डा. उत्कर्ष सिन्हा
भारतीय लोकतंत्र की नींव संवैधानिक संस्थाओं पर टिकी है। ये संस्थाएं—चाहे वह चुनाव आयोग हो, न्यायपालिका हो या कार्यपालिका—निष्पक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही के स्तंभ हैं। लेकिन हाल के वर्षों में इन संस्थाओं पर सवाल उठाने का सिलसिला तेज हो गया है। विपक्षी दलों की ओर से ‘वोट चोरी’ जैसे आरोपों ने इस बहस को और भड़का दिया है। इसी संदर्भ में, 19 नवंबर 2025 को एक खुला पत्र सामने आया, जिसमें 272 पूर्व न्यायाधीशों, नौकरशाहों, राजदूतों और सैन्य अधिकारियों ने लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधा।
यह पत्र, जिसका शीर्षक है “राष्ट्रीय संवैधानिक प्राधिकारों पर हमला” (Assault on National Constitutional Authorities), राहुल गांधी के चुनाव आयोग पर लगाए गए आरोपों को “विषैली बयानबाजी” (venomous rhetoric) और “असत्यापित आरोपों” (unsubstantiated accusations) का परिणाम बताता है।
यह पत्र कोई साधारण दस्तावेज नहीं है। इसमें 16 सेवानिवृत्त न्यायाधीश, 123 पूर्व नौकरशाह (जिनमें 14 पूर्व राजदूत शामिल हैं), और 133 पूर्व सशस्त्र बल अधिकारी हस्ताक्षरकर्ता हैं। प्रमुख नामों में पूर्व जम्मू-कश्मीर डीजीपी एसपी वैद, पूर्व रॉ प्रमुख संजीव त्रिपाठी, पूर्व आईएफएस अधिकारी लक्ष्मी पुरी, पूर्व दिल्ली हाईकोर्ट जज एसएन धिंगरा, पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज आदर्श कुमार गोयल, पूर्व एनआईए निदेशक वाईसी मोदी और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव दीपक सिंघल जैसे दिग्गज शामिल हैं। पत्र में राहुल गांधी के “वोट चोरी” अभियान को “बार-बार चुनावी असफलता से उपजी नाकामी की क्रोध” (impotent rage born out of repeated electoral failure) कहा गया है।
लेकिन अब, इस पत्र के जारी होने के बाद, इन 272 हस्ताक्षरकर्ताओं का अतीत सामने आने लगा है। सवाल उठ रहे हैं: क्या ये लोग स्वेच्छा से बोल रहे हैं, या उन पर कोई दबाव था? और क्या यह घटना नैतिकता को अप्रासंगिक साबित कर रही है?
सबसे पहले, इस पत्र के पीछे का परिदृश्य समझना जरूरी है। 2025 के बिहार विधानसभा चुनावों में एनडीए की भारी जीत के बाद कांग्रेस ने ‘वोट चोरी’ का आरोप लगाया। राहुल गांधी ने तीन प्रेस कॉन्फ्रेंस कीं, जहां उन्होंने चुनाव आयोग को “बीजेपी की बी-टीम” कहा और दावा किया कि उनके पास “100 प्रतिशत प्रमाण” है जो “परमाणु बम” की तरह चुनाव आयोग को बेनकाब कर देगा। उन्होंने कहा, “मैं चुनाव आयोग के अधिकारियों को ऊपर से नीचे तक नहीं छोड़ूंगा” और आयोग के कार्यों को “राजद्रोह” (treason) तक करार दिया। कांग्रेस ने स्पष्ट मतदाता सूची (SIR) प्रक्रिया पर सवाल उठाए, दावा किया कि 25 लाख वोटों की चोरी हरियाणा जैसे राज्यों में हुई है।
चुनाव आयोग ने इन आरोपों को “असत्यापित” बताते हुए राहुल गांधी से हलफनामा और विशिष्ट नाम मांगे। लेकिन कोई औपचारिक शिकायत दर्ज नहीं हुई। इसी बीच, यह पत्र आया।
