नवेद शिकोह
मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं,
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं।
धर्म क्या है मजहब किसे कहते,
हमें ज़्यादा समझ तो थी ही नहीं।
अकबर इलाहाबादी का शहर जिसे अब प्रयागराज नाम से जाना जाता है, यहां की बहुत सारी ख़ूबियां बेमिसाल हैं। सबसे मशहूर है संगम।
संगम मतलब जहां नदियां मिलती हैं। लेकिन प्रयागराज मे नदियां ही नहीं मिलतीं, दिल भी मिलते हैं। अक़ीदे भी मिलते हैं और दो आस्थाओं का संगम भी देखने को मिलता है। अकबर इलाहाबादी अपने एक शेर में कहते हैं-
मजहबी बहस मैंने की ही नहीं,
फ़ालतू अक्ल मुझमें थी ही नहीं।
यानी मजहबी बहस और सियासी तक़रीरें फ़साद पैदा करती हैं। मजहब या धर्म तो कर्मों से ज़ाहिर होता है। अमल से दिखाई देता है।
दो मजहबों के श्रद्धालुओं और अकीदतमंदों का हुजूम जब अपनेपन के संगम में मोहब्बत की डुबकी लगाता है तो ये इंसानियत का ब्रह्म मूहर्त होता है। जन्नत का तसव्वुर होता है।

महाकुंभ की पवित्र, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चकाचौंध में दुर्भाग्यवश उदासी भी शामिल हो गई। बदहवासी जब हवास मे आई तो श्रद्धालुओं की थकान विश्राम की पनाह तलाश कर रही थी।
प्रयागराज की इंसानियत ने थके हुए श्रद्धालुओं के विश्राम के लिए इंसानियत का बिस्तर लगा दिया।
सनातनी श्रद्धालुओं के विश्राम और खान-पान की जरूरतों के लिए मुस्लिम भाइयों ने मस्जिदों, दरगाहों और ईमामबाड़ों के द्वार खोल दिए।
लगा हज और अमृत स्नान गले मिल कर कह रहे हो- हिन्दुस्तान जिन्दाबाद।
Jubilee Post | जुबिली पोस्ट News & Information Portal
