Wednesday - 3 December 2025 - 6:02 PM

प्रकृति और संस्कृति का विध्वंस है अरावली का नया संकट

राजेन्द्र सिंह (जलपुरुष)
अरावली क्षेत्र में 1980 के दशक में वैध-अवैध 28000 खदानें चालू थी। इनको बंद कराने का बीड़ा तरुण भारत संघ ने वर्ष 1988 में उठाया था। 1993 में अरावली की धरती पर सभी खदाने एक बार तो बंद करा दी थी। यह काम 1990 के दशहरे विजयदशमी पर सरिस्का का खनन रुकने से इसकी शुरुआत हुई थी।
महात्मा गांधी जयंती 2 अक्टूबर 1993 को हिम्मतनगर गुजरात से अरावली चेतना यात्रा द्वारा खनन बंद कराते हुए “अरावली का सिंहनाद“ दिल्ली संसद तक 22 नवंबर 1993 को पहुंचा था। तब अरावली एक बार तो खनन मुक्त हो गई था। वर्ष 1994 में अरावली के सभी जिलों के जिलाधिकारियों को खनन बंद करने की कार्यवाही हेतु अरावली संरक्षण समितियां गठित करके, उच्चतम न्यायालय को रिपोर्ट देने वाला तंत्र बनाया गया था।
उस समय लगता था कि अब अरावली बच गई है और आगे के लिए अरावली को बचाने वाली व्यवस्था भी अब बन गई है। वर्ष 1996 आते-आते मैं निश्चिंत हो गया था और मान लिया था कि अब मेरा संकल्प पूरा हो गया है। लेकिन 10- 15 वर्ष बाद ही मुझे देखने में आया कि खनन संगठन ज्यादा दल – बल के साथ संगठित होकर खनन खुलवाने में जुट रहा हैं। तब बहुत से ख्याली मीणा जैसे युवा अरावली बचाने के लिए तैयार हो गए थे। पूरी अरावली में बहुत से लोग स्वयं सामने आकर अरावली बचाने में जुट गए थे। मन को उस समय बहुत समाधान और संतोष था। मुझे मालूम नहीं था कि, मेरे सामने ही संपूर्ण अरावली में वैध और अवैध खनन शुरू होगा और इस खनन को सरकारों व खनन उद्योग पतियों के गठजोड़ को उच्चतम न्यायालय भी मोहर लगा देगा
मैने जब तक उच्चतम न्यायालय का निर्णय आते ही पढ़ा, तब तक सरकारी एफिडेविट, सरकार की रिपोर्ट, मंत्रालय की कार्रवाई नहीं देखी थी। तब लगता था कि उच्चतम न्यायालय ने चारों राज्यों की अरावली का एक जैसी कानून व्यवस्था देने की मनसा से ऐसा किया होगा।
100 मीटर की ऊंचाई की परिभाषा को एक मानक माना होगा। जैसे हम अपनी पढ़ाई में कोई एक आधार बिंदु मानकर गणनाएं करते हैं, वैसे गणना के लिए यह रखा होगा। विस्तार से थ्.ै.प् वन सर्वेक्षण संस्थान, भारतीय सर्वेक्षण विभाग(जीएसआई) टेक्निकल सबकमेटी की रिपोर्ट (टीएससी) देखकर आंखें खुली कि यह संपूर्ण करवाई तो खनन उद्योग के सतत विकास के नाम पर हमारी प्राचीनतम विरासत अरावली के लिए नया संकट पैदा कर रही है।
अरावली का 20 मीटर तक की ऊंचाई वाला क्षेत्रफल 107494 वर्ग किमी है। 20 मीटर से ऊपर वाला क्षेत्र 12081 वर्ग किमी, 40 मीटर से ऊपर वाला क्षेत्र 5009 वर्ग किमी, 60 मीटर वाला क्षेत्र 2656 वर्ग किमी है, 80 मीटर वाला क्षेत्र 1594 वर्ग किलोमीटर, 100 मीटर वाला क्षेत्र 1048 वर्ग किलोमीटर, 100 मीटर से ऊपर वाला क्षेत्र केवल 8.7 प्रतिशत क्षेत्रफल है।