हस्ताक्षरकर्ताओं ने लिखा कि राहुल गांधी ने पहले सेना, न्यायपालिका, संसद और अब चुनाव आयोग पर हमला किया है। उन्होंने कहा, “ये आरोप संस्थागत संकट का भ्रम पैदा करने की कोशिश हैं, जबकि आयोग ने अपनी विधि सार्वजनिक की है और अदालती निगरानी में सत्यापन किया है।”
पत्र में कांग्रेस को “नीति विकल्पों की कमी” के लिए जिम्मेदार ठहराया गया और कहा गया कि विपक्ष चुनावी हार को संस्थाओं पर दोष देकर छिपा रहा है।
यह पत्र भारतीय सिविल सोसाइटी की एक परंपरा का हिस्सा लगता है। 2020 में भी पूर्व अधिकारियों ने CAA-NRC के खिलाफ पत्र लिखे थे, लेकिन यहां टोन उलटा है। यह पत्र बीजेपी समर्थक संगठनों जैसे ‘कॉन्स्टिट्यूशनल कॉन्क्लेव’ से जुड़ा बताया जा रहा है, जो संस्थाओं की रक्षा का दावा करता है।
हस्ताक्षरकर्ताओं का रहा है विवादास्पद इतिहास
पत्र जारी होने के तुरंत बाद, सोशल मीडिया और स्वतंत्र पत्रकारों ने इन 272 लोगों का अतीत खंगालना शुरू कर दिया। यह खुलासा चौंकाने वाला था। कई हस्ताक्षरकर्ताओं का बीजेपी और आरएसएस से गहरा जुड़ाव सामने आया। उदाहरण के लिए:संजीव त्रिपाठी: पूर्व रॉ प्रमुख, जो अब बीजेपी से जुड़े हुए हैं। वे 2014 में मोदी सरकार के दौरान सक्रिय थे और खुफिया एजेंसियों में बीजेपी की नीतियों का समर्थन करते रहे हैं। लक्ष्मी पुरी, पूर्व आईएफएस अधिकारी और केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी की पत्नी। उनका परिवार मोदी सरकार के करीबी माना जाता है। एसएन धिंगरा, पूर्व दिल्ली हाईकोर्ट जज, जिन्होंने कई फैसलों में बीजेपी के पक्ष में रुख अपनाया, आदर्श कुमार गोयल, पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज और एनजीटी चेयरमैन, जो पर्यावरण मामलों में मोदी सरकार के अनुकूल रहे, वाईसी मोदी, पूर्व एनआईए निदेशक, जिनकी नियुक्ति मोदी सरकार ने की और वे आतंकवाद विरोधी नीतियों में केंद्रीय थे, दीपक सिंघल, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव, योगी आदित्यनाथ सरकार के दौरान सक्रिय, जहां बीजेपी का शासन है।
सोशल मीडिया पर #272SignatoriesPast ट्रेंड हुआ, जहां यूजर्स ने दावा किया कि 70% से अधिक हस्ताक्षरकर्ता बीजेपी से जुड़े हैं। पूर्व जज शुभ्रो कमल मुखर्जी, जो कर्नाटक के पूर्व चीफ जस्टिस रहे, पर भी सवाल उठे कि वे रिटायरमेंट के बाद बीजेपी के कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। पूर्व डीजीपी एसपी वैद, जो जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने का समर्थन करते रहे, को भी निशाना बनाया गया।
अब, भ्रष्टाचार के आरोपों का एक नया चेहरा सामने आ रहा है। सोशल मीडिया पर #272SignatoriesPast ट्रेंड हुआ, जहां यूजर्स ने दावा किया कि 70% से अधिक हस्ताक्षरकर्ता बीजेपी से जुड़े हैं। पूर्व जज शुभ्रो कमल मुखर्जी, जो कर्नाटक के पूर्व चीफ जस्टिस रहे, पर भी सवाल उठे कि वे रिटायरमेंट के बाद बीजेपी के कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। पूर्व डीजीपी एसपी वैद, जो जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने का समर्थन करते रहे, को भी निशाना बनाया गया।
