डा. उत्कर्ष सिन्हा
“सफलता के लिए पचास तर्क होते हैं, लेकिन आलोचना के लिए हजार”। यह पुरानी कहावत बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजों पर चल रही बहसों को पूरी तरह चरितार्थ करती है। अप्रत्याशित परिणामों के बाद विश्लेषणों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा—हर कोई NDA की जीत की रणनीतियों, विपक्ष की करारी हार की वजहों और चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता पर अपनी राय रख रहा है।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के अप्रत्याशित नतीजों के बाद विश्लेषणों का दौर जारी है। फिलहाल चल रही बहसों के केंद्र में विपक्ष की विफलताएँ और चुनाव आयोग की पारदर्शिता के प्रति सवाल, परिणामों और SIR प्रक्रिया की भूमिका शामिल हैं।
बिहार चुनाव में विपक्ष खासकर महागठबंधन (राजद, कांग्रेस, वाम दल आदि) बुरी तरह हुयी हार के पीछे कई प्रमुख कारण बताये जा रहे हैं. जिनमे तेजस्वी यादव और कांग्रेस के नेतृत्व में स्पष्टता और स्थायी संगठन की कमी बार-बार सामने आना , चुनाव पूर्व सीट बंटवारे से लेकर जमीनी रणनीति, प्रचार अभियान और मुद्दों की प्रस्तुति में विपक्ष कमजोर रहना, महागठबंधन द्वारा सरकार के खिलाफ ठोस विकल्प या भरोसेमंद नीति प्रस्तुत करने में विफल रहना, और NDA की महिलाओं को साधने वाली योजनाओं, सीधी आर्थिक मदद और ‘लखपति दीदी’ कार्यक्रम का असर वो प्रमुख कारण रहे जिसके वजह से राजद के केवल 25 और कांग्रेस के मात्र 6 विधायक चुनाव जीत सके, और महागठबंधन पूरी तरह बिखर गया।

साथ ही ये नतीजे इस बात का भी संकेत है कि बीजेपी और जेडीयू के गठबंधन ने समाज के अलग-अलग वर्गों को बेहतर तरीके से अपने पाले में लाने में सफलता पाई। विपक्ष न अपने वोट-बैंक बचा सका, न ही किसी नए वर्ग को आकर्षित कर सका.
वाकई, अगर नतीजो को देखे तो ये कहा जाना उचित ही है कि बिहार में न तो जाति का समीकरण चला , न ही निर्माण कार्यों में होने वाले भ्रष्टाचार को जगह मिली और न ही पलायन, महगाई और बेरोजगारी के प्रश्न कोई बड़ा मुद्दा अब समाज में रह गए हैं, इसके उलट चुनावी वक्त में बांटी गयी रेवाड़ी ज्यादा प्रभावी है और आम जनता उसमे खुश है.
बीते कई चुनावो से हम देख रहे हैं कि विश्लेषक जिन मुद्दों को जरुरी मानते रहे वो चुनावी नतीजो में निष्प्रभावी दिखाई देने लगे हैं. नोटबंदी के कारण हुयी समस्या, बंद होते छोटे कारोबार, आय में कमी, महंगाई और रोजगार के अवसर अब अप्रासंगिक हो चुके हैं. कम से कम चुनावो के नतीजे तो यही इशारा कर रहे हैं.
लेकिन तस्वीर का एक दूसरा रुख भी है जो समय समय पर आरोपों और सबूतों के साथ आता तो है लेकिन एक मजबूत तंत्र अपने आक्रमण से उसे उसी तरह ढकता है जैसे इजराईल का आयरन डोम मिसाईलों को. उच्चवर्गीय समाज और मीडिया का एक हिस्सा इस काम को बिना देरी किये अपने हाँथ में ले लेता है , और फिर जनसामान्य के बीच वह सबूत और मुद्दे भी अपना असर नहीं बना पाते.
मोदी शाह के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी ने भारतीय चुनावी राजनीती को बेशक एक नया माडल दे दिया है.
लेकिन जीत के इस शोर में भी कुछ सवाल हर चुनावो के बाद उठ ही जाते हैं. दुर्भाग्यपूर्ण रूप से भारत का चुनाव आयोग इस वक्त शायद सबसे विश्वशहीन संस्न्था के रूप में जेरे बहस है.
