Thursday - 6 November 2025 - 4:58 PM

क्या जर्जर वामपंथी मोर्चे पर फिर भरोसा करेगा नेपाल का GenZ ?  

डा. उत्कर्ष सिन्हा

नेपाल की राजनीति में एक बार फिर पुराने चेहरों और थके हुए नारों का गठबंधन देखने को मिल रहा है। हालिया राजनीतिक उथल-पुथल और सत्ता के खेल में, जिन नेताओं को एक समय युवाओं की उम्मीद माना जाता था, वे अब अपनी प्रासंगिकता और साख खोते दिख रहे हैं। फिर भी, सत्ता की बागडोर थामने और उसे बनाए रखने की अदम्य इच्छा ने इन “वृद्ध योद्धाओं” को एक बार फिर एकजुट कर दिया है। लेकिन सवाल यह है: क्या नेपाल के युवा, जो बदलाव और नई सोच के हिमायती हैं, इस पुराने वामपंथी मोर्चे पर फिर से भरोसा करेंगे? क्या यह गठबंधन देश को प्रगति के पथ पर ले जा पाएगा, या यह सिर्फ सत्ता की कुर्सी बचाने का एक और असफल प्रयास साबित होगा? और सबसे महत्वपूर्ण, इन पुराने नेताओं की नाकामयाबियों ने कैसे दुर्गा प्रसाईं और बालेन शाह जैसे अप्रत्याशित चेहरों को राजनीतिक मंच पर जगह दी है?

नेपाल ने पिछले कुछ दशकों में राजनीतिक अस्थिरता, माओवादी विद्रोह, राजशाही का अंत और एक नए गणतंत्र के उदय जैसे कई बड़े बदलाव देखे हैं। इन परिवर्तनों के हर मोड़ पर कुछ नाम प्रमुखता से उभरे – पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’, के.पी. शर्मा ओली, माधव कुमार नेपाल और नेत्र बिक्रम चंद ‘विप्लव’ जैसे नेता। एक समय था जब ये नेता अपनी पार्टियों के भीतर और बाहर दोनों जगह एक मजबूत जनाधार रखते थे। प्रचंड ने माओवादी विद्रोह का नेतृत्व किया, जिसने व्यवस्था को हिला दिया। ओली ने राष्ट्रवाद और विकास के सपने बेचे। विप्लव ने एक नई क्रांतिकारी धारा का आह्वान किया, जो मौजूदा व्यवस्था से निराश युवाओं को आकर्षित कर रही थी।

लेकिन आज की स्थिति काफी अलग है। नेपाली युवाओं की आकांक्षाएं बदल गई हैं। वे अब सिर्फ “वाद” और “क्रांति” के नारों से प्रभावित नहीं होते। उन्हें ठोस परिणाम चाहिए: रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन और आर्थिक स्थिरता। दुर्भाग्य से, पिछले कुछ वर्षों में इन पुराने नेताओं के शासनकाल में ये उम्मीदें पूरी नहीं हो पाईं। लगातार सरकारों का गिरना, पार्टी के भीतर की गुटबाजी, और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिए राष्ट्रीय हितों की अनदेखी ने इन नेताओं की विश्वसनीयता को धूमिल किया है।

उदाहरण के लिए, प्रचंड और ओली, जो एक समय माओवादी आंदोलन के जरिए एक नई दिशा देने का दावा करते थे, अब सिर्फ सत्ता के लिए आपस में लड़ने और फिर हाथ मिलाने की रणनीति में लगे रहते हैं। इनकी सरकारें स्थिर शासन देने में विफल रही हैं। एकीकरण और विभाजन का यह खेल जनता को भ्रमित और निराश करता है। युवा पीढ़ी, जो सोशल मीडिया और वैश्विक विचारों से प्रभावित है, ऐसे नेताओं को देखती है जो सिर्फ अपने निजी फायदे के लिए सिद्धांतों को बदलते रहते हैं। उनके लिए, ये नेता अब भविष्य के नहीं, बल्कि अतीत की राजनीति के प्रतीक बन गए हैं।

माधव कुमार नेपाल जैसे नेता, जिन्होंने लंबे समय तक राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई है, भी अपनी पार्टी के भीतर और बाहर संघर्ष कर रहे हैं। वे अक्सर बड़े गठबंधन का हिस्सा बनते हैं, लेकिन उनके व्यक्तिगत प्रभाव में कमी आई है। उनकी पार्टी विभाजन और अंदरूनी कलह से जूझ रही है, जिससे उनकी प्रभावी क्षमता प्रभावित हुई है।

नेत्र बिक्रम चंद ‘विप्लव’ की बात करें तो, एक समय था जब उनके ‘क्रांतिकारी’ तेवरों ने निराश युवाओं को अपनी ओर खींचा था। वे मौजूदा भ्रष्ट व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और एक ‘जनवादी’ सत्ता स्थापित करने की बात करते थे। उनकी पार्टी ने कुछ समय तक भूमिगत रहकर समानांतर सत्ता चलाने का भी प्रयास किया। लेकिन सरकार के साथ शांति समझौते के बाद मुख्यधारा की राजनीति में लौटने के बाद, उनकी पार्टी की चमक फीकी पड़ी है। युवा, जिन्होंने एक कठोर क्रांति की उम्मीद की थी, अब विप्लव को भी “सेटल्ड” होते देख रहे हैं। उनके आंदोलन की गति धीमी पड़ गई है, और उनके संगठन की जमीनी पकड़ भी पहले जैसी मजबूत नहीं रही। कई युवाओं को लगता है कि विप्लव भी अंततः पुराने नेताओं की राह पर चल पड़े हैं, जहां सत्ता की राजनीति ही सर्वोपरि है, और क्रांतिकारी आदर्शों को भुला दिया गया है।