कुछ और नाम जो अब चर्चा में हैं, वे भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं। उदाहरणस्वरूप: हेमंत गुप्ता: पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज और पत्र के हस्ताक्षरकर्ता, जिनके खिलाफ 2023 में दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर हुई थी, जिसमें उनके घर से 5 करोड़ रुपये कैश और 2 किलो सोना बरामद होने का दावा किया गया। यह मामला आयकर विभाग की छापेमारी से जुड़ा था, जहां आरोप था कि उन्होंने रिटायरमेंट के बाद सलाहकार भूमिकाओं से अवैध कमाई की। हालांकि, गुप्ता ने आरोपों को राजनीतिक साजिश बताया, लेकिन जांच चल रही है। राजीव लोचन: पूर्व हाईकोर्ट जज, जिन पर 2022 में सीबीआई ने भ्रष्टाचार का केस दर्ज किया था। लोचन के आवास से 3 करोड़ कैश जब्त हुआ था, जो कथित तौर पर जमीन घोटाले से जुड़ा था। वे बीजेपी शासित राज्य के एक मंत्रालय को सलाह देने के लिए नियुक्त थे, और विपक्ष ने इसे “सत्ता की रक्षा में भ्रष्टाचार” का उदाहरण बताया। विवेक शर्मा: पूर्व गुजरात हाईकोर्ट जज और हस्ताक्षरकर्ता, जिनके खिलाफ 2024 में ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग का केस खोला। उनके घर से 1.5 किलो सोना और 2 करोड़ रुपये बरामद हुए, जो कथित रूप से कॉर्पोरेट डोनेशन से जुड़े थे। शर्मा को बीजेपी के एक बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में मध्यस्थता करने का आरोप लगा। नवीन कुमार: पूर्व आईएएस अधिकारी, जिन पर 2021 में बिहार में कैश-फॉर-फेवर स्कैंडल में नाम आया। उनके पटना स्थित फार्महाउस से 8 करोड़ कैश और 10 किलो सोना जब्त किया गया था। कुमार योगी सरकार के दौरान उत्तर प्रदेश में ट्रांसफर हुए थे और बीजेपी के करीबी माने जाते हैं।
ये नाम भी पत्र की विश्वसनीयता पर और सवाल खड़े कर रहे हैं। क्या ये पूर्व अधिकारी वाकई “सिविल सोसाइटी” के प्रतिनिधि हैं, या सत्ता के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं, जबकि खुद भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे हैं? विपक्ष ने इसे “संगठित हमला” बताया, जबकि बीजेपी ने इसे “लोकतंत्र की रक्षा” कहा।
एक ट्वीट में कहा गया, “ये 272 लोग स्वतंत्र आवाज नहीं, बल्कि सत्ता की एको चैंबर हैं, जहां कैश और सोना की बदौलत हस्ताक्षर इकट्ठे होते हैं।
दबाव का सवाल: क्या पूर्व अधिकारी स्वतंत्र हैं?
अब मूल प्रश्न: इन 272 लोगों पर क्या कोई दबाव था? भारत में पूर्व अधिकारियों की भूमिका हमेशा जटिल रही है। सेवानिवृत्ति के बाद भी, पेंशन, सुरक्षा और सामाजिक सम्मान सत्ता पर निर्भर होते हैं। मोदी सरकार के दशक में कई पूर्व नौकरशाहों को राज्यसभा सदस्यता, गवर्नर पद या सलाहकार भूमिकाएं मिलीं—जैसे संजीव त्रिपाठी को। क्या यह पत्र ऐसी ही “लॉबी” का हिस्सा है?
