
बिहार विधानसभा चुनाव-2025 के परिणाम आने के चौबीस घंटे के भीतर दिल्ली से जो सबसे तेज़ और स्पष्ट संदेश लखनऊ पहुँचा, उसने उत्तर प्रदेश की सत्ता के भीतरी गलियारों में भूचाल-सा ला दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने सबसे पहले जिस व्यक्ति को व्यक्तिगत फोन किया, वह कोई केंद्रीय मंत्री नहीं, कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या थे। यह फोन महज़ बधाई का नहीं था; यह एक खुला राजनीतिक ऐलान था – “आप अभी भी हमारे सबसे बड़े सामाजिक अस्त्र हैं ।”
तीन साल पहले 2022 के विधानसभा चुनाव में अपनी सीट से हारने के बाद जिस शख्स को योगी कैबिनेट में उप मुक्यमंत्री के रूप में “सम्मानजनक कोने” में बिठा दिया गया था, उसी केशव प्रसाद मौर्या को आज भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व हिंदी पट्टी के सबसे बड़े गैर-यादव ओबीसी चेहरे के रूप में फिर से स्थापित कर रहा है। यह कोई संयोग नहीं है। यह भाजपा की उस दूरगामी रणनीति का हिस्सा है जिसमें व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ हमेशा सामाजिक समीकरणों के आगे नतमस्तक हो जाती हैं।
बिहार में भाजपा ने जिस कुशलता से अति-पिछड़ा कार्ड खेला, उसके केंद्र में केशव प्रसाद मौर्या ही थे। पार्टी ने उन्हें 87 रैलियाँ करवाईं – नीतीश कुमार से भी अधिक। नोनिया, कुशवाहा, मल्लाह, केवट, बिंद, राजभर, निषाद जैसे समुदायों के बीच मौर्या को “अपना बेटा” बताकर पेश किया गया। नतीजा सामने आया, भाजपा को बिहार में लगभग 9.5 प्रतिशत अतिरिक्त अति-पिछड़ा वोट मिला, जो निर्णायक सिद्ध हुआ। जब नीतीश कुमार की जदयू कुर्मी वोट पर ही सिमट कर रह गई, तब भाजपा ने गैर-यादव, गैर-कुर्मी अति-पिछड़ा वोट एक झटके में अपने खाते में डाल लिया। इस पूरे अभियान की कमान केशव प्रसाद मौर्या के हाँथ में थी ।
केंद्रीय नेतृत्व का बढ़ता भरोसा अब खुलकर सामने आ रहा है। तीन ठोस संकेत इसे प्रमाणित करते हैं। पहला, बिहार चुनाव के दौरान अमित शाह ने कई रणनीतिक बैठकों में औपचारिक प्रभारी भूपेंद्र यादव से ज्यादा मौर्या की राय को तरजीह दी। दूसरा, जीत के बाद सबसे पहली बधाई मौर्या को ही मिली और भाजपा मुख्यालय में जेपी नड्डा ने खुले मंच से कहा, “केशव जी के बिना यह जीत मुश्किल थी।” तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण – 2027 उत्तर प्रदेश चुनाव की तैयारी अभी से शुरू हो गई है और ओबीसी-दलित गठजोड़ को फिर से मजबूत करने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी मौर्या को सौंपी जा रही है। सूत्र बता रहे हैं कि जल्द ही उन्हें कोई नया महत्वपूर्ण काम सौंपा जा सकता है।
यहाँ ठहरकर एक पुराना दर्द भी याद करना ज़रूरी है। 2022 में अपनी सीट (सिराथू) हारने के बाद योगी आदित्यनाथ ने मौर्या को उपमुख्यमंत्री पद पर बनाए रखा, लेकिन विभाग बँटवारे में उन्हें सिर्फ ग्राम्य विकास, लोक निर्माण और मनोरंजन कर जैसे अपेक्षाकृत हल्के विभाग दिए गए। बड़े बजट वाले विभाग – गृह, वित्त, ऊर्जा, चिकित्सा – किसी और को मिल गए। 2024 लोकसभा चुनाव में भी उन्हें सिर्फ चुनिंदा सभाएँ ही करने दी गईं। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा था, “योगी जी को लगता था कि हार के बाद मौर्या का कद अपने आप कम हो गया।” लेकिन दिल्ली ने कभी यह भ्रम नहीं पाला। दिल्ली जानती है कि उत्तर प्रदेश में 54 प्रतिशत ओबीसी और 21 प्रतिशत दलित वोट के बिना सत्ता दोहराई नहीं जा सकती।

बिहार की जीत ने यह साबित कर दिया कि केशव प्रसाद मौर्या अभी भी भाजपा का सबसे बड़ा ओबीसी चेहरा हैं। केंद्रीय नेतृत्व ने लखनऊ को स्पष्ट संदेश दे दिया है – “योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं, लेकिन ओबीसी चेहरा केशव प्रसाद मौर्या ही रहेंगे।” यह संदेश सिर्फ शब्दों में नहीं, आने वाले दिनों के संगठनात्मक फेरबदल में भी दिखेगा।
यह स्थिति भाजपा की आंतरिक राजनीति के उस द्वंद्व को भी उजागर करती है जो 2017 से चला आ रहा है। एक तरफ ठाकुर मुख्यमंत्री हैं, दूसरी तरफ मौर्य (ओबीसी) उपमुख्यमंत्री। 2017 में दोनों के बीच संतुलन था। 2022 में योगी का कद बढ़ा तो मौर्या का कम हुआ। अब 2025-27 के बीच फिर से संतुलन बनता दिख रहा है – इस बार दिल्ली के दबाव में। यह कोई व्यक्तिगत जीत-हार नहीं है; यह सामाजिक गणित की जीत है।
राजनीतिक विश्लेषक इसे “मोदी-शाह की डबल इंजन रणनीति” कह रहे हैं। एक इंजन लखनऊ में हिंदुत्व और प्रशासनिक सख्ती चलाता है, दूसरा इंजन सामाजिक समीकरणों की बारीक सिलाई करता है। बिहार ने साबित कर दिया कि दूसरा इंजन अभी भी पूरी तरह फिट है ।
आने वाले दो साल निर्णायक होंगे। यदि 2027 में भाजपा फिर सत्ता में आती है तो केशव प्रसाद मौर्या को बड़ा इनाम मिलना तय है। यदि नहीं, तो भी उनका राष्ट्रीय कद कम नहीं होगा, क्योंकि बिहार, झारखंड, उत्तर-प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान सबमें ओबीसी समीकरण का एक ही चेहरा चाहिए और वह चेहरा अभी केशव प्रसाद मौर्या ही हैं।
लखनऊ में भले ही उन्हें कुछ साल “साइडलाइन” रखा गया हो, लेकिन दिल्ली ने उन्हें कभी नहीं भुलाया। बिहार ने सिर्फ एनडीए को जीत नहीं दिलाई, बल्कि केशव प्रसाद मौर्या को राष्ट्रीय क्षत्रप के रूप में पुनर्स्थापित कर दिया। अब देखना यह है कि 2027 में उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाबी फिर से उनके हाथ में आएगी या नहीं। लेकिन इतना तय है – हिंदी पट्टी की ओबीसी राजनीति में केशव प्रसाद मौर्या अब सबसे बड़ा नाम है ।
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