डा. उत्कर्ष सिन्हा
भारत की चुनावी राजनीति एक खतरनाक मोड़ पर खड़ी दिख रही है, जहां मतदाता सूची की “सफाई” और SIR की कवायद को लेकर सत्ता और विपक्ष के बीच भरोसे का संकट गहराता जा रहा है। बिहार के हालिया चुनाव नतीजे इसी पृष्ठभूमि में पढ़े जाने चाहिए, जहां NDA की ऐतिहासिक जीत के साथ-साथ मताधिकार और लोकतांत्रिक वैधता पर गंभीर सवाल भी उठ खड़े हुए हैं।
SIR विवाद: ममता और अखिलेश की चेतावनी
बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को “वोटबंदी” बताते हुए आरोप लगाया कि यह अभ्यास वास्तविक मतदाताओं के नाम काटने और चुनावी मैदान को एकतरफा बनाने का औजार बन चुका है। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर वैध मतदाताओं के नाम बड़ी संख्या में सूचियों से हटे तो यह केंद्र सरकार और चुनाव आयोग, दोनों की वैधता को हिला देगा, और कहा कि जिन समुदायों पर “घुसपैठिया” का ठप्पा लगाया जा रहा है, उनके मताधिकार पर सीधा हमला हो रहा है।

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में चल रहे SIR को “साजिश” करार देते हुए दावा किया कि जहां-जहां समाजवादी पार्टी और INDIA गठबंधन मज़बूत हैं, वहां प्रति विधानसभा क्षेत्र 50,000 से अधिक मतों को काटने की तैयारी है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि चुनाव आयोग और सरकार मिलकर तीन करोड़ तक मतों को समाप्त करने की योजना पर काम कर रहे हैं, और यह सब 2024 में विपक्ष की बेहतर प्रदर्शन वाली सीटों पर केंद्रित है।
इन दोनों नेताओं की बातों में एक साझा धागा है—SIR को तकनीकी सुधार नहीं, बल्कि राजनीतिक इंजीनियरिंग के औजार के रूप में देखा जा रहा है।
राहुल गांधी के आरोप और “फर्जी वोट” का नैरेटिव
राहुल गांधी ने 2024 लोकसभा चुनाव के संदर्भ में आरोप लगाया कि कर्नाटक की महादेवपुरा जैसी सीटों पर एक लाख से अधिक “फर्जी मतदाता” जोड़े गए, जिनमें डुप्लिकेट नाम, अवैध पते और एक ही पते पर अस्वाभाविक रूप से बड़ी संख्या में मतदाता शामिल हैं। उनके मुताबिक, 10–15 साल के मशीन-पठनीय मतदाता डेटा और CCTV फुटेज से यह साबित किया जा सकता है कि मतदाता सूची के साथ संगठित छेड़छाड़ हुई, जिसे उन्होंने “100% सबूत” वाली चुनावी धोखाधड़ी कहा।
चुनाव आयोग ने इन आरोपों को “गलत और निराधार” बताते हुए खारिज किया, जबकि भाजपा ने इसे पराजित विपक्ष की “साजिश कथा” कहा; लेकिन यह भी तथ्य है कि हाल के सर्वेक्षणों में चुनाव आयोग पर जनता का भरोसा पहले की तुलना में तेज़ी से गिरा है।
इस तरह एक तरफ “फर्जी वोट जोड़ने” वाली कहानी है, तो दूसरी तरफ SIR के ज़रिये “असली वोट काटने” के आरोप हैं—दोनों मिलकर चुनावी व्यवस्था को संदेह के घेरे में खड़ा करते हैं।
क्या भाजपा अब वोट घटा कर चुनाव लड़ रही है?
