डा. उत्कर्ष सिन्हा
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 संपन्न हो चुके हैं। 6 और 11 नवंबर को हुए मतदान के बाद परिणाम भी आ गए , लेकिन चुनाव आयोग की मतदाता सूची पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा। रिपोर्टर्स कलेक्टिव की जांच ने अंतिम सूची में 14.35 लाख संदिग्ध डुप्लीकेट वोटरों का खुलासा किया है, जबकि आयोग इसे ‘शुद्धिकृत’ बता रहा था। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में चुनाव आयोग ने अपना ही डुप्लीकेशन सॉफ्टवेयर खारिज कर दिया। यह मामला न केवल बिहार के चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है, बल्कि पूरे देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता को चुनौती देता है।
रिपोर्टर्स कलेक्टिव नाम की एक स्वतंत्र पत्रकार संस्था ने महीनों की मेहनत से बिहार की अंतिम मतदाता सूची खंगाली थी। उनकी जांच में चौंकाने वाला खुलासा हुआ है – पूरे 14.35 लाख संदिग्ध डुप्लीकेट वोटर मिले ! यानी एक ही व्यक्ति के नाम पर कई जगह वोटर आईडी, या एक ही पते पर अलग-अलग नामों से एंट्री।
इन खुलासों के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हुई। कोर्ट ने चुनाव आयोग से जवाब मांगा। 24 नवंबर 2025 को आयोग ने अपना काउंटर-एफिडेविट दाखिल किया। उसमें एक हैरान करने वाली बात लिखी थी – उनका अपना डुप्लीकेशन सॉफ्टवेयर इतना खराब था कि 2023 के बाद उसे पूरी तरह बंद कर दिया गया!
असल में 2018 में चुनाव आयोग ने मशीन लर्निंग आधारित डुप्लीकेशन सॉफ्टवेयर शुरू किया था, जो नाम, रिश्तेदारों का नाम, पता, उम्र और फोटो की तुलना कर संदिग्ध एंट्रीज पकड़ता था। 2023 के मैनुअल में इसे 2024 लोकसभा चुनाव से पहले पूरे देश में ‘कैंपेन मोड’ में चलाने का सख्त आदेश था। लेकिन बिहार के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) में इसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। 24 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल काउंटर-एफिडेविट में आयोग ने दावा किया कि सॉफ्टवेयर के नतीजे ‘वेरिएबल’ थे और ज्यादातर संदिग्ध एंट्रीज असल डुप्लीकेट नहीं निकलतीं, इसलिए 2023 के बाद इसे बंद कर दिया।
यह सफाई तब आई जब रिपोर्टर्स कलेक्टिव की जांच को कोर्ट में उद्धृत किया गया। जांच में पाया गया कि SIR के बावजूद सूची में लाखों डुप्लीकेट बरकरार हैं। मैनुअल प्रक्रिया पर भरोसा किया गया – वोटरों से फॉर्म भरवाकर सिर्फ एक आईडी की घोषणा करवाई गई। लेकिन यह तरीका अपर्याप्त साबित हुआ। बूथ लेवल ऑफिसर केवल स्थानीय रोल चेक कर सकते हैं, जबकि माइग्रेंट डुप्लीकेट्स का पता लगाना असंभव है क्योंकि पूरा डेटाबेस सिर्फ आयोग के पास है।
आयोग का तर्क है कि नई तकनीक अपनाने को तैयार हैं, लेकिन कोई स्वतंत्र ऑडिट या सार्वजनिक खुलासा उसे स्वीकार नहीं है । उधर, पश्चिम बंगाल में AI-आधारित फोटो मैचिंग की बात हो रही है। सवाल यह है कि जब तकनीक उपलब्ध थी और पहले सफलतापूर्वक इस्तेमाल हो रही थी, तो बिहार जैसे महत्वपूर्ण चुनाव से पहले इसे क्यों छोड़ा गया? क्या यह पारदर्शिता की कमी नहीं दर्शाता?
मतदाता सूची लोकतंत्र की रीढ़ है। इसमें गड़बड़ी न केवल चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकती है, बल्कि जनता का विश्वास भी डगमगा सकती है। बिहार का SIR पूरे देश के लिए सबक है। चुनाव आयोग को न केवल अपनी तकनीकों का ऑडिट कराना चाहिए, बल्कि प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी बनाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप सराहनीय है, लेकिन जरूरत इसकी है कि ऐसे विवादों से बचने के लिए मजबूत और विश्वसनीय तरीका विकसित किया जाए। आखिर, लोकतंत्र की असली ताकत निष्पक्ष मतदान में ही है।
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