Thursday - 11 January 2024 - 7:02 AM

गांधी के आइने में आज की पत्रकारिता

केपी सिंह

गांधी जी का योगदान बहुआयामी और विराट रहा है। इसलिए एक बार में उन पर समग्र चर्चा संभव नही हो पाती। गांधी जी ने लोगों में स्वाधीनता की लौ उद्दीप्त करने के लिए पत्रकारिता को भी प्रमुखता से अवलंब बनाया था। लेकिन इस पर बहुत कम विमर्श हुआ है जबकि पत्रकारिता वर्तमान दौर में जिस घाट पर जा टिकी है उसके बीच गांधी जी के पत्रकारिता को लेकर दृष्टिकोण को समझना बहुत प्रासंगिक है।

गांधी जी जब लंदन में थे तभी उन्हें पत्र-पत्रिकाएं आकर्षित करने लगीं थीं। अन्नाहार को लेकर उनके लेख ब्रिटेन की मशहूर पत्रिका वेजीटेरियन में छपे थे।

उन्होंने ब्रिटेन के कई प्रमुख समाचार पत्रों में संपादक के नाम पत्र भी भेजे लेकिन तब वे राजनैतिक विषयों को स्पर्श नही करते थे। शाकाहार, अध्यात्म, रीति-रिवाज, संस्कृति और समाज जैसे विषयों पर वे अपनी सम्मति भेजते थे।

इसके बाद वे दक्षिण अफ्रीका पहुंचे। उम्र थी 23 वर्ष और पेशा वकालत। दक्षिण अफ्रीका में उन्हें प्रत्यक्ष तौर पर रंगभेद की जलालत का भुक्तभोगी होना पड़ा। जब अदालत के गोरे जज ने उन्हें पगड़ी उतार कर जिरह के लिए मजबूर कर दिया था। इसके खिलाफ उन्होंने डरबन के एक अखबार को पत्र लिखा जो ज्यों का त्यों प्रकाशित हो गया। इसका असर इतना जबर्दस्त था कि रातों-रात गांधी जी अफ्रीका में रह रहे भारतीयों के हीरो बन गये। द ओपिनियन जो कि दक्षिण अफ्रीका में भारतवंशियों द्वारा संचालित अखबार था उसकी बागडोर गांधी जी को सौंप दी गई। उन्होंने रंग भेद नीति के खिलाफ जनमत संगठित करने का मुख्य हथियार बनाकर बंदी की कगार पर जा पहुंचे इस अखबार को पुनर्जीवन दिया। शुरू में द ओपिनियन में कुछ विज्ञापन भी आ जाते थे लेकिन वे इसके खर्चे से काफी कम थे। इसलिए गांधी जी को अपनी कमाई से इसके घाटे की पूर्ति करनी पड़ती थी। इसके बावजूद गांधी जी ने एकाएक घोषणा कर दी कि वे ओपिनियन में अपने रहते विज्ञापन नही छापेगें तांकि पाठकों को उनके हित की और सामग्री दे सकें।

कलम की परमाणविक ऊर्जा से परिचित हो जाने के कारण भारत में आकर स्वाधीनता संग्राम में शामिल होते ही उन्होंने फिर अखबार निकाले-नवजीवन और यंग इंडिया। उन्हें दक्षिण अफ्रीका में भी सरकार विरोधी पत्रकारिता के कारण जेल जाना पड़ा था और भारत में भी। लेकिन इससे डरने की बजाय उन्होंने जेल में भी अपने अखबारों का संपादन जारी रखा। 1933 में जेल से छूटने के बाद उन्होंने हरिजन नाम से नया अखबार निकाला। उनकी अखबारी प्रस्तुति में एक बात सामान्य रही कि उन्होंने भारत में भी अपने किसी अखबार में विज्ञापन नही लिया। इसकी बजाय प्रसार शुल्क से ही उन्होंने खर्चे पूरे किये।

आज विज्ञापनों मोह की चरम परिणति हो चुकी है। ऐसे में मीडिया की भूमिका केवल सवारी की रह गई है जिस पर बैठकर कंपनियों के प्रोडक्ट ग्राहकों के घरों में घुसपैठ करते हैं। विज्ञापनों के लिए मीडिया अपनी गरिमा और अस्मिता के साथ समझौता करने में भी जलालत महसूस नही करती। अखबारों में पूरा कवर पेज विज्ञापन को सौंप दिया जाता है। विज्ञापन के लिए समाचार इतने संक्षिप्त कर दिये जाते हैं कि उनका कोई अर्थ नही रह जाता। इतना ही नही महत्वपूर्ण समाचार विज्ञापन आ जाने पर पूरी तरह हटा देने में भी संकोच नही किया जाता।

