जुबिली पोस्ट ब्यूरो
लखनऊ। 8 नवंबर 2016 को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 500 और 1000 रुपये के नोट चलन से बाहर कर दिये थे। जिसका खामियाजा आम लोगों के साथ- साथ देश भर के सहकारी बैंकों को भी उठाना पड़ा था।
नोटबंदी की घोषणा होते ही लखीमपुर जिला सहकारी बैंक ने भी भारी भरकम रकम जमा हुई थी, जिस पर आरबीआई ने सख्ती बरतते हुए रुपए जमा नहीं किये। नतीजा आज भी बैंक में 8 करोड़ 13 लाख 49 हजार 500 रुपये के चलन से बाहर हुए नोट रद्दी की तरह पड़े हुए है।
मजे की बात तो ये कि इस रकम पर बैंक को ब्याज के रूप में 4 लाख 50 हजार रुपये का घाटा भी उठाना पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि आलाधिकारियों को इसकी जानकारी नहीं है, लेकिन चुप्पी किस ओर इशारा कर रही है, ये शायद बताने की आवश्यकता बिलकुल भी नहीं है।

लखीमपुर खीरी निवासी वी.के. दीक्षित ने शपथ पत्र देकर 17 अप्रैल 2019 को प्रमुख सचिव सहकारिता से शिकायत में कहा है कि 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी के बाद प्रचलन से बाहर किये गये नोटों में से लगभग 8 करोड़ 13 लाख 49 हजार 500 रुपये भारतीय रिजर्व बैंक ने लखीमपुर खीरी के जिला सहकारी बैंक के बदलने से मना कर दिया, जिसके कारण बैंक को प्रति माह लगभग 4 लाख 50 हजार रुपये ब्याज की हानि उठानी पड़ रही है।
शिकायतकर्ता वी.के. दीक्षित का कहना है कि मैंने 16 फरवरी 2019 को जनसूचना अधिकार अधिनियम 2005 के तहत जनसूचना अधिकारी, सचिव, मुख्य कार्यपालक अधिकारी जिला सहकारी बैंक लखीमपुर खीरी से इस बाबत सूचना मांगी थी, लेकिन अब तक सूचना नहीं दी गई।
ये है पूरा मामला
8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा की गई। चूंकि घोषणा देर शाम को की गई इसलिए उस दिन के नोटों का विवरण रिजर्व बैंक की जानकारी में था। उसके बाद भी लखीमपुर खीरी के जिला सहकारी बैंक में गलत तरीके से प्रचलन से बाहर किये गये पुराने नोटों को बदल डाला।
जब जिला सहकारी बैंक इन करोड़ों रुपयों को रिजर्व बैंक में जमा करने गये तो बैंक ने कारण लिखते हुए इन नोटों को लेने से इनकार कर दिया। इस कारण 8 करोड़ 13 लाख 49 हजार 500 रुपये का बैंक को घाटा उठाना पड़ रहा है और इस पर प्रतिमाह 4 लाख 50 हजार रुपये का ब्याज आग में घी डालने का काम कर रहा है।
क्यों बेबस है अधिकारी
इस फर्जीवाड़े की सूचना प्रमुख सचिव सहकारिता, आयुक्त एवं निबंधक सहकारिता एवं सहायक आयुक्त, सहायक निबंधक सहकारिता, लखीमपुर खीरी को दी गई परन्तु इतने दिन बाद भी इस पर कोई कार्यवाही नहीं की गई। हाल ही में पता चला है कि नोटों को अवैध रूप से बदलने वाले अधिकारियों पर कार्यवाही न कर उसे बैंक लॉस में डालने का प्रयास किया जा रहा है।
आश्चर्य की बात तो ये है कि प्रति वर्ष ऑडिट करने वाली संस्था ने भी लगभग साढ़े 8 करोड़ की धनराशि के घाटे का मुद्दा छोड़ दिया है, तो क्यों न ये समझा जाए कि ऑडिट करने वाली संस्था भी संदेह के घेरे में है। यदि ये अधिकारी यूं ही मनमानी करते रहे तो सहकारी संस्थाओं पर लगाम कैसे लगेगी ?
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