Saturday - 27 December 2025 - 2:30 PM

क्या यही है उच्च शिक्षा का सपना ?

अशोक कुमार

पिछले लगभग तीन वर्षों से मैं उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपने अनुभवों, वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और अपने सहयोगी मित्रों के अनुभवों के आधार पर लगातार समाचार पत्रों और सोशल मीडिया पर लेख लिख रहा हूँ। लेकिन यह एक संयोग है या फिर गंभीर चिंता का विषय कि जिन शिक्षकों, छात्रों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के लिए मैं लिखता हूँ, उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया या तो मिलती ही नहीं, या फिर बेहद सीमित होती है।

ऐसे में कई बार मन में यह प्रश्न उठता है—क्या मुझे उच्च शिक्षा के उत्थान और उसकी प्रगति के लिए लिखना चाहिए या नहीं? जबकि यह सर्वविदित है कि किसी भी देश की समृद्धि और विकास के लिए उच्च शिक्षा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। वास्तव में शिक्षा का अर्थ केवल डिग्री प्राप्त करना नहीं, बल्कि एक अच्छा इंसान और जिम्मेदार नागरिक बनना है।मैंने बहुत सोचने के बाद भी अपनी कलम को रोक नहीं पाया, क्योंकि अपने अनेक लेखों के माध्यम से मैंने यह महसूस किया है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली विशेषकर छात्रों के भविष्य के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बनती जा रही है। कई बार मैं यह भी सोचता हूँ कि क्यों न केवल शिक्षा की प्रशंसा लिखी जाए—उसकी चुनौतियों, समस्याओं और कमियों पर चर्चा ही न की जाए। लेकिन क्या इससे वास्तविकता बदल जाएगी?

आज की स्थिति यह है कि कार्यरत शिक्षक, छात्र और प्रशासक—तीनों ही अपने-अपने संस्थानों के अनुभवों को सार्वजनिक रूप से लिखने या साझा करने से बचते हैं। इसके पीछे संकोच है या भय, यह कहना कठिन है। लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनिवार्य है। उच्च शिक्षा संस्थान ऐसे होने चाहिए जहाँ केवल संस्थान या राज्य ही नहीं, बल्कि देश और दुनिया से जुड़े विषयों पर खुलकर चर्चा हो और उनके समाधान भी खोजे जाएँ।

दुर्भाग्यवश, आज अधिकांश संस्थानों में चर्चा सीमित विषयों तक सिमट गई है और वह भी केवल प्रशंसा तक। जमीनी हकीकत से कटे रहने के कारण ही हमारी उच्च शिक्षा न तो आगे बढ़ पा रही है और न ही वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना पा रही है। यही कारण है कि आज भी हम विश्व के शीर्ष विश्वविद्यालयों की सूची में काफी नीचे हैं।

PHOTO -SOCIAL MEDIA

अब प्रश्न यह है कि जब अनुभव और सच्चाई कुछ और ही कह रही हो, तो मैं शिक्षा के बारे में केवल अच्छा कैसे लिखूँ? जब यह देखने-सुनने को मिलता है कि वनस्पति विज्ञान की प्रायोगिक परीक्षा में छात्र बीज को मुर्गी का अंडा लिख देते हैं, टैडपोल को हाथी का शुक्राणु बता देते हैं, या प्रोटीन की पहचान पूछने पर केवल “अंडा” लिख देते हैं—तो चिंता होना स्वाभाविक है।

स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि कुछ छात्र खेलों को भी बालों की लंबाई से जोड़कर वर्गीकृत कर देते हैं—जैसे बास्केटबॉल पुरुष खेलते हैं, फुटबॉल महिलाएँ और क्रिकेट बच्चे। यह उदाहरण केवल हास्यास्पद नहीं, बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था की गंभीर विफलता को उजागर करते हैं।

कई नए संस्थानों में वर्षों तक नियमित शिक्षक नहीं होते, प्रयोगशालाएँ नहीं होतीं, यहाँ तक कि कुलपति की नियुक्ति भी लंबे समय तक नहीं होती। इसके बावजूद संस्थानों को संबद्धता मिल जाती है। छात्रों से जब उनके विषय की पुस्तकों के बारे में पूछा जाए तो अधिकांश साफ़ कह देते हैं कि उन्होंने कोई पुस्तक नहीं पढ़ी, केवल शिक्षक के नोट्स पर निर्भर रहे।

आज बेरोजगारी से भी बड़ी चिंता यह है कि हमारे युवा रोजगार के योग्य ही नहीं रह गए हैं। नियोक्ताओं के लिए ऐसे छात्रों को नौकरी देना कठिन हो गया है, क्योंकि उनमें आवश्यक ज्ञान और कौशल का अभाव है। स्थिति और भी चिंताजनक तब हो जाती है जब परीक्षा प्रणाली पर नज़र डालते हैं। कंप्यूटर आधारित अंक-प्रणाली में ऐसे प्रोग्राम बनाए गए हैं कि छात्र को फेल करना लगभग असंभव हो गया है। यहाँ तक कि अनुपस्थित छात्रों को भी पास दिखा दिया जाता है। कई संस्थानों में प्रयोगशालाएँ ही नहीं हैं, फिर भी प्रायोगिक परीक्षाओं में 80–90 प्रतिशत अंक दे दिए जाते हैं।

कुछ मामलों में तो परीक्षक परीक्षा लेने ही नहीं जाते और घर बैठे हस्ताक्षर कर देते हैं। इसके कारणों पर चर्चा न भी की जाए, तब भी यह स्थिति स्वीकार्य नहीं कही जा सकती।

सबसे बड़ी चिंता यह है कि इन विषयों पर न शिक्षक खुलकर बोलना चाहते हैं, न छात्र। जब तक सामूहिक रूप से इन समस्याओं पर चर्चा नहीं होगी, तब तक सुधार की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

इस पूरे परिदृश्य में छात्रों और शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावकों की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। अपने 40 वर्षों के अनुभव में मैंने बहुत कम अभिभावकों को यह कहते सुना है कि उनके बच्चों की कक्षाएँ नियमित नहीं होतीं या शिक्षण व्यवस्था ठीक नहीं है।

शिक्षा में सुधार तभी संभव है जब अभिभावक, छात्र और शिक्षक—तीनों मिलकर इसकी कमियों को स्वीकार करें और सुधार की दिशा में ईमानदार प्रयास करें। प्रशासन परीक्षा के समय नकल रोकने को लेकर सजग रहता है, यह अच्छी बात है, लेकिन उससे भी अधिक ज़रूरी यह देखना है कि कक्षाएँ नियमित चल रही हैं या नहीं, शिक्षक और प्रयोगशालाएँ उपलब्ध हैं या नहीं।

क्षमता से अधिक प्रवेश देकर केवल फीस के आधार पर संस्थान चलाने की सोच हमें किस दिशा में ले जा रही है—यह आत्ममंथन का विषय है।

अंत में, मेरी सभी से यही विनती है कि उच्च शिक्षा की जमीनी हकीकत को समझें, उसका अध्ययन करें और बिना भय के अपने विचार रखें। क्योंकि शिक्षा का भविष्य केवल डिग्रियों से नहीं, बल्कि सच्चे संवाद और सुधार से तय होगा।

(पूर्व कुलपति, कानपुर एवं गोरखपुर विश्वविद्यालय, पूर्व विभागाध्यक्ष, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर)

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