डा. उत्कर्ष सिन्हा
संविधान दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी ने देशवासियों को बधाई दी है और संविधान की महत्ता पर जोर दिया है। हालांकि, बीते वर्षों में जब से भाजपा सरकार सत्ता में आई है, हिंदू राष्ट्र बनाने की मांग और विचारधाराएं तेज हुई हैं, जिससे देश में धर्मनिरपेक्षता को लेकर विवाद गहरा गया है। इस स्थिति ने भारत को दो प्रमुख विचारों में विभाजित कर दिया है।
संविधान दिवस पर प्रतिक्रियाएँ
26 नवंबर 1949 को भारत के संविधान को मंजूरी मिली थी और यह संविधान भारत के लोकतंत्र की रीढ़ है। प्रधानमंत्री मोदी ने संविधान को मजबूत लोकतंत्र की नींव बताया है, तो राहुल गांधी ने संविधान की रक्षा और उसके मूल सिद्धांतों पर कायम रहने की बात कही है। दोनों नेताओं ने संविधान के प्रति सम्मान और रक्षा का आह्वान किया है, लेकिन उनकी विचारधाराओं में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है। मोदी सरकार ने आर्थिक विकास और राष्ट्र निर्माण पर जोर देते हुए संविधान को बदलाव के संदर्भ में आधुनिक जरूरतों से जोड़ने की बात कही है, जबकि विपक्षी दल संविधान के मौलिक मूल्य, जैसे धर्मनिरपेक्षता और समानता पर खरा उतरने की अपील कर रहे हैं.
हिंदू राष्ट्र की मांग और भाजपा की सोच
भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता विश्व में अद्वितीय है, जहां अनेक धर्म, भाषा, संस्कृतियाँ, परंपराएँ एक साथ पल्लवित हुई हैं। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी जैसे विभिन्न धर्मों के अनुयायी इस भूमि पर सदियों से सह-अस्तित्व की जीवंत मिसाल कायम करते आए हैं। यह विविधता सामाजिक ताने-बाने को समृद्ध बनाती है और राष्ट्रीय पहचान को गहनता प्रदान करती है। भारत की संस्कृति में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और सहिष्णुता मूल तत्व हैं, जो बहुसांस्कृतिक और बहुधर्मी सह-अस्तित्व की नींव मानी जाती है.

हालांकि, वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में यह सांस्कृतिक विविधता एक गहरे तनाव में है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा ने विशेषकर मुसलमानों के प्रति एक जटिल और विवादास्पद रवैया अपनाया है। जहां संघ मौखिक तौर पर मुसलमानों को भारत के हिस्से के रूप में स्वीकार करता है और संवाद के प्रयास करता दिखता है, वहीं उसकी विचारधारा में मुस्लिम समुदाय को लेकर पुरानी संशयपूर्ण और नकारात्मक धारणाएं भी विद्यमान हैं।
आरएसएस के इतिहास में मुसलमानों को राष्ट्रवाद के संदर्भ में संदेह की नजर से देखने का प्रचलन रहा है, जो संघ की हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना में एक व्यवधान माना जाता है। इस कारण मुसलमानों के प्रति आरएसएस की सोच दिलचस्प और विवादास्पद दोनों है, जो राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर व्यापक विभाजन का विषय बनी हुई है.
बीते दस वर्षों में कई अवसरों पर भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों द्वारा भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग उठाई गई है। यह मांग खासकर कुछ धार्मिक और राजनीतिक नेताओं द्वारा जोर शोर से की जाती रही है। उनका तर्क है कि भारत को इस्लामिक कट्टरता से बचाने के लिए हिंदू राष्ट्र बनना जरूरी है। इसके अलावा, हिंदू राष्ट्र की अवधारणा हिन्दुत्व विचारधारा से आती है जो देश की संस्कृति और पहचान को हिंदू धर्म के आधार पर स्थापित करना चाहती है। हालांकि यह आंदोलन आधिकारिक सरकार की नीति नहीं है, पर राजनीतिक पटल पर इसे समर्थन मिला है, जिससे देश में धार्मिक और राजनैतिक ध्रुवीकरण बढ़ा है.
धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियाँ
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को एक महत्वपूर्ण आधार मानता है, जिसमें राज्य किसी भी धर्म के पक्ष में नहीं होता और सभी धर्मों के लिए समान अधिकार सुनिश्चित करता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह स्पष्ट हो गया है कि राज्य और धर्म के बीच की दीवार कम होती जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में धर्म और राजनीति का एकीकरण दर्शाता है कि राज्य धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों से हट रहा है। इस बदलाव ने धार्मिक आधार पर वैमनस्य बढ़ाया है और देश के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित किया है। धर्मनिरपेक्षता की इस चुनौती के कारण देश के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक मतभेद बढ़े हैं और राजनीतिकरण तीव्र हुआ है.
देश में दो मत और विचारधारा का विभाजन
भाजपा और उसके समर्थक हिंदू राष्ट्र की मांग करते हैं, जबकि विपक्षी दल और अनेक नागरिक धर्मनिरपेक्षता को भारत की एकता व विविधता की नींव मानते हैं। यह द्वैधता राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर स्पष्ट दिखाई देती है। इससे न सिर्फ संसद और राजनीतिक मंचों पर बहस होती है बल्कि सामाजिक संवाद और राष्ट्र की एकता पर भी प्रभाव पड़ता है। यह दो विचारधाराएं देश के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं—एक जहां धर्म के आधार पर राष्ट्र की पहचान को मजबूत करना है, वहीं दूसरी में संविधान की समानता, न्याय और विविधता को बनाए रखना है। यह द्विविधा भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती है जो समय-समय पर उठा है और सामने भी रहेगा.
इस परिप्रेक्ष्य में, जब भारत एक ओर अपने संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता और समानता के आदर्शों को बनाए रखने की चुनौती से जूझ रहा है, यह द्विविधा भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर जोखिम उत्पन्न करती है क्योंकि यह न केवल सामाजिक अखंडता को प्रभावित करती है, बल्कि राष्ट्रीय एकता के भाव को भी कमजोर करती है। स्पष्ट होता है कि आज देश के सामने दो विचारधाराओं की टक्कर है: एक जो भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है और दूसरी जो संविधान के धर्मनिरपेक्ष और समान समाज के आदर्शों को बनाए रखना चाहता है। इन दोनों विचारों के टकराव में समाज और राजनीति का भविष्य तय हो रहा है। इसलिए भारत के नागरिकों और नेताओं दोनों के लिए जरूरी है कि वे संविधान के बुनियादी सिद्धांतों, जैसे समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे को समझें और उनका पालन करें, जिससे देश की अखंडता और लोकतंत्र मजबूत रह सके।
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