कुछ राजनितिक विश्लेषकों का कहना है कि SIR के बहाने बड़े पैमाने पर नाम कटने की आशंकाओं ने यह धारणा मज़बूत की कि सत्ता पक्ष ने “बूथ कैप्चर” की पुरानी तकनीक की जगह “रोल कैप्चर” की नई तकनीक अपनाई है—यानि नतीजे आने से पहले ही प्रतिद्वंद्वी मत को सूची से बाहर कर दो। लेखों और रिपोर्टों में बिहार, कर्नाटक, हरियाणा, अलंद जैसी घटनाओं का उल्लेख है, जहां या तो मतदाता संख्या अनुमानित वयस्क आबादी से कम पाई गई, या फिर गलत फोटो और पते के कारण वास्तविक मतदाता मतदान से वंचित हुए।
भाजपा और चुनाव आयोग इस पूरे विमर्श को सिरे से नकारते हैं और इसे “डुप्लिकेट, मृत और प्रवासी नामों की वैज्ञानिक सफाई” बताते हैं। लेकिन जब SIR मुख्यतः उन राज्यों और क्षेत्रों में तेज़ी से लागू होता दिखता है जहां विपक्ष ने हाल के चुनावों में बढ़त दिखाई थी, तब राजनीतिक संदेह केवल “भावनात्मक प्रतिक्रिया” नहीं रह जाता, बल्कि सत्ता-संरचना की रणनीति पर गंभीर प्रश्न बन जाता है।
इस परिस्थिति में यह निष्कर्ष सीधे तौर पर नहीं निकाला जा सकता कि भाजपा आधिकारिक रूप से “वोट घटा कर” चुनाव जीतने की रणनीति पर काम कर रही है; परंतु SIR के समय, दायरे और तरीके ने यह भरोसा ज़रूर तोड़ दिया है कि मतदाता सूची एक तटस्थ, तकनीकी दस्तावेज़ भर है।
बिहार 2025: नतीजे, आँकड़े और सियासी संकेत
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में NDA ने 243 में से 202 सीटें जीत कर एक तरह की राजनीतिक सुनामी ला दी, जबकि महागठबंधन महज़ 35 सीटों तक सिमट गया। वोट शेयर में भी NDA लगभग 46–47% तक पहुंचा, जबकि महागठबंधन करीब 38% के आसपास ठहरा, यानी सीटों का अंतर वोट प्रतिशत से कहीं अधिक असमान दिखा।
भाजपा इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, जबकि नीतीश कुमार ने दसवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर “दीर्घकालिक सत्ता स्थायित्व” का अद्भुत उदाहरण पेश किया; दूसरी ओर तेजस्वी यादव के नेतृत्व में RJD 2010 के बाद की अपनी एक और सबसे खराब स्थिति का सामना कर रही है।
यह परिणाम केवल स्थानीय नेतृत्व या जातीय समीकरणों की कहानी नहीं, बल्कि उस “वोटर इकोसिस्टम” की अभिव्यक्ति भी है जिसमें राज्य कल्याण योजनाओं, “मोदी गारंटी” और चुनावी मशीनरी का संयोजन विपक्ष की बिखरी विश्वसनीयता पर भारी पड़ गया।
बिहार के संदर्भ में SIR की छाया
बिहार में SIR को लेकर पहले ही सुप्रीम कोर्ट में सार्वजनिक हित याचिका दायर हुई, जिसमें आरोप है कि इस अभ्यास से मताधिकार के सार्वभौमिक सिद्धांत का उल्लंघन हुआ और लाखों वैध मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं। BBC जैसी रिपोर्टों में यह दर्ज हुआ कि ड्राफ्ट मतदाता सूची में गलत फोटो, मिसमैच और संदिग्ध प्रविष्टियाँ बड़ी संख्या में पाई गईं, जिनसे मतदाता भ्रम और बहिष्करण दोनों बढ़ा।
विपक्षी नेताओं—ममता बनर्जी और अखिलेश यादव—ने स्पष्ट रूप से कहा कि बिहार का जनादेश SIR से प्रभावित हुआ और यही “गेम” अब अन्य राज्यों में दोहराया जा रहा है; इसी थीसिस पर वे “बिहार मॉडल” को एक चेतावनी के रूप में पेश कर रहे हैं कि यदि सामाजिक रूप से जागरूक समाजों ने समय रहते मतदाता सूची पर निगरानी नहीं रखी, तो सत्ता परिवर्तन की संभावना गणित से पहले ही खत्म कर दी जाएगी।
बिहार के नतीजे इसलिए भी चिंताजनक हैं कि बहुत से इलाकों में सत्ता-विरोधी माहौल महसूस होने के बावजूद परिणामों ने एकतरफ़ा तस्वीर दिखाई, जिससे “लोकप्रिय इच्छा” और “घोषित परिणाम” के बीच दूरी की बहस तेज़ हुई।
लोकतंत्र, मताधिकार और आगे की राह
सुप्रीम कोर्ट ने SIR पर सुनवाई के दौरान यह तो माना कि चुनाव आयोग को मतदाता सूची संशोधन का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि स्थानीय परिस्थितियों, पारदर्शिता और समयबद्ध, न्यायसंगत प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। अदालती बहसें यह संकेत देती हैं कि अब मतदाता सूची भी अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तरह कठोर न्यायिक समीक्षा के घेरे में आएगी, जो लोकतंत्र के लिए सकारात्मक कदम है—बशर्ते फैसले समय पर आएं।
दूसरी ओर, सिविल सोसाइटी, चुनावी सुधार समूहों और स्वतंत्र मीडिया की रिपोर्टें यह दिखाती हैं कि SIR जैसे औजार दोधारी तलवार हैं—वे या तो लोकतंत्र की सफाई कर सकते हैं, या लोकतंत्र के ही कत्ल का औज़ार बन सकते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि सत्ता और संस्थाएं कितनी जवाबदेह हैं।
आज भारत की चुनावी राजनीति ऐसे मोड़ पर है जहां “कितने लोग वोट डालते हैं” से ज़्यादा महत्वपूर्ण सवाल हो गया है—“कितने लोग वोट डाल ही नहीं पाते।” बिहार 2025 के नतीजों और SIR के इर्द-गिर्द उठते सवाल मिलकर चेतावनी देते हैं कि अगर मतदाता सूची की राजनीति को अनदेखा किया गया, तो अगली लड़ाई सिर्फ सरकार बदलने की नहीं, बल्कि मत देने के अधिकार को बचाने की होगी।
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