गांधी जी अपने अखबारों की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए बहुत श्रम करते थे, बौद्धिक भी और शारीरिक भी। वे पानी के जहाज पर यात्रा करते समय हों या ट्रेन के सफर में अखबर टाइम से निकले इसके लिए निरंतर लिखकर भेजते रहते थे तांकि मैटर कम न पड़े। उन्हें दोनों हाथों से लिखने की सिद्धि हासिल थी। इसलिए जब एक हाथ थक जाता था तो दूसरे हाथ से लिखना शुरू कर देते थे।

पत्रकारिता एक जुनून है और जब इस भावना से ओतप्रोत लोग पत्रकारिता में होगें तभी मीडिया देश और समाज के साथ न्याय कर पायेगी। आज रोजगार की तलाश में युवक अंतिम विकल्प के तौर पर जनसंचार की डिग्री, डिप्लोमा लेकर पत्रकार बन जाते हैं जिनके पास ऐसा कोई जज्बा न होना स्वाभाविक है। वे बेहतर वेतन और सुविधाएं जुटाने के लिए कुछ भी लिखने को हाजिर रहते हैं। मीडिया कारोबार को बढ़ाने के लिए वे किसी भी नैतिक लक्ष्मण रेखा को लांघने को तैयार हैं। क्योंकि जब उनसे मीडिया के मालिकों को अच्छा लाभ होगा तो उनके वेतन में भी बढ़ोत्तरी हो सकेगी। इन पत्रकारों की निगाह में प्रतिबद्धता की दुहाई देने वाली पत्रकारिता सिरफिरेपन के अलावा कुछ नही है।

गांधी जी राजनीति को एकांगी कर्म नही मानते थे। उन्हें लगता था कि सकारात्मक राजनीतिक उददेश्य समाज सुधार और लोगों के चारित्रिक, अध्यात्मिक उत्थान से अभिन्न रूप से जुडे हैं इसलिए औपनिवेशिक शासन के अन्याय के खिलाफ लिखने के साथ-साथ वे खादी, सत्याग्रह, छुआछूत आदि विषयों को लेकर पत्रकारिता के माध्यम से वैचारिक अभियान चलाते थे। आज पत्रकारिता सूचनाओं का व्यापार रह गई है।

विचारों की बजाय समाचारों को इस हद तक प्रमुखता दी जा रही है कि जनचेतना के निर्माण के माध्यम चाहे समाचार पत्र हों या टीवी न्यूज चैनल धीरे-धीरे मनोरंजन उद्योग की बदनाम पहचान में गर्क होते जा रहे हैं। ऐसी पत्रकारिता सघन तो हो सकती है लेकिन विश्वसनीय नही है।

अगर जरूरत भर की सूचनाएं ही देने का संकल्प मीडिया में निर्धारित हो जाये तो अखबारों के जिला संस्करण बंद करने पड़ेगें और 24 घंटे के न्यूज चैनल ज्यादा से ज्यादा हर घंटे 5 से 10 मिनट के बुलेटिन में सिमट जायेगें। यह ज्यादा श्रेयस्कर होगा इससे लोगों को बौद्धिक ऊर्जा बेवजह की खबरों को पढ़ने देखने में समय बर्बाद करने की बजाय इतिहास, मनोविज्ञान, अध्यात्म और समाज को जानने के बारे में खपाने का अवसर मिलेगा जिससे उनका ज्ञान और अनुभव समृद्ध होगा साथ में सकारात्मक रूप से प्रतिबद्ध समाज का निर्माण होगा। सोशल मीडिया पर अपनी धारणा के खिलाफ पोस्ट देखकर लोग पगलायेगें नहीं और गाली-गलौज कर लग जाने की बजाय तार्किक और तथ्यात्मक प्रतिवाद के जरिये समाज में आपसी संवाद को सार्थक करेगें जो कि लोकतंत्र के विकास की अपरिहार्यता है।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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