अब भारत सरकार का पर्यावरण मंत्रालय अपनी ईमानदारी से काम करेगा तो कुल 8.7 प्रतिशत अरावली क्षेत्र ही बचेगा। यह अरावली वासियों को स्वीकार नहीं है। अरावली क्षेत्र के आदिवासी तो ये स्वीकार नहीं करते हैं। अरावली में आदिवासियों के मुहासे, वाडे, घर, घेर तो 100 मीटर से नीचे की भूमि पर ही है। वहां से भी ये उजाड़ना नहीं चाहते। खनन की बीमारियों से भी बचकर इससे दूर रहना ही इनका स्वभाव है। उनकी अपनी संस्कृति और प्रकृति है। उनका आदिज्ञान तो प्रकृति से संस्कृति से जोड़ने वाला है।
अरावली की अपनी प्रकृति और संस्कृति तो दुनिया में सर्वोपरि है। अरावली में खनन उद्योग यहां की संस्कृति और प्रकृति के विरुद्ध है। इसी बात को समझकर 45 वर्ष पूर्व अरावली बचाने का काम जयपुर से शुरू हुआ था। अब रिपोर्ट को पढ़ने, देखने, समझने से समझ आया कि, जयपुर से ही खनन संगठन की पहल को उच्चतम न्यायालय ने मान्यता दे दी है। इन्हीं की बातें ही इस रिपोर्ट में झलकती हैं।
अरावली को बचाने वालों से आज तक कभी भी कोई रिपोर्ट तैयार करने वाला नहीं मिला। जबकि बचाने वाले जयपुर, अलवर में ही अधिकतर रहते हैं; मुझे भी आज तक अरावली के विषय पर बात करने वाला कोई सरकारी अधिकारी नहीं मिला। मुझसे कोई बात करता तो मैं भी इस कार्रवाई में अरावली की सच्ची जानकारी देता और हम भी अरावली का सर्वमान्य सत्य बताते। 100 मीटर ऊंचाई वाली परिभाषा तो केवल खनन उद्योगों की बनाई परिभाषा है। यह परिभाषा किसी भू वैज्ञानिक, पर्यावरण, प्रकृति, संस्कृत , भू – संस्कृति को समझने वाला नहीं स्वीकारता है।
भारत सरकार व चारों राज्यों (गुजरात, राजस्थान हरियाणा, दिल्ली)की सरकार को अरावली की परिभाषा पर पुनर्विचार करना चाहिए।अन्यथा सरकारों की बड़ी बदनामी होगी। परिभाषा का यह विवाद उच्चतम न्यायालय के सिर पर नहीं डालना चाहिए । उच्चतम न्यायालय तो हमारे लोकतंत्र का सर्वोपरि अंग माना जाता है; यह तो सरकार से भी ऊपर है। लेकिन न्यायपालिका आजकल जो भी न्याय करती है वे ज्यादातर एकतरफा समझौता जैसा दिखाई देता है। इसलिए आरवाली की परिभाषा वाला समझौता अरावली का न्याय नहीं है और अब हमें यह स्वीकार भी नहीं है क्योंकि इसमें अरावली पर्वतमाला के पक्ष को ठीक से स्थान नहीं मिला। इसलिए इस निर्णय ने भारत की संस्कृति -प्रकृति के अनुरूप अरावली पर्वतमाला को न्याय नहीं मिला।
हम हमारी सम्मनीय न्यायपालिका के सर्वोच्च न्यायालय को अपने इस निर्णय पर पुनर्विचार करने की प्रार्थना करते है। अरावली भारत की प्राचीनतम विरासत है। इसे भारतीय संस्कृति और प्रकृति योग का उच्चतम उदाहरण मानकर अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें। वही से भारतीय विरासत अरावली को बचाने की पहल होगी।
Radio_Prabhat
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