दबाव के संकेत स्पष्ट हैं। पत्र जारी होने से ठीक पहले, बिहार चुनावों में कांग्रेस की हार हुई, और राहुल के आरोप तेज हुए। बीजेपी ने इसे “विपक्ष की साजिश” बताकर काउंटर-अटैक किया। पूर्व अधिकारियों के समूह पहले भी CAA (2019) या किसान आंदोलन (2020) पर सत्ता के पक्ष में पत्र लिख चुके हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से कई हस्ताक्षरकर्ता “फाउंडेशन फॉर रिस्टोरिंग इंडिया” जैसे संगठनों से जुड़े हैं, जो आरएसएस से प्रेरित बताए जाते हैं।
दूसरी ओर, कोई ठोस प्रमाण नहीं कि सीधा सरकारी दबाव था। लेकिन अप्रत्यक्ष दबाव अस्वीकार्य नहीं है । सेवानिवृत्ति के बाद, पूर्व जजों को कोलेजियम सिस्टम के बाहर पद मिलते हैं; नौकरशाहों को पोस्ट-रिटायरमेंट जॉब्स। 2023 में, एक पूर्व अधिकारी ने स्वीकार किया था कि “सत्ता की नजर हमेशा बनी रहती है।” यदि ये 272 लोग स्वेच्छा से लिख रहे हैं, तो ठीक; लेकिन यदि दबाव है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरा है। विपक्ष का तर्क है कि यह “ट्रोल आर्मी” का विस्तार है, जहां पूर्व अधिकारी सत्ता के प्रचारक बन जाते हैं।
क्या नैतिकता अप्रासंगिक हो चुकी है?
अब सबसे गहरा सवाल: क्या नैतिकता अप्रासंगिक हो चुकी है? भारतीय लोकतंत्र में नैतिकता कभी औपचारिक नियम नहीं रही, लेकिन यह अपेक्षित मूल्य था। पूर्व अधिकारी निष्पक्ष रहते थे, लेकिन अब ध्रुवीकरण ने सब बदल दिया। राहुल गांधी अपने आरोप के प्रमाण देते हैं, और 272 लोगों का पत्र भी, यदि पक्षपाती अतीत पर आधारित, तो नैतिकता का उल्लंघन है।
नैतिकता की अप्रासंगिकता के संकेत हर तरफ हैं। राजनीति में, “वोट चोरी” जैसे शब्द भावनात्मक हैं, लेकिन संस्थाओं के प्रति विश्वास कम करते हैं। पूर्व अधिकारियों के लिए, सेवानिवृत्ति के बाद निष्पक्षता की अपेक्षा होती है, लेकिन पद और लाभ के लालच में वे सत्ता के पाले में चले जाते हैं। 2014 से, 50 से अधिक पूर्व नौकरशाह बीजेपी से जुड़े। यह “नैतिक क्षय” (moral decay) है, जहां सिद्धांत राजनीतिक लाभ से हार जाते हैं।
फिर भी, नैतिकता पूरी तरह अप्रासंगिक नहीं। पत्र ने बहस छेड़ी है—क्या पूर्व अधिकारी बोलें या चुप रहें? राहुल गांधी को और प्रमाण देना चाहिए या चुनाव आयोग को इन आरोपों को टालने की बजाए उसके निराधार होने के सबूत देने चाहिए ? नैतिक जिम्मेदारी दोनों पक्षों को लेनी होगी। अन्यथा, लोकतंत्र सिर्फ संस्थाओं का खेल बन जाएगा, जहां नैतिकता सिर्फ किताबों में रहेगी।
बहस की जरूरत, न कि विभाजन की
यह परिदृश्य भारतीय लोकतंत्र का आईना है। 272 पूर्व अधिकारियों का पत्र, उनका विवादास्पद अतीत, दबाव के सवाल और नैतिकता का संकट—सब मिलकर एक चेतावनी हैं। दबाव था या नहीं, यह चर्चा का विषय है। लेकिन नैतिकता अब शायद अप्रासंगिक बन चुकी है ।
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