Saturday - 6 January 2024 - 5:49 AM

न यह लोकतांत्रिक है न संवैधानिक

शबाहत हुसैन विजेता

जुर्म साबित होने से पहले क्या किसी भी शख्स को गुनहगार कहा जा सकता है ? ट्रायल से पहले ही क्या किसी की सज़ा का एलान किया जा सकता है ? गुनहगार साबित होने से पहले क्या किसी की सज़ा तय हो सकती है? क्या किसी जनप्रतिनिधि या सरकार के पास मैजिस्टीरियल पॉवर होती है ?

इस तरह के बहुत से सवाल ज़ेहन में इसलिए कौंध रहे हैं क्योंकि सड़कों पर 57 तस्वीरों वाले होर्डिंग लगा दिये गए हैं। उपद्रव में हुई तोड़फोड़ के एवज में सरकार ने उनसे नुकसान की भरपाई का एलान कर दिया है। इन लोगों की सम्पत्ति कुर्क कर अगर सरकार नुकसान की भरपाई कर लेती है तो क्या अदालत में चल रही कार्रवाई पर रोक लग जायेगी और उपद्रव फैलाने वाले साफ छूट जाएंगे।

उपद्रव के दौरान लोगों के वाहन तोड़ते हुए जो पुलिसकर्मी सीसीटीवी में कैद हुए हैं उनसे कोई पूछताछ नहीं होगी। जिन घरों में पुलिस ने घुसकर औरतों और ब बच्चों से बदसलूकी की है उन घरों से क्या सरकार माफी मांगेगी।

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हुए आन्दोलन में सड़कों पर जो तोड़फोड़ और आगज़नी हुई उसकी बाकायदा वीडियो फुटेज हैं। पुलिस ने मुकदमे कायम किये हैं। पुलिस अभी वीडियो में दिख रहे सारे उपद्रवियों की पहचान भी नहीं कर पाई है। वीडियो फुटेज से तस्वीरें निकालकर पुलिस अभी पहचान कराने की प्रक्रिया में ही लगी है लेकिन सरकार ने होर्डिंग लगाकर अपने मंत्री मोहसिन रज़ा से होर्डिंग पर चस्पा चेहरों को ही गुनहगार घोषित करवा दिया है।

होर्डिंग पर चस्पा 57 चेहरों में मौलाना सैफ अब्बास और डॉ. कल्बे सिब्तैन नूरी की भी तस्वीर है। यह दोनों नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ टीले वाली मस्जिद के पास हुए विरोध प्रदर्शन को सम्बोधित करने गए थे। इस होर्डिंग में रिटायर्ड आईपीएस एस. आर.दारापुरी, सामाजिक कार्यकर्ता दीपक कबीर और सदफ जाफ़र की तस्वीर भी है। यह तीनों परिवर्तन चौक से जीपीओ तक हुए मार्च में शामिल थे।

दीपक कबीर ने मार्च खत्म होने के बाद जीपीओ से अपनी फेसबुक पर एक वीडियो अपलोड कर मार्च के सफल होने और नागरिकता संशोधन कानून के लगातार विरोध का एलान किया था। सदफ जाफर ने उसी समय एक वीडियो जारी किया था जिसमें पुलिस वाहनों में तोड़फोड़ कर रही है। पुलिस ने दीपक कबीर, एस. आर.दारापुरी और सदफ जाफ़र को गिरफ्तार कर जेल भी भेजा था। दीपक और सदफ जाफ़र की थाने पर वहशियाना तरीके से पिटाई भी की गई थी।

सीएम योगी आदित्यनाथ ने उसी दिन एलान किया था कि उपद्रव करने वालों से सख्ती से निबटा जाएगा और तोड़फोड़ व आगज़नी में हुए नुकसान की भरपाई उपद्रवियों की सम्पत्ति बेचकर की जाएगी। उपद्रवियों से नुकसान की भरपाई एक अच्छी पहल ज़रूर हो सकती है बशर्ते यह पहल उपद्रवी साबित होने के बाद की गई होती।

