Friday - 12 December 2025 - 10:55 PM

यूपी भाजपा की कौन संभालेगा कमान? अफवाहों का बाजार गर्म

डा. उत्कर्ष सिन्हा

आनेवाले शनिवार को यूपी भाजपा के नए अध्यक्ष पद के लिए नामांकन होना है लेकिन इस बीच सियासी गलियारों में कानाफूसी तेज हो गयी है, गोपनीयता की स्थिति ये है की पार्टी के तमाम बड़े नेता अपने सूत्रों से नए नाम की टोह लेने में जुटे हुए हैं।

उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी  के लिए हमेशा से एक विशेष महत्व वाला राज्य रहा है। 80 लोकसभा सीटों वाला ये प्रदेश न केवल भाजपा की “राजनीतिक प्रयोगशाला” कहा जाता है, बल्कि यहाँ का संगठनात्मक ढांचा पार्टी की राष्ट्रीय रणनीति का भी आईना होता है।

2024 के लोकसभा चुनावों के बाद और 2027 के विधानसभा चुनावों की पृष्ठभूमि में भाजपा की नज़र अब अपने नए प्रदेश अध्यक्ष के चयन पर टिकी है। चर्चाओं का बाज़ार गर्म है—और यह तय माना जा रहा है कि अगला प्रदेश अध्यक्ष पिछड़े वर्ग (OBC) से होगा।

पंकज चौधरी का नाम: चर्चा और संदेह

गुरुवार को अचानक केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी का नाम बहुत तेजी से उभरा। वे पूर्वी उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक जाना-पहचाना चेहरा हैं और मिश्रित सामाजिक समीकरण वाले क्षेत्र से आते हैं।

मंशा साफ दिखाई देती है—पूर्वांचल के ओबीसी समाज और विशेष रूप से कुर्मी मतदाताओं को जोड़कर रखना। बीते लोकसभा चुनावो में यह वर्ग भाजपा से दूर जाता दिखाई दिया था ।

लेकिन सियासी गलियारों में उनके नाम पर मतभेद भी हैं। एक तो उनके स्वास्थ्य को लेकर चर्चाएँ हैं कि वे प्रदेश अध्यक्ष जैसे कठिन और दौरा-प्रधान पद की जिम्मेदारी संभाल पाएंगे या नहीं।

दूसरे, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उनके समीकरण को लेकर भी अंदरखाने कुछ असहजता बताई जा रही है। पंकज चौधरी लंबे समय से सांसद रहे और वर्तमान समय में  केंद्र में वित्त राज्य मंत्री भी हैं, लेकिन प्रदेश संगठन में उनकी भूमिका सीमित रही है। और उनका संगठन का कोई अनुभव भी नहीं है,  यही वजह है कि संगठन के कुछ धड़े उनके नाम पर सहज नहीं हैं।

बीएल वर्मा का समीकरण

दूसरा चर्चित नाम बी.एल. वर्मा का है। वे उत्तर प्रदेश से ही राज्यसभा सांसद हैं और केंद्र सरकार में मंत्री रह चुके हैं। वर्मा लंबे समय तक संगठन में रहे हैं और ओबीसी वर्ग विशेष-लोध समुदाय-का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे में यदि भाजपा उन्हें प्रदेश की कमान देती है, तो यह संदेश जाएगा कि पार्टी अभी भी ओबीसी नेतृत्व को प्राथमिकता दे रही है।

हालाँकि, उनके नाम पर एक और पेचीदगी है-कल्याण सिंह परिवार की नाराजगी की संभावना। बीएल वर्मा कभी कल्याण सिंह के काफी करीबी रहे हैं, लेकिन बाद में दोनों के रिश्तों में दूरी आ गई थी।

अब कल्याण सिंह का परिवार फिर से भाजपा में पूरी सक्रियता से जुड़ा है। ऐसे में बीएल वर्मा की ताजपोशी से कल्याण परिवार असंतुष्ट हो सकता है। पार्टी नेतृत्व शायद इस जोखिम को टालना चाहेगा। ऐसे में दूसरे लोध नेता धर्मपाल की संभावनाएं बढ़ सकती है । वे संघ की प्रिश्भूमि से आते हैं और संगठन में भी उनका बड़ा अनुभव है ।

बदलता समीकरण और संगठन का दबाव

उत्तर प्रदेश भाजपा के सामने इस समय दोहरी चुनौती है—एक तरफ अखिलेश यादव का “PDA” (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) समीकरण है, जिसने सपा को सामाजिक-राजनीतिक धार दी है; दूसरी ओर भाजपा को अपने “बिखरे हुए” वोटबैंक को फिर से समेटना है।

खासकर ओबीसी समुदाय में भाजपा की पकड़ कमजोर पड़ती दिख रही है। ऐसे में नेतृत्व परिवर्तन के ज़रिए पार्टी संगठनात्मक और सामाजिक दोनों संतुलन को साधना चाहती है।

