं, सीधे तौर पर विदेशी प्रभाव का परिणाम थे।

अगर हमें फोर्ड फाउंडेशन, वालमार्ट, ईबे, वर्ल्‍ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट जैसी ताकतों के पैसे से कोई परहेज नहीं है, तब तो न सिर्फ अमेरिकी अदालत का आदेश बल्कि भारत का कंपनी कानून भी हमें काफी उदार कदम मालूम देंगे जो नेताओं की अभिव्‍यक्ति की आजादी के अधिकार को असीमित फंडिंग की छूट देते हैं। खासकर, कंपनी कानून की धाराएं 135 और 182 धर्मार्थ संगठनों और राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट चंदे के माध्‍यम से कॉरपोरेट अपराधों को माफी देती हैं और विधेयकों के बाजारीकरण का रास्‍ता बनाती हैं।

यह मसला इसलिए बहुत अहम है क्‍योंकि बार-बार कुदरती संसाधनों, डेटा संसाधनों और विधायी संसाधनों के कॉरपोरेटीकरण और व्‍यावसायीकरण पर बहस के दौरान यह उभर कर आता है।

दूसरा मसला राजनीतिक है जो संसदीय आचार समिति से जुड़ा हुआ है। आम तौर पर संसद और संसद की जो समितियां हैं, उनसे यह अपेक्षा होती है कि वे ‘स्टेट’ की तरह व्यवहार नहीं करेंगी, लोगों के प्रतिनिधि की तरह व्यवहार करेंगी। महुआ मोइत्रा के प्रकरण में जो रवैया सामने आया है, उससे यह साफ पता चलता है कि संसद और संसदीय समिति ‘स्टेट’ की तरह व्यवहार कर रही है और वो भी अपने एक साथी सदस्य के प्रति!

संसद और संसदीय समिति अगर बिल्कुल कार्यपालिका की तरह ही व्यवहार करती है, तो वह खुद को अवैध बनाती है, नाजायज बनाती है। लोकतंत्र में शक्ति का जो बंटवारा है, उसमें कार्यपालिका पर चेक एंड बैलेंस के लिए संसद काम करती है, संसदीय समिति काम करती है। यहां तो यह दिख रहा है कि संसद और संसदीय समिति खुद ही उसी प्रकार से हूबहू कार्यपालिका वाला बर्ताव कर रही है। अगर विधायिका वैसे ही बर्ताव करे जैसे कार्यपालिका करती है, तो फिर नैतिक दृष्टि और संवैधानिक दृष्टि से उस पर प्रश्नचिह्न लग जाता है।

लोकसभा में दलीय व्हिप की तानाशाही द्वारा संसद सदस्या पर कार्रवाई उस लम्हे को चिह्नित करता है जिसे हम विधायिका का कार्यपालिकाकरण कह सकते हैं। यह पतन का क्षण है। प्राकृतिक न्याय के अधिकार और सिद्धांत के संदर्भ में कार्यपालिका की नैतिकता और सत्तारूढ़ दल के सांसदों के संदर्भ में यह पतन का क्षण इसलिए है क्‍योंकि सुप्रीम कोर्ट को यह बताना पड़ता है कि निजता का अधिकार चूंकि एक प्राकृतिक अधिकार है इसलिए वह मौलिक अधिकार है और उसे वैसे ही लागू किया जाए।

यह अधिकार मानवीय गरिमा से जुड़ा है। ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद सुधार हो जाता हो, ऐसा भी नहीं है लेकिन जब सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोगों के इसी प्राकृतिक न्याय के अधिकार का हनन होता है, तो वे सुप्रीम कोर्ट के उसी फैसले और उसी सिद्धांत की दुहाई देते हैं।

इस संदर्भ मे गौरतलब है कि संसद की एक समिति है पार्लियामेंट्री स्टैंडिग कमिटी ऑन सबॉर्निडेट लेजिस्लेशन। उस समिति की रिपोर्ट संसद की वेबसाइट पर उपलब्ध है। उस रिपोर्ट पर लिखा हुआ है ‘कॉन्फिडेंशियल’ और उसमें यह लिखा हुआ है कि संसद ने जो कानून बनाए हैं उन कानूनों के विपरीत जाकर नियमावलियां बनी हैं। संसद का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है?