शांतिपूर्वक मार्च में शामिल होने के बाद घर चले जाने वाले को उपद्रवी कैसे कहा जा सकता है। रिटायर्ड आईपीएस जो कैंसर का रोगी भी हो वह पत्थर कैसे चला सकता है। एक महिला जो छोटे-छोटे बच्चों की माँ है वह आगजनी कैसे कर सकती है। एक सामाजिक कार्यकर्ता जो हमेशा युवा वर्ग को देशप्रेम का संदेश देता है वह तोड़फोड़ में कैसे शामिल हो सकता है। एक मौलाना जो समाज को सद्भाव का संदेश देता रहा है वह दंगाई कैसे हो सकता है। एक पढ़ा लिखा नौजवान जिसने कई किताबें लिखी हैं और जो खुद एक स्कूल का संचालन करता है वह समाज विरोधी कामों में कैसे शामिल हो सकता है।

सरकारी होर्डिंग में समाज के इज़्ज़तदार लोग कैसे प्रकाशित कर दिए गए। अदालती फैसले से पहले सरकार आखिर उनकी सम्पत्ति को कुर्क कर नीलाम कैसे कर सकती है।

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नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ चल रहे आन्दोलन में चेहरे देखकर फैसले कौन ले रहा है, इस पर मंथन का यही सही समय है। अदालत को इस बात का संज्ञान लेना चाहिए कि कहीं यह लोकतंत्र का गला घोंटने की साज़िश तो नहीं है।

जिन लोगों को अदालत ने अभी दोषी नहीं ठहराया है, उनकी तस्वीरें अपराधियों की तरह चौराहों पर चस्पा कर देना कानून की बेइज़्ज़ती नहीं है क्या?

होर्डिंग पर चस्पा कुछ चेहरे अदालत में मानहानि का केस करने जा रहे हैं। मानहानि के इस केस में अदालत जिसे ज़िम्मेदार ठहराएगी वह व्यक्तिगत रूप से ज़िम्मेदार होगा या फिर इसे सरकारी प्रक्रिया मानते हुए मुआवजा जनता की कमाई से दिया जाएगा। मुआवजा अगर जनता की कमाई से ही दे दिया गया तो जनता का तो दोहरा नुकसान हुआ। एक तरफ पथराव और आगजनी में उसका नुकसान हुआ तो दूसरी तरफ मानहानि के नाम पर उसकी जेब कट गई।

सरकार के खिलाफ प्रदर्शन और धरने का अधिकार तो लोकतंत्र देता है। सरकार के किसी फैसले से जनता सहमत नहीं है तो वह सरकार के सामने अपना विरोध व्यक्त कर सकती है। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाना किसी भी नागरिक को अपराधी नहीं बनाता है। सरकार के खिलाफ शांतिपूर्वक आवाज़ उठाने वालों को लाठी के बल पर कुचला नहीं जा सकता।

लखनऊ में वसूली हेतु सूचना को लगाई गई होर्डिंग

लोकतंत्र बेशक हिंसा की इजाज़त नहीं देता। किसी को हक़ नहीं कि वह आगज़नी या पथराव करे। किसी को हक़ नहीं कि वह सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाए। किसी को हक़ नहीं कि वह सार्वजनिक स्थान पर असलहों का प्रदर्शन कर या किसी पर गोली चलाए।

हिंसा करने वालों के खिलाफ निश्चित रूप से कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। हिंसक लोगों की पहचान के लिए सड़कों पर सीसीटीवी लगे हैं। सीसीटीवी से उपद्रवियों की पहचान हो सकती है।

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ परिवर्तन चौक से हज़रतगंज चौराहे तक मार्च का एलान पहले से था। पुलिस ने परिवर्तन चौक तक किसी भी वाहन की पहुंच को कई घण्टे पहले ही रोक दिया था। उस रास्ते पर सिर्फ पैदल लोग ही जा सकते थे। मार्च शुरू होने के बाद जब पथराव शुरू हुआ तो पता चला कि एक ट्रक भरकर ईंट-पत्थर पथराव के लिए लाए गए थे। सवाल उठता है कि जब दो पहिया वाहनों के संचालन पर भी रोक थी तो एक ट्रक पत्थर मौके पर कौन ले गया ? मार्च करने वाले जब परिवर्तन चौक से हज़रतगंज चौराहे की