Wednesday - 24 December 2025 - 11:05 AM

अरावली विवाद: सुप्रीम कोर्ट के फैसले से क्यों मचा बवाल, क्या राजस्थान की पहाड़ियां खतरे में हैं?

जुबिली न्यूज डेस्क

नई दिल्ली: भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली एक बार फिर देश की राजनीति, पर्यावरण और न्यायिक बहस के केंद्र में आ गई है। खासतौर पर राजस्थान में अरावली पहाड़ियों को लेकर विरोध प्रदर्शन, राजनीतिक बयानबाजी और सोशल मीडिया पर #SaveAravalli जैसे ट्रेंड लगातार चर्चा में हैं। इसकी मुख्य वजह सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली की एक नई कानूनी परिभाषा को मंजूरी देना है, जिसे लेकर पर्यावरणविदों और आम लोगों में गहरी चिंता देखी जा रही है।

क्या है पूरा मामला?

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पहाड़ियों की पहचान से जुड़े एक मामले में अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि केवल वे पहाड़ियां जिनकी ऊंचाई 100 मीटर या उससे अधिक है, उन्हें ही “अरावली पर्वत श्रृंखला” माना जाएगा
इस फैसले का सीधा असर यह हुआ कि राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र की बड़ी संख्या में छोटी-छोटी पहाड़ियां अब कानूनी रूप से अरावली के संरक्षण दायरे से बाहर हो सकती हैं।

पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली की असली ताकत सिर्फ ऊंचे पहाड़ नहीं, बल्कि उसकी पूरी श्रृंखला और छोटी पहाड़ियां हैं, जो मिलकर उत्तर भारत के पर्यावरण संतुलन को बनाए रखती हैं।

अरावली का पर्यावरणीय महत्व क्यों है इतना बड़ा?

अरावली पर्वत श्रृंखला दुनिया की सबसे पुरानी पर्वतमालाओं में से एक है, जिसकी उम्र करीब 150 करोड़ साल बताई जाती है। यह राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात तक फैली हुई है।

अरावली की प्रमुख भूमिकाएं:

  • यह थार रेगिस्तान को पूर्व की ओर फैलने से रोकती है

  • दिल्ली-एनसीआर में हवा की गुणवत्ता को बेहतर रखने में मदद करती है

  • भूजल रिचार्ज में अहम भूमिका निभाती है

  • कई नदियों जैसे बनास, लूणी और साहिबी का उद्गम स्थल है

  • हजारों प्रजातियों के पेड़-पौधों और वन्य जीवों का घर है

विशेषज्ञों का कहना है कि अगर अरावली कमजोर होती है, तो राजस्थान में रेगिस्तानीकरण, पानी की किल्लत और गर्मी का असर कई गुना बढ़ सकता है।

100 मीटर की नई परिभाषा पर आपत्ति क्यों?

पर्यावरणविदों और सामाजिक संगठनों का कहना है कि ऊंचाई के आधार पर पहाड़ियों की पहचान करना अवैज्ञानिक है
उनके मुताबिक:

  • अरावली की अधिकतर पहाड़ियां 50 से 90 मीटर ऊंची हैं

  • ये छोटी पहाड़ियां ही जल संरक्षण और जैव विविधता में सबसे अहम भूमिका निभाती हैं

  • 100 मीटर की सीमा तय होने से लगभग 70–90% क्षेत्र कानूनी सुरक्षा से बाहर जा सकता है

यही वजह है कि लोग इसे “अरावली को कमजोर करने वाला फैसला” मान रहे हैं।

क्या इससे खनन और निर्माण का रास्ता खुलेगा?

यह सबसे बड़ा सवाल है।
आंदोलनकारियों का कहना है कि जैसे ही कोई क्षेत्र कानूनी रूप से अरावली की श्रेणी से बाहर होगा:

  • वहां खनन गतिविधियां शुरू की जा सकती हैं

  • रियल एस्टेट और सड़क परियोजनाएं बढ़ेंगी

  • जंगलों की कटाई और पहाड़ियों के समतलीकरण का खतरा रहेगा

हालांकि सरकार ने इन आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा है कि कोई नया खनन पट्टा नहीं दिया जाएगा, लेकिन लोगों को डर है कि भविष्य में नियमों में ढील दी जा सकती है।

राजस्थान में क्यों भड़का आंदोलन?

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राजस्थान के कई जिलों—जयपुर, अलवर, उदयपुर, सीकर, अजमेर समेत अन्य इलाकों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए
राजनीतिक दलों, खासकर कांग्रेस ने इसे बड़ा मुद्दा बनाते हुए “अरावली बचाओ आंदोलन” की घोषणा की।

कांग्रेस का आरोप है कि:

  • यह फैसला उद्योगपतियों और बिल्डरों के हित में है

  • सरकार पर्यावरण की कीमत पर विकास को बढ़ावा दे रही है

वहीं बीजेपी का कहना है कि:

  • फैसले को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है

  • अरावली की सुरक्षा पहले की तरह बरकरार है

  • कोई भी नई खनन अनुमति नहीं दी जाएगी

सरकार का पक्ष क्या है?

केंद्र और राज्य सरकार दोनों ने स्पष्ट किया है कि:

  • सुप्रीम कोर्ट का फैसला तकनीकी और कानूनी स्पष्टता के लिए है

  • इससे मौजूदा पर्यावरण कानून कमजोर नहीं होते

  • अरावली क्षेत्र अब भी वन संरक्षण और पर्यावरणीय नियमों के अंतर्गत रहेगा

पर्यावरण मंत्रालय का कहना है कि बिना वैज्ञानिक अध्ययन और पर्यावरणीय मंजूरी के कोई भी गतिविधि संभव नहीं होगी।

सुप्रीम कोर्ट का रुख क्या है?

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि:

  • अरावली की पहचान को लेकर वर्षों से अस्पष्टता थी

  • अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग परिभाषाएं लागू थीं

  • नई परिभाषा से कानूनी भ्रम खत्म होगा

हालांकि कोर्ट ने यह भी साफ किया है कि पर्यावरण संरक्षण सर्वोच्च प्राथमिकता रहेगी

सोशल मीडिया और आम जनता की प्रतिक्रिया

सोशल मीडिया पर #SaveAravalli, #AravalliUnderThreat जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता, छात्र, स्थानीय लोग और विशेषज्ञ इस मुद्दे पर खुलकर अपनी राय रख रहे हैं।

लोगों का कहना है कि:

  • अरावली सिर्फ पहाड़ नहीं, बल्कि जीवन रेखा है

  • विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन जरूरी है

  • फैसलों में स्थानीय लोगों की राय को शामिल किया जाना चाहिए

आगे क्या?

विशेषज्ञ मानते हैं कि आने वाले समय में:

  • सरकार को स्पष्ट गाइडलाइन जारी करनी होगी

  • खनन और निर्माण पर सख्त निगरानी जरूरी होगी

  • पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) को और मजबूत करना होगा

अगर ऐसा नहीं हुआ, तो अरावली का भविष्य वाकई खतरे में पड़ सकता है।

अरावली विवाद सिर्फ एक कानूनी या राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण, पानी, हवा और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य से जुड़ा सवाल है। जहां सरकार इसे प्रशासनिक स्पष्टता बता रही है, वहीं आम लोग और पर्यावरणविद इसे अरावली के अस्तित्व के लिए चुनौती मान रहे हैं। अब सबकी नजर इस बात पर है कि सरकार और न्यायपालिका मिलकर विकास और संरक्षण के बीच संतुलन कैसे बनाती है।

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