Tuesday - 25 November 2025 - 4:41 PM

माडवी हिडमा: एक चेहरा, दो कथाएँ

डा. उत्कर्ष सिन्हा

माडवी हिडमा राज्य के लिए करोड़ों का इनामी, कई घातक हमलों का मास्टरमाइंड और सशस्त्र उग्रवाद का प्रतीक रहा है, जिसकी मौत को सुरक्षा एजेंसियाँ “निर्णायक सफलता” के तौर पर देख रही हैं। वहीं बस्तर बेल्ट के भीतर और बाहर, आदिवासी समाज और उससे जुड़े कुछ बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्सा उसे सिर्फ अपराधी नहीं, बल्कि राज्य और कॉर्पोरेट शोषण के खिलाफ खड़े “प्रतिकार के प्रतीक” के रूप में भी देखता रहा है।​

इसी द्वंद्व ने हिडमा की मौत को महज़ एक ऑपरेशन नहीं रहने दिया, बल्कि एक बड़े वैचारिक और नैतिक सवाल में बदल दिया है कि हिंसा और राज्य‑हिंसा की परिभाषा किसके हाथ में है।​

आदिवासी बुद्धिजीवियों की सहानुभूति क्यों?

हिडमा के लिए उठती सहानुभूति के पीछे दो स्तर दिखाई देते हैं – एक, आदिवासी अधिकार, जंगल‑जमीन और खनिज संसाधनों पर नियंत्रण के लिए दशकों से चल रहा संघर्ष, जिसमें राज्य अक्सर खनन, बड़े प्रोजेक्ट और सुरक्षा के नाम पर समुदायों के विस्थापन से जुड़ा दिखता है।​ दूसरा, पुलिस कार्रवाइयों में फर्जी मुठभेड़, बलपूर्वक गिरफ्तारियाँ, और न्यायिक तंत्र तक पहुँच की कमी जैसे अनुभव, जिन्होंने सरकार के प्रति गहरे अविश्वास को जन्म दिया है।​

जब ऐसे माहौल में हिडमा जैसा आदिवासी युवा संगठन की सेंट्रल कमिटी तक पहुँचता है और बंदूक के साथ “प्रतिरोध” की भाषा बोलता है, तो समाज का एक हिस्सा उसे गलत मानते हुए भी उसके चयन को “मजबूरी से जन्मी राजनीति” के रूप में देखता है, न कि सिर्फ आपराधिक प्रवृत्ति के रूप में।​

सिर्फ सुरक्षा अभियान से क्या होगा?

छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों ने बीते वर्षों में सुरक्षा अभियान तेज किए, विशेष बलों की तैनाती बढ़ाई और “ऑपरेशन कगार” जैसी रणनीतियों के ज़रिए नक्सल नेटवर्क को तोड़ने की कोशिश की है। इससे हमलों की संख्या और प्रभावित जिलों की भौगोलिक सीमा में कमी दिखाई देती है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे नक्सलवाद की विचारधारा और सामाजिक आधार भी खत्म हो रहा है या सिर्फ दब रहा है।​

सुरक्षा अभियान हिंसा को रोकने के लिए अनिवार्य हो सकते हैं, लेकिन जब तक जमीन अधिग्रहण, वनाधिकार, रोज़गार, भाषा‑संस्कृति और न्यायिक पहुँच जैसे मुद्दों पर ठोस और विश्वसनीय सुधार नहीं दिखते, तब तक बंदूकें शांत होने पर भी असंतोष जीवित रहता है और अगली पीढ़ी किसी नए “हिडमा” की तलाश कर लेती है।​

राज्य की नीतियाँ: दो राहें, दो जोखिम

हाल के वर्षों में छत्तीसगढ़ सहित कई सरकारों ने एक ओर कड़ी सैन्य कार्रवाई, तो दूसरी ओर आत्मसमर्पण‑पुनर्वास और संवाद की नीतियाँ भी अपनाई हैं।

“नक्सलवादी आत्मसमर्पण/पीड़ित राहत एवं पुनर्वास नीति‑2025” के तहत समर्पण करने वालों को आर्थिक सहायता, शिक्षा और रोज़गार के अवसर देने की घोषणा की गई है।​ और मुख्यमंत्री स्तर पर भी यह संदेश दिया जा रहा है कि नक्सल समस्या का समाधान केवल हथियारों से नहीं, बल्कि संवाद और विश्वास से संभव है।​

यह दोहरी राह अवसर भी है और जोखिम भी। यदि सुरक्षा अभियान विकास और अधिकार‑सुरक्षा के भरोसे के साथ संतुलित हों, तो हिंसा से बाहर निकलने का रास्ता बन सकता है; लेकिन अगर विकास‑संवाद सिर्फ बयानबाज़ी रह जाए और ज़मीन पर लोगों का अनुभव केवल “फौज और फाइलों” तक सीमित हो, तो सैन्य दबाव नई ज़मीन के बजाय सिर्फ नई खाई पैदा करेगा।​

नक्सलवाद की जड़ें: सिर्फ बंदूक की कहानी नहीं

अधिकांश नक्सल प्रभावित क्षेत्र आदिवासी बहुल, प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध लेकिन मानव विकास सूचकांकों में बेहद पिछड़े हैं। यहाँ​ शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, संचार और न्यायिक तंत्र की पहुँच कमजोर है, खनन, बांध और औद्योगिक परियोजनाएँ अक्सर बिना पर्याप्त पुनर्वास और सहमति के आगे बढ़ाई गई हैं, और ग्राम सभा, PESA तथा वनाधिकार कानून जैसे प्रावधानों का क्रियान्वयन अधूरा या चयनात्मक रहा है।​

