जुबिली स्पेशल डेस्क
जब भारत के उत्तर और पश्चिम में दीपावली की रात घर-घर में महालक्ष्मी के स्वागत के लिए दीप जलते हैं, उसी रात पूर्वी भारत की भूमि पर एक और दिव्यता उतरती है , मां महाकाली की उपासना। यह वही क्षण होता है जब अमावस्या की घोर रात्रि “महानिशा” बन जाती है, और देवी काली का आवाहन किया जाता है।
अमावस्या की देवी-अंधकार से प्रकाश तक की साधना
पूर्वी भारत में माना जाता है कि दिवाली की रात सिर्फ लक्ष्मी पूजा का नहीं, बल्कि महानिशा पूजा का समय है। इस घोर रात्रि में देवी महाकाली की आराधना की जाती है – वह देवी जो भय, अज्ञान और अहंकार के विनाश की प्रतीक हैं।काली का रौद्र रूप हिंसा नहीं, बल्कि मुक्ति का प्रतीक है-यह बताता है कि हर अंधकार के भीतर एक जागृति छिपी होती है।

लक्ष्मी और काली- एक ही शक्ति के दो स्वरूप
कहा जाता है कि महालक्ष्मी, महाकाली की ही सात्विक शक्ति हैं। जो शक्ति भय और अंधकार को समाप्त करती है, वही जीवन में ऐश्वर्य और प्रकाश का वरदान देती है। यही कारण है कि बंगाल, बिहार, असम, ओडिशा और त्रिपुरा जैसे राज्यों में दीपावली की रात मां काली की पूजा की जाती है, लक्ष्मी का स्वागत दीपों से, और काली का आवाहन साधना से।
महानिशा पूजा-जब साधक जगता है, संसार सोता है
तंत्र शास्त्रों के अनुसार, महानिशा काल वह समय है जब संसार विश्राम में होता है, और साधक अपने भीतर की शक्तियों से संवाद करता है। इसी निशीथ काल में देवी काली की आराधना होती है।

पूरे बंगाल में इस रात लाल फूलों, लाल वस्त्रों और दीपों से सजे पंडालों में देवी काली की मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं। गुड़हल के फूल, नारियल, चावल, मिठाई और प्रतीकात्मक कद्दू बलि अर्पित की जाती है।
रात्रिभर श्यामा संगीत, मंत्रजप, ढाक की धुनें और भक्ति का संगीत वातावरण को आध्यात्मिक बना देता है।
पूजा से उत्सव तक काली पूजा का सांस्कृतिक रूप
काली पूजा आज पूर्वी भारत की लोकसंस्कृति का सबसे जीवंत पर्व बन चुकी है। कोलकाता, नैहाटी, तामलुक, रानीगंज, सिलीगुड़ी और भागलपुर जैसे शहरों में यह सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सांस्कृतिक उत्सव बन गया है, जहाँ कला, संगीत, नृत्य और भक्ति एक साथ झिलमिलाते हैं।
महिलाएं लाल साड़ियों में सिंदूर खेलती हैं, पुरुष ढाक बजाते हुए आरती में लीन रहते हैं , यह सब मिलकर भय और भक्ति का अद्भुत संगम रचते हैं।
दर्शन जो दीपावली को पूर्ण बनाता है
कहा जाता है, जब श्रीराम के अयोध्या लौटने पर दीप जलाए गए, उसी रात बंगाल के साधक मां काली की पूजा में लीन थे। एक ही रात में दो उपासनाएं-लक्ष्मी की और काली की- भारत की संस्कृति के दो पहलू हैं:
एक पक्ष जो प्रकाश और समृद्धि की ओर बढ़ता है, और दूसरा जो अंधकार से मुक्ति की साधना करता है।
संदेश: हर अंधकार में छिपा है नया सवेरा
काली पूजा हमें यह सिखाती है कि दीपावली सिर्फ बाहरी दीपों का नहीं, बल्कि आत्मा के दीपों का पर्व है।
जब हम अपने भीतर के भय, क्रोध और अहंकार का वध करते हैं, तभी सच्ची रोशनी जन्म लेती है।
मां काली की यही शिक्षा है “हर विनाश एक नए आरंभ की भूमि है, और हर अमावस्या के भीतर एक दीपावली प्रतीक्षा कर रही है।”