अब सवाल यह उठता है कि प्रश्न पूछना बड़ी बात है या संसद के खिलाफ जाकर कार्यपालिका द्वारा नियमावली बनाना? संसद की मानहानि कार्यपालिका इससे अधिक क्या कर सकती है?

हम एक ऐसे क्षण में हैं जब लगातार भारत के संविधान का हनन हो रहा है और वह जारी है। इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि भारत की लोकसभा में 2019 से डिप्टी स्पीकर का चयन ही नहीं हुआ है। वह स्पीकर का डिप्टी नहीं होता है, वह एक अलग संवैधानिक सत्ता होती है। लोकसभा ने संविधान के इस प्रावधान को जला दिया है।संसद की एक और समिति संचार और सूचना पर है। महुआ मोइत्रा इस समिति की सदस्य हैं। इस समिति ने 2014 की अपनी रिपोर्ट में उद्घाटन किया था कि भारत के सभी मंत्रियों के, गणमान्यों के, सार्वजनिक संस्थानों के प्रमुखों वगैरह के मेल-फोन की निगरानी अमेरिका की सुरक्षा एजेंसियां कर रही हैं। इसका खुलासा एडवर्ड स्नोडन ने किया था।

यह प्रश्न जब जे सत्यनारायण से पूछा गया, जो उस समय संबंधित विभाग के मुख्य सचिव थे, कि क्या उन्होंने यह सवाल अमेरिका से पूछा कि भारत के प्रधानमंत्री, सभी जजों, फौज के बड़े अधिकारियों आदि के फोन और मेल वह क्यों देख रहा है, तो सचिव महोदय ने संसदीय समिति को जवाब दिया कि उन्होंने अमेरिका से सर्वोच्च स्तर पर पूछताछ की है। इसका मतलब अमेरिका के राष्ट्रपति से हुआ। जवाब यह था कि अमेरिकी संस्थाओं ने, अमेरिकी राष्ट्रपति ने जवाब दिया कि वे केवल मेटाडेटा इकट्ठा कर रहे हैं। उसके अलावा कुछ और अगर वह जुगाड़ेंगे तो उसको बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

मेटाडेटा का जो जिक्र आया है, वह नौ जजों की खंडपीठ के फैसले में एक बार बस आया है। इसका जिक्र आधार कार्ड वाले फैसले में दर्जनों बार आया है और मेटा डेटा अभी तक पारिभाषित भी नहीं है। भारत के प्रधानमंत्री तक का डेटा- आज के और भविष्य के- अमेरिका, फ्रांस और यूके की कंपनियों के पास है। यह सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध जानकारी है। इससे अधिक खतरनाक बात क्या होगी?

6 सितंबर 2023 को दिल्ली हाइकोर्ट का एक फैसला आया जिसमें उसने सूचना आयोग को कहा कि वह मेटाडेटा संबंधी विदेशी कंपनियों के साथ हुए संविदा की सारी सूचना उपलब्ध कराए, मगर उसे उपलब्ध नहीं करवाया गया है।

सभी भारतीयों का डेटा ऑनलाइन मौजूद है और वह क्लाउड पर है मगर राष्ट्रीय सुरक्षा के इस मामले में संसद मौन हैं। क्लाउड का मतलब क्या होता है? क्लाउड का मतलब होता है, दूसरे का कंप्यूटर और वह किसी और का कंप्यूटर मतलब अमेरिका का कंप्यूटर होता है। भारत सरकार को क्लाउड पर अपनी स्थिति साफ करनी चाहिए। चीन ने, रूस ने, यूरोप ने इस पर पक्ष लेकर अपने डेटा को महफूज किया है, लेकिन भारत सरकार 2010 से सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट डालकर कह रही है कि निजता का कानून ला रहे हैं, लेकिन अभी तक वह फाइनल नहीं हुआ है। जो कानून बना है, उसके नियम तक तय नहीं हुए हैं।

सरकार और संसद को इस पर काम करना चाहिए, न कि किसी संसद सदस्य को जबरन परेशान करना चाहिए। सच यह है कि महुआ मोइत्रा के मामले में राई का पहाड़ बनाया गया है

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