जुबिली स्पेशल डेस्क
बिहार में बच्चों और गर्भवती महिलाओं के खून में लेड की बढ़ी हुई मात्रा की हालिया रिपोर्ट चिंताजनक संकेत देती है। लेड एक न्यूरोटॉक्सिन है, जिसके लिए कोई भी सुरक्षित स्तर तय नहीं है।
बच्चों में इसके थोड़े से बढ़ने पर भी दिमाग पर स्थायी नुकसान हो सकता है। इसके प्रभाव से IQ कम होना, सीखने में कठिनाई, ध्यान में कमी और लगातार व्यवहार संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।

स्टडी का मुख्य निष्कर्ष
Scientific Reports में प्रकाशित अध्ययन गंगा के मैदानी इलाकों, खासकर बिहार में मां के दूध में यूरेनियम की मौजूदगी का पहला बड़ा आंकलन है।
यह वही क्षेत्र है, जहां पहले भी आर्सेनिक, लेड और पारा जैसे भारी धातुओं के खतरनाक स्तर पाए गए थे। शोध के अनुसार, बच्चों में 10 µg/dL से अधिक लेड स्तर मानसिक और कांगोनेटिव नुकसान का जोखिम कई गुना बढ़ा देता है।
गर्भवती महिलाओं में यह आसानी से प्लेसेंटा पार कर जाता है, जिससे गर्भपात, समय से पहले डिलीवरी, कम वजन वाले बच्चे और भ्रूण के दिमाग के विकास में गंभीर बाधाएं उत्पन्न हो सकती हैं।
केडी अस्पताल, अहमदाबाद के कंसल्टेंट फिजिशियन और नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ. जय पटेल के अनुसार, बच्चों के शरीर में लेड का बढ़ना बेहद खतरनाक है।
यह दिमाग के विकास को रोकता है, IQ और सीखने की क्षमता घटाता है और व्यवहार पर भी असर डालता है। इसके अलावा यह इम्यूनिटी और ग्रोथ को प्रभावित करता है।
गर्भावस्था में लेड आसानी से प्लेसेंटा पार कर जाता है और नवजात में जीवनभर चलने वाली विकास संबंधी समस्याओं का जोखिम बढ़ा देता है।
मां के दूध तक कैसे पहुंचता है
लेड और अन्य न्यूरोटॉक्सिन शरीर में कई रास्तों से प्रवेश करते हैं पानी, मिट्टी, खाना, बर्तन, मसाले या हवा के माध्यम से। ये धीरे-धीरे शरीर में जमा होकर खून में पहुंचते हैं और गर्भावस्था व स्तनपान के दौरान दूध तक पहुंच जाते हैं। टॉक्सिन ज्यादातर हड्डियों में जमा रहते हैं और गर्भावस्था के दौरान खून में रिलीज़ होते हैं।
नवजात के लिए यह समय दिमाग और शरीर के विकास का सबसे संवेदनशील दौर होता है, इसलिए सबसे ज्यादा खतरा इन्हीं दिनों में होता है।
Jubilee Post | जुबिली पोस्ट News & Information Portal