पार्टी सूत्रों के मुताबिक इस बार अध्यक्ष वही होगा जो न केवल संगठन में अनुभव रखता हो बल्कि सामाजिक रूप से भी बड़ा चेहरा हो। साथ ही यह भी ध्यान रखा जा रहा है कि नए अध्यक्ष के चयन से किसी वर्ग या प्रभावशाली परिवार में असंतोष न पनपे।

संतुलन खोजती भाजपा: अमित शाह की भूमिका

प्रदेश अध्यक्ष का चयन इस बार केवल संगठन का मामला नहीं है—यह एक रणनीतिक निर्णय होगा, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की केंद्रीय टीम मिलकर तय करेगी।

अमित शाह संगठनात्मक संतुलन और जमीनी समीकरणों को तौलने में माहिर माने जाते हैं। इसलिए यह लगभग तय है कि अंतिम निर्णय उन्हीं की मर्ज़ी से होगा।

सूत्र बताते हैं कि पार्टी नेतृत्व ऐसे चेहरे की तलाश में है जो योगी आदित्यनाथ और केंद्र दोनों के बीच एक सेतु बन सके। प्रदेश में मुख्यमंत्री का बढ़ता प्रभाव संगठन के कई पुराने कार्यकर्ताओं को असहज करता है। ऐसे में पार्टी चाहती है कि नया अध्यक्ष “सहयोगी लेकिन स्वतंत्र” भूमिका निभाए—जो मिशन 2027 की तैयारियों को मजबूती दे सके।

संभावित नामों की चर्चा

भाजपा सूत्रों में जिन नामों पर फिलहाल चर्चा चल रही है, उनमें पंकज चौधरी और बीएल वर्मा के अलावा केशव प्रसाद मौर्य (यदि केंद्र में पदोन्नति होती है और वे प्रदेश में बने रहते हैं), भूपेंद्र चौधरी (वर्तमान अध्यक्ष जिनका कार्यकाल समाप्त हो चुका है), स्वतंत्र देव सिंह,  और साध्वी निरंजा ज्योति के नामो की भी समय समय पर खूब चर्चा हुयी ।

स्वतंत्र देव सिंह एक अनुभवी और सशक्त संगठनकर्ता हैं, लेकिन वे पहले ही यह पद संभाल चुके हैं, इसलिए संभावना कम है कि पार्टी पुराने चेहरों की ओर लौटे।

सामाजिक संदेश: “PDA” का जवाब

अखिलेश यादव ने PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) का नारा देकर भाजपा के “सबका साथ-सबका विकास” एजेंडे को सामाजिक रूप से चुनौती दी है। इस नारे के ज़रिए सपा ने सीधे तौर पर भाजपा के ओबीसी और दलित वोटबैंक पर प्रहार किया।

भाजपा अब कोशिश कर रही है कि संगठनात्मक पुनर्संरचना के माध्यम से अपने पारंपरिक ओबीसी मतदाताओं को यह संदेश दे कि पार्टी उनके हितों और नेतृत्व को प्राथमिकता देती है। यही वजह है कि अध्यक्ष का पद किसी प्रतिनिधिक मुखौटे की बजाय वास्तविक संगठन क्षमता वाले ओबीसी नेता को दिया जा सकता है।

योगी फैक्टर: शक्ति और संतुलन

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का प्रभाव उत्तर प्रदेश की राजनीति में निर्विवाद है। वे भाजपा के “हिंदुत्व प्लस शासन” मॉडल का चेहरा हैं। किंतु इससे संगठनात्मक संतुलन भी प्रभावित होता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश भाजपा अब दो स्तरों पर संचालित होती है—एक प्रशासनिक (योगी सरकार) और दूसरा सांगठनिक (भाजपा संगठन)।

इस स्थिति में नया प्रदेशाध्यक्ष ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो योगी के साथ तालमेल रखते हुए भी संगठन के पुराने ढाँचे को सशक्त बनाए। यदि यह सामंजस्य नहीं बना, तो 2027 के चुनावी मिशन पर असर पड़ सकता है।

मिशन 2027 की तैयारी

भाजपा का लक्ष्य स्पष्ट है-अगला प्रदेशाध्यक्ष वह चेहरा होगा जो सामाजिक तौर पर प्रतिनिधित्व के साथ-साथ संगठनात्मक रूप से भी सक्रियता दिखा सके। पार्टी को यह भी समझ है कि अब केवल हिंदुत्व या मोदी-फैक्टर से जीतना आसान नहीं होगा; सामाजिक समीकरणों की बारीक समझ और स्थानीय नेतृत्व की पकड़ उतनी ही ज़रूरी है।

अगर किसी संयमित, कार्यकर्ता-आधारित और सामाजिक रूप से प्रभावी नेता को चुना जाता है, तो अमित शाह की निगरानी में भाजपा उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन फिर हासिल कर सकती है। लेकिन यदि चयन केवल प्रतीकात्मक हुआ, तो “PDA” का दबाव और योगी बनाम संगठन की खींचतान दोनों चुनौतियाँ और गहरी होंगी।

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