इन्हीं नेताओं की नाकामयाबियों ने पैदा किया वैकल्पिक नेतृत्व का शून्य:

इन स्थापित नेताओं की अक्षमता, अंतर्कलह और जन-आकांक्षाओं को पूरा करने में विफलता ने नेपाली राजनीति में एक बड़ा शून्य पैदा कर दिया है। यह शून्य ही वह उर्वर भूमि साबित हुआ है, जिस पर दुर्गा प्रसाईं जैसे राजशाही समर्थक और बालेन शाह जैसे अमेरिका परस्त नए चेहरों को फलने-फूलने का मौका मिला है।

दुर्गा प्रसाईं, जो पहले क्रांतिकारी के रूप में जाने जाते थे, अब राजशाही की बहाली की मांग के पैरोकार  हैं। उनकी कोशिश है कि मौजूदा गणतंत्रवादी व्यवस्था से निराश जनता, विशेषकर वे लोग जो राजशाही के समय की स्थिरता और व्यवस्था को याद करते हैं, उन्हें एक विकल्प के रूप में देख सके । यह एक प्रतिगामी कदम लग सकता है, लेकिन यह इस बात का प्रमाण है कि जब मुख्यधारा के नेता अपनी साख खो देते हैं, तो जनता ऐसे विकल्पों की ओर भी मुड़ सकती है जो पहले हाशिए पर थे या जिन्हें अतीत मान लिया गया था। प्रसाईं की सक्रियता इन पुराने वामपंथी नेताओं की विफलता का सीधा परिणाम है, जिन्होंने गणतंत्र को स्थिर और समृद्ध बनाने का वादा किया था, लेकिन उसे पूरा नहीं कर पाए।

दूसरी ओर, बालेन शाह, काठमांडू के मेयर, एक पूरी तरह से नए और स्वतंत्र राजनीतिक परिदृश्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक इंजीनियर और रैपर के रूप में उनकी पृष्ठभूमि उन्हें पारंपरिक नेताओं से बिल्कुल अलग बनाती है। उन्होंने किसी बड़ी पार्टी का समर्थन लिए बिना, सोशल मीडिया और युवाओं के समर्थन से चुनाव जीता। बालेन शाह को “अमेरिका के प्रभाव” वाला नेता बताया जाता है बालेन का उदय भी नेपाली युवाओं की उस गहरी निराशा का प्रतीक है, जो पुराने वादे-इरादों से थक चुके हैं और एक नई, तकनीक-प्रेमी और परिणाम-उन्मुख नेतृत्व चाहते हैं।

ऐसे में, जब ये सभी “वृद्ध योद्धा” फिर से सत्ता के लिए एकजुट हुए हैं, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वे फिर से प्रासंगिक होंगे? क्या नेपाल उन पर फिर से भरोसा करेगा?

संभवतः, अल्पकाल के लिए सत्ता पर काबिज होने में ये सफल हो सकते हैं। नेपाल की संसदीय राजनीति की प्रकृति ही ऐसी है कि कमजोर जनादेश के चलते गठबंधन अपरिहार्य हो जाते हैं, और सबसे अनुभवी या सबसे शक्तिशाली दल ही सत्ता में आता है। लेकिन दीर्घकालिक प्रासंगिकता के लिए उन्हें अपनी कार्यप्रणाली, विचारों और सबसे महत्वपूर्ण, अपनी छवि में मौलिक बदलाव लाना होगा।

उन्हें यह समझना होगा कि युवा पीढ़ी अब खाली नारों से नहीं बहकती। उन्हें यह साबित करना होगा कि वे सिर्फ सत्ता के भूखे नहीं, बल्कि देश के विकास और जनता के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हैं। उन्हें भ्रष्टाचार पर लगाम लगानी होगी, सुशासन स्थापित करना होगा, और युवाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे। उन्हें आंतरिक गुटबाजी को छोड़कर एक मजबूत और स्थिर सरकार देनी होगी।

अगर वे ऐसा करने में विफल रहते हैं, तो यह नया गठबंधन भी पिछले गठबंधनों की तरह ही ध्वस्त हो जाएगा। नेपाल के युवा अब विकल्पों की तलाश में हैं और उन्हें मिल भी रहे हैं। अगर ये पुराने नेता समय रहते खुद को नहीं बदलते, तो वे नेपाल की राजनीतिक स्मृति में सिर्फ अतीत के अवशेष बनकर रह जाएंगे, जिन पर युवा पीढ़ी शायद ही कभी फिर भरोसा करेगी। यह समय उन सभी नेताओं के लिए एक चेतावनी है जो सोचते हैं कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है और उन्हें बार-बार मूर्ख बनाया जा सकता है। नेपाल बदल रहा है, और उसके युवा अब एक नई सुबह का इंतजार कर रहे हैं, जो पुराने दागों से मुक्त हो, और नए, सक्षम नेतृत्व के साथ आगे बढ़े।

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