चुनाव आयोग, वोटों का अंतर और SIR के कारण उठते संदेह
चुनाव के बाद जितना चर्चा विपक्ष की कमजोरी की हुई, उतनी ही चर्चा चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता, निष्पक्षता और SIR (Special Intensive Revision) के तहत वोटर लिस्ट की शुद्धिकरण की प्रक्रिया की भी हुई। आयोग ने बिहार में SIR प्रक्रिया के तहत वोटर लिस्ट का गहरा पुनरीक्षण किया, जिसमें मृतक, पलायनशील और फर्जी मतदाताओं के नाम हटाए जाने थे । इस दौरान लगभग 65 लाख नाम काटे गए, बताया गया कि इनमें 22 लाख मृतक, 36 लाख पलायनशील, और 7 लाख फर्जी मतदाता थे।
अंतिम सूची के प्रकाशन के बाद मतदाताओं की संख्या और चुनावो के बाद आयोग द्वारा दिए गए वोटर संख्या में लगभग 3.75 लाख की बढ़ोतरी हुई, जिसे लेकर विरोधियों ने सवाल उठाए। हालाकि चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया कि यह बढ़ोतरी वैध आवेदनों के जोड़ने और अंतिम नामांकन के बाद आने वाले नए नामों के लिए थी। लेकिन इस जवाब पर भी ढेरो सवाल खड़े हो गए.
चुनाव आयोग ने कई सीटो पर वोटरों के नाम काटे। कई सीटों पर 20,000 से 60,000 तक वोट काटे गए—जिनमें मोतिहारी (54,013), गोपालगंज (66,270), बालरामपुर (29,254), महनिया (18,913), सुपौल (31,259) शामिल हैं। नतीजे आने के बाद विश्लेषको ने देखा कि कई सीटों पर जीत-हार का अंतर मात्र हजार या सैकड़ों में रहा, लेकिन कटे वोटों की संख्या कई गुना ज्यादा। उदाहरणस्वरूप—बालरामपुर में 389 वोट से जीत, 29,254 वोट कटे; महनिया (161 का मार्जिन, 18,913 वोट कटे); सुपौल (456 का मार्जिन, 31,259 वोट कटे)।
ऐसी 128 सीटो पर इस तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं. इससे जनता के एक बड़े हिस्से में यह सवाल उठा है कि अगर कटे गए वोट किसी एक वर्ग के होते, जैसे दलित, अल्पसंख्यक या विपक्ष समर्थक, तो परिणाम उलटे हो सकते थे। आयोग का दावा है कि वोटों की कटौती शुद्धिकरण प्रक्रिया है, किसी भी दल के पक्ष में नहीं। लेकिन इतनी भारी संख्या—मार्जिन से कई गुना—पर ही चुनावी जीत-हार टिकी हो तो निष्पक्षता पर संदेह पैदा हो ही जाता है।
SIR के चलते कई सीटों पर वोट सूची में भ्रष्टाचार, पक्षपात, या टेक्निकल गलतियों की आशंका से भी सवाल उठे। स्थानीय जनता और राजनैतिक दलों ने शिकायतें दर्ज कराईं कि मतदाता सूची की प्रक्रिया स्पष्ट नहीं थी, और कई लोगों के नाम बिना सूचना ही काट दिए गए।
इतनी कम मार्जिन वाली सीटों पर वोटर सूची की शुद्धिकरण प्रक्रिया से यदि वोटों का ध्रुवीकरण या पक्षपात हुआ हो तो चुनावी परिणामों पर संदेह होना स्वाभाविक है। विपक्ष ने इसे चुनावी प्रक्रिया के साथ छेड़छाड़ और लोकतंत्र पर खतरा बताया, वही आयोग ने इसे पारदर्शी और संविधान सम्मत बताया।
बिहार चुनाव 2025 में एक ओर जहां विपक्षी दलों की कमजोरियां हार का बड़ा कारण बन गईं, वहीं दूसरी ओर चुनाव आयोग और SIR आधारित मतदाता सूची में हुई कटौतियों ने चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता को लेकर जनमानस में गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
साफ है कि लोकतंत्र को मजबूत रखने के लिए जहां राजनीतिक दलों को संगठन, प्रचार और नीति पर ध्यान देना होगा, वहीं चुनाव आयोग की सभी प्रक्रियाएँ पूर्णतः पारदर्शी, समावेशी और नागरिक सहभागिता के साथ संचालित होनी चाहिए। स्वतंत्र ऑडिट, डाटा सार्वजनिक करने और मतदाता जागरूकता अभियान से ही चुनावी प्रक्रिया पर विश्वास बहाल हो सकता है।
Jubilee Post | जुबिली पोस्ट News & Information Portal
