उबैद उल्लाह नासिर
शैतान दो मिनट में रहमान बन गए,
जितने नमक हराम थे कप्तान बन गए
इंक़िलाब के शायर कहे जाने वाले जोश मलीहाबादी के इस शेर की पूरी व्याख्या इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण और पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा जारी एक पोस्टर से हो गई। इस पोस्टर में सावरकर को महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और शहीद-ए-आजम भगत सिंह से भी ऊपर दिखाया गया।
सावरकर की असलियत क्या है, यह देश का बच्चा-बच्चा जानता है। वे भी जानते हैं जो आज सावरकर के भक्त बने हुए हैं, लेकिन उनकी ब्रेनवॉशिंग ऐसी कर दी गई है कि वे सच जानते हुए भी उसे मानने को तैयार नहीं हैं। सावरकर का जो भी इतिहास है उसके सारे दस्तावेज़ मौजूद हैं। इस पर शेक्सपियर का मशहूर कथन बिल्कुल सही बैठता है—
“कुछ लोग महान पैदा होते हैं, कुछ महानता अर्जित कर लेते हैं और कुछ पर महानता थोपी जाती है।”
वास्तव में सावरकर इसी तीसरे वर्ग में आते हैं।
सावरकर ने 9-9 माफीनामे लिखकर और अंग्रेज़ों को अपनी वफ़ादारी का भरोसा दिलाकर काला पानी जेल से रिहाई हासिल की थी। रिहाई के बाद वादे के अनुसार उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में फूट डालने, हिंदू और मुसलमानों के बीच अविश्वास बोने का काम किया। उन्होंने “मदर लैंड” और “फादर लैंड” का मुद्दा उठाकर ईसाई और मुसलमानों को विदेशी धर्म का अनुयायी बताया और उनके राष्ट्रप्रेम पर शंका जताई। यही विचार आगे चलकर जिन्ना की मुस्लिम लीग ने उठाया और इसका अंजाम देश के बंटवारे के रूप में सामने आया।
अंग्रेज़ सरकार उनकी इस “सेवा” के लिए उन्हें 60 रुपये मासिक पेंशन देती थी, जो आज की मुद्रा में लगभग दो लाख रुपये होती है। अब ऐसे व्यक्ति को गांधी, नेताजी और भगत सिंह से ऊपर दिखाना समय की विडंबना नहीं तो और क्या है।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में आरएसएस की भी जमकर प्रशंसा की, जो उन स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों का अपमान है, जिन्होंने हंसते-हंसते जान कुर्बान कर दी और वर्षों जेल में यातनाएँ सही थीं। दुनिया जानती है कि आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे संगठनों का स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं था, बल्कि उन्होंने उसका खुला विरोध किया।
गुरु गोलवलकर का कथन अक्सर सोशल मीडिया पर वायरल होता है:
- “हिंदुओं को इस आंदोलन से दूर रहकर अपनी शक्ति मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों से लड़ने के लिए सुरक्षित रखनी चाहिए।”
- “मैं सारी ज़िंदगी अंग्रेज़ों की गुलामी करने को तैयार हूँ मगर वह आज़ादी स्वीकार नहीं जो दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों को बराबरी का दर्जा दे।”
हिंदू महासभा के नेता और जनसंघ (जो आगे चलकर बीजेपी बनी) के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का वह पत्र अब भी सरकारी रिकॉर्ड में है जिसमें उन्होंने बंगाल के अंग्रेज़ गवर्नर से “भारत छोड़ो आंदोलन” को सख़्ती से कुचलने का आह्वान किया था।
इतिहास में अनगिनत उदाहरण हैं जब क्रांतिकारियों को संघ और महासभाई नेताओं की मुखबिरी की वजह से फांसी पर चढ़ना पड़ा।
- भगत सिंह के ख़िलाफ़ गवाही पंजाब हिंदू महासभा के नेता शदी लाल और सरदार शोभा सिंह ने दी थी।
- चंद्रशेखर आज़ाद की मुखबिरी महासभाई देवदत्त त्रिपाठी ने की थी, जिसकी वजह से अंग्रेज़ पुलिस ने इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में उन्हें घेर लिया। आज़ाद ने डटकर मुकाबला किया और अंतिम गोली से खुद को शहीद कर दिया, ताकि वे जीवित अंग्रेज़ों के हाथ न लगें।
आज़ादी के बाद भी आरएसएस ने संविधान का विरोध किया। उनका कहना था कि भारत को संविधान की ज़रूरत नहीं है, मनुस्मृति ही उसका संविधान है। तिरंगे का भी उन्होंने विरोध किया और भगवा झंडे को राष्ट्रध्वज बनाने की मांग की। गोलवलकर ने तिरंगे को “अशुभ” बताया, जिस पर सरदार पटेल ने करारा जवाब दिया।
1992 तक नागपुर स्थित संघ मुख्यालय पर भगवा ही फहराया जाता था, तिरंगा नहीं। युवाकांग्रेस कार्यकर्ताओं ने ज़बरन भगवा उतारकर तिरंगा फहराया, जिस पर आरएसएस ने मुक़दमा दर्ज कराया।
इतिहास गवाह है कि संघ और उसके नेताओं ने न केवल गांधीजी की हत्या की साजिश रची बल्कि हर उस विचारधारा का विरोध किया जो बराबरी और धर्मनिरपेक्षता की बात करती थी।
प्रधानमंत्री मोदी का लाल किले से स्वतंत्रता दिवस पर दिया गया भाषण किसी राष्ट्रीय नेता का नहीं, बल्कि एक दल विशेष के कार्यकर्ता का चुनावी भाषण लगा। उन्होंने “घुसपैठियों” का मुद्दा उठाकर कहा कि वे देश की आबादी का संतुलन बिगाड़ रहे हैं। सवाल यह है कि 11 साल से सत्ता में रहने के बाद, 7 साल से अमित शाह गृह मंत्री होने के बावजूद सीमा पर घुसपैठ कैसे हो रही है?
वास्तव में घुसपैठियों की संख्या लाख-डेढ़ लाख से अधिक नहीं हो सकती। इतनी संख्या 150 करोड़ की आबादी वाले देश का संतुलन नहीं बिगाड़ सकती। लेकिन बीजेपी और संघ इस मुद्दे को केवल राजनीतिक लाभ और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए हवा देते हैं।
नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक के भाषणों में हमेशा देश के भविष्य की दृष्टि होती थी। मोदी जी के भाषणों में 11 वर्षों से केवल चुनावी बातें, विपक्ष पर हमले और जनता को निराश करने वाले शब्द रहे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)