जुबिली न्यूज डेस्क
जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने बड़ा कदम उठाते हुए 25 पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया है। इनमें बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति रॉय और संवैधानिक विशेषज्ञ एजी नूरानी की चर्चित किताबें भी शामिल हैं। राज्य के गृह विभाग की ओर से जारी आदेश में इन पुस्तकों को जब्त करने के भी निर्देश दिए गए हैं।
सरकारी आदेश में कहा गया है कि कुछ साहित्य जम्मू-कश्मीर में झूठे विमर्श और अलगाववाद को बढ़ावा दे रहा है और इससे युवाओं के आतंकवाद और हिंसा की ओर आकर्षित होने की संभावना बढ़ रही है।
इन प्रमुख लेखकों की किताबों पर लगा प्रतिबंध:
लेखक | प्रतिबंधित पुस्तक का नाम |
---|---|
ए.जी. नूरानी | The Kashmir Dispute: 1947–2012 |
अरुंधति रॉय | Azadi (Penguin India द्वारा प्रकाशित) |
विक्टोरिया स्कोफील्ड | Kashmir in Conflict – India, Pakistan and the Unending War |
सुमंत्रा बोस | Contested Lands, Kashmir at the Crossroads |
क्रिस्टोफर स्नेडेन | (नाम स्पष्ट नहीं) – कश्मीर पर केंद्रित किताबें |
पिओटर बाल्सेरोविज और एग्निएस्का कुस्ज़ेवस्का | Law and Conflict Resolution |
सरकार ने क्या कहा?
गृह विभाग की ओर से जारी बयान में कहा गया:“झूठे विमर्श और अलगाववादी साहित्य का व्यवस्थित प्रसार युवाओं को गुमराह करने, आतंकवाद का महिमामंडन करने और हिंसा भड़काने में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। यह साहित्य ऐतिहासिक या राजनीतिक टिप्पणियों के रूप में अंदर ही अंदर प्रसारित होता है, जिससे अस्थिरता को बढ़ावा मिलता है।”
आदेश के मुताबिक, जांच और खुफिया सूचनाओं के आधार पर यह स्पष्ट हुआ है कि यह साहित्य न केवल भ्रामक है, बल्कि सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा भी बन चुका है।
क्या है असर?
इन किताबों पर प्रतिबंध और जब्ती के आदेश के बाद राजनीतिक और साहित्यिक हलकों में प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। लेखक समुदाय, प्रकाशक और मानवाधिकार समूह इस कदम को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला मान सकते हैं, जबकि सरकार इसे राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से ज़रूरी कदम बता रही है।
कानूनी आधार
सरकार ने सीआरपीसी की धारा 95 के तहत यह आदेश जारी किया है, जो राज्य सरकार को किसी भी आपत्तिजनक सामग्री को जब्त करने और उसके प्रसार पर रोक लगाने का अधिकार देता है, यदि वह राज्य की शांति, सुरक्षा या संप्रभुता के खिलाफ हो।
जम्मू-कश्मीर में राज्य सरकार द्वारा 25 किताबों पर प्रतिबंध लगाए जाने से एक नई बहस छिड़ गई है—कि क्या इस तरह के कदम सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं या विचारों की स्वतंत्रता को दबाते हैं? फिलहाल, यह मामला राजनीतिक, साहित्यिक और कानूनी तीनों ही मोर्चों पर चर्चा का केंद्र बन गया है।