ऐसे माहौल में नक्सल संगठन खुद को “रक्षक” और “न्याय दिलाने वाली शक्ति” के रूप में पेश करते हैं, जबकि राज्य उन्हें “आंतरिक सुरक्षा के सबसे बड़े खतरे” के रूप में देखता है। यही से यह टकराव सिर्फ बंदूक और वर्दी का नहीं, बल्कि वैधता और नैतिक अधिकार का संघर्ष बन जाता है।​

समाज की विभाजित प्रतिक्रिया से उभरती चिंता

हिडमा की मौत के बाद बस्तर के कई इलाकों में जश्न और राहत की खबरें हैं, तो दूसरी ओर कुछ जगहों पर शोक, सवाल और विरोध व्याप्त है, जो यह बताता है कि समाज भीतर से दो हिस्सों में बँटा हुआ है। दिल्ली तक आए प्रदर्शन, शैक्षणिक परिसरों में उठे नारे और सोशल मीडिया पर चली तीखी बहस यह संकेत दे रही है कि “नक्सलवाद बनाम राज्य” की बहस अब केवल जंगलों तक सीमित नहीं रही, बल्कि शहरी बौद्धिक वर्ग के भीतर भी वैचारिक संघर्ष का विषय है।​​

जब समाज का एक हिस्सा किसी हिंसक कमांडर के लिए भी न्यायिक जांच, सम्मानजनक अंतिम संस्कार और “फेक एनकाउंटर न हो” जैसे मानदंडों की माँग करता है, तो वह मूलतः राज्य से संविधानसम्मत और समान न्याय की उम्मीद ही व्यक्त कर रहा होता है – भले ही उसकी भाषा उत्तेजक या विवादित क्यों न लगे।​​

क्या बहस सही दिशा में जा सकती है?

हिडमा की मौत पर चल रही बहस दो खतरों से घिरी है – पहला, उसे पूरी तरह “सुरक्षा बनाम आतंक” के फ्रेम में सीमित कर देना, जहाँ आदिवासी असंतोष, विकास और अधिकारों का सवाल गायब हो जाए। दूसरा, हिडमा को बिना आलोचना या सवाल के “नायक” बना देना, जिससे हिंसा का नैतिकीकरण हो और पीड़ित सुरक्षा बलों, ग्रामीणों और आम नागरिकों के दर्द को नजरअंदाज़ कर दिया जाए।​

एक ज़िम्मेदार सार्वजनिक विमर्श को इन दोनों सिरों से बचते हुए यह स्वीकार करना होगा कि नक्सली हिंसा लोकतांत्रिक राजनीति का विकल्प नहीं हो सकती, लेकिन राज्य की हिंसा, दमन या अधिकार‑हड़प को भी “राष्ट्रीय सुरक्षा” की भाषा में छुपा देना उतना ही खतरनाक है।​

आगे की दिशा: विचारोत्तेजक लेकिन व्यावहारिक रास्ता

यदि यह बहस सचमुच नक्सलवाद के मूल को छूना चाहती है, तो कुछ बुनियादी सवालों पर ईमानदार राजनीतिक‑प्रशासनिक सहमति आवश्यक है: क्या आदिवासी क्षेत्रों में विकास की परिभाषा सिर्फ सड़क, खनन और निवेश से तय होगी या ग्रामसभा, वनाधिकार और स्थानीय स्वायत्तता को केंद्र में रखकर नए मॉडल गढ़े जाएँगे?  क्या पुलिस‑सुरक्षा कार्रवाइयों पर स्वतंत्र न्यायिक/सिविलियन निगरानी की ठोस व्यवस्था बनेगी, जिससे फर्जी मुठभेड़ों और मनमानी गिरफ्तारियों पर वास्तविक अंकुश लगे।​ क्या आत्मसमर्पण‑पुनर्वास नीति को केवल “सरेंडर काउंट” बढ़ाने के साधन की जगह सम्मानजनक पुनर्सामाजीकरण, शिक्षा और दीर्घकालिक रोज़गार से जोड़ा जाएगा? क्या स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, इंटरनेट और न्यायालय तक वास्तविक पहुँच सुनिश्चित कर, अगली पीढ़ी के लिए बंदूक की बजाय किताब, नौकरी और लोकतांत्रिक भागीदारी को आकर्षक विकल्प बनाया जाएगा।​

हिडमा की मौत पर उठी सहानुभूति और नाराजगी को महज़ “अर्बन नक्सल” या “एंटी‑नेशनल” कहकर खारिज कर देना आसान है, लेकिन इससे समस्या हल नहीं, और भी अदृश्य हो जाती है। कठिन रास्ता यह है कि राज्य अपने नागरिकों, खासकर आदिवासियों, से यह भरोसा दोबारा अर्जित करे कि न्याय, सुरक्षा और विकास – तीनों उसके लिए बराबर उपलब्ध हैं, चाहे वह बंदूक उठाए हो या नहीं।​​

यदि यह क्षण केवल एक “दुर्दांत नक्सली” के अंत की खबर बनकर रह गया, तो इतिहास इसे बस एक और मुठभेड़ के रूप में दर्ज करेगा; लेकिन अगर इसे बहस, आत्ममंथन और नीति‑सुधार की शुरुआत में बदला गया, तो शायद आने वाले समय में किसी नए हिडमा की ज़रूरत ही न बचे – न राज्य को, न जंगलों को और न उन युवाओं को, जो आज भी अपने भविष्य और अस्मिता के बीच फँसे खड़े हैं ।

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