Monday - 22 December 2025 - 1:06 PM

चौदह सौ साल बाद फिर ख़ुदा के वजूद पर डिबेट…

जवाब के इंतेज़ार में हैं आज भी कुछ सवाल !

नवेद शिकोह

कुरआन के सूरह नहर आयत नंबर 125 में खुदा के वजूद और दीन पर डिबेट करने का हुक्म है। बशर्ते शालीनता, कुशल व्यवहार, सभ्य, मर्यादित और मृदभाषी होकर अपने तर्क रखें।

मुसलमानों के रसूल (मोहम्मद साहब) इस तरह की डिबेट करते थे। उनके बाद उनके सहाबी (खलीफा/इमाम) भी यहूदियों इत्यादि के साथ ऐसी डिबेट आयोजित करते थे। मुबाहिला नामक एक डिबेट काफी चर्चित रही है,धार्मिक किताबों में इसका खूब जिक्र है।

चौदह सौ साल पहले खुदा के वजूद और दीन के लॉजिक पर दो पैनल्स बैठते थे, और खूब पब्लिक (ऑडियंस) इकट्ठा होती थी। ऐसी ऐतिहासिक बहसों का किताबों में जिक्र है।

आधुनिक डिजिटल युग में खुदा के अस्तित्व पर करोड़ों की ऑडियंस के बीच एक ऐसी डिबेट आजकल खूब चर्चा में है।

एक ब्रॉड मीडिया हाउस के यूट्यूब चैनल ने मशहूर गीतकार, लेखक जावेद अख्तर (जो नास्तिक हैं) और खुदा व उसके दीन पर यक़ीन रखने वाले मुफ्ती शमाइल (आस्तिक) के बीच एक लाइव डिबेट शो आयोजित किया। जिसे अब इंटरनेट के माध्यम से करोड़ों लोग देख चुके हैं। इस बहस पर सबकी अपनी अलग-अलग राय है। कोई कह रहा है कि मुफ्ती के तर्कों के आगे जावेद अख्तर धराशाई हो गए तो कोई कह रहा है कि जावेद अख्तर के आगे मुफ्ती टिक नहीं पाए। आस्तिकों और नास्तिकों के बीच हर दौर में बहसें होती रही हैं।

सनातन धर्म में धार्मिक डिबेट को शास्त्रार्थ नाम दिया गया है। शास्त्रार्थ का चलन तो पौराणिक और वैदिक काल से लेकर त्रेता युग तक रहा है।

अब डिजिटल युग में भी आस्तिक और नास्तिक आमने-सामने हैं। जावेद अख्तर और मुफ्ती शमाइल की शालीन बहस इसलिए चर्चा में है कि इंटरनेट/सोशल मीडिया के जरिए ये करोड़ों लोगों तक पहुंची और बेहद रोचक रही।

खुदा के अस्तित्व पर इस बहस ने चौदह साल पहले मुबाहिला नामक चर्चित और एतिहासिक डिबेट की याद दिला दी। और लगने लगा कि एक यूट्यूब चैनल के इस सफल शो के बाद अल्लाह/ईश्वर के वजूद पर नास्तिकों से बहस का सिलसिला एक बार फिर तेज होगा।

सवालों को बुलंद करना, तर्क-वितर्क, बहस मुबाहिसों का सिलसिला धर्म-अध्यात्म, समाज, संस्कृति और इंटरनेट के बाजार के लिए मुफीद है।

अब लगने लगा है कि जावेद अख्तर और मुफ्ती जैसों की बहस का सिलसिला तेज हो चलेगा। इसमें ना कोई हारेगा ना जीतेगा। ऐसी बहसे तब तक चलती रहेंगी जब तक दुनिया है। दरअसल ये दुनिया ही गुत्थी धागों जैसी है। ये धागे कभी नहीं सुलझने।

शायद सुलझने से पहले ही दुनिया खत्म हो जाए। हजारों वर्षों से ना जाने कितने मजहब आए और खत्म हो गए। हर दौर में खुदा, ईश्वर,गॉड के प्रति कुछ की आस्था रही तो कुछ इनके अस्तित्व को नकारते रहे। धरती पर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मानते हैं कि कोई एक सुप्रीम पॉवर तो है। कोई तो है जिसने इस सृष्टि को रचा है।

“सबका मालिक एक है” पर विश्वास रखने वालों की भी बड़ी संख्या है। अलग-अलग मत, अलग आस्थाएं और विश्वास का सिलसिला हजारों वर्षों से चला आ रहा है। जब से दुनिया आबाद हुई है तब से अबतक धीरे-धीरे धर्म सभ्यताएं,संस्कृतियां और साइंस आगे बढ़ती गई। ना जाने कितने जुल्म हुए। युद्ध हुए। कई धर्मयुद्ध भी हुए। और धर्म ज़ुल्म का कारण बनें।

नास्तिक अल्लाह -ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाते रहे और आस्तिक अपनी आस्था और विश्वास पर अड़े रहे, परमात्मा के वजूद के तर्क देते रहे।

लेकिन कुछ सवाल हजारों वर्षों से जवाब के इंतजार में हैं। मसलन अल्लाह-ईश्वर दयालु व कृपाल है। रहीम और रहमान (रहम करने वाला) है। उसने मनुष्य को मानवता का संदेश दिया है। दया और रहम करने का आदेश दिया है। जियो और जीने के सिद्धांत पर अमल करने की ताकीद की है। दया, करुणा, प्रेम की हिदायत दी है।

पर अल्लाह/ईश्वर, गॉड ने अपनी रचना (कुदरत) में जुल्म को अनिवार्य क्यों रखा है ! हिरन और शेर जैसे हजारों ऐसे जीव-जंतु बनाए जो ज़ुल्म और अत्याचार के बिना जी ही नहीं सकते। शेर जिन्दा हिरन को मारकर, चीरफाड़ खाता है। शेर जुल्म किए बिना जी ही नहीं सकता। यानी परमात्मा/अल्लाह ने जुल्म को सिस्टम से अनिवार्य रूप से जोड़ा है।

जल, थल वायु हर जगह खुदा की कुदरत का जुल्म बरपा है। बड़ी मछली छोटी मछली को खाएगी ही, बड़ा परिंदा छोटे परिंदे पर ज़ुल्म किए बिना जीवित ही नहीं रह सकता।

पशु-पक्षी, जीव-जंतु का वध करने या उन्हें मार के खाने के ज़ुल्म को यदि इंसानों का कानून बंद भी कर दे तब भी खुदा की कुदरत ये ज़ुल्म जारी रहेगी।

तो क्या इंसानों को प्रेम, करुणा और जियो और जीने का सिद्धांत सिखाने वाले खुदा के निज़ाम का वजूद ही ज़ुल्म के ताने-बाने से बना है ! हो सकता है इन सवालों के जवाब हों पर इन सवालों के जवाब आजतक किसी आलिम ने नहीं दिए।

ऐसे सवालों के जवाब प्रत्येक धर्म के धार्मिक आलिमों (विद्वानों)को देना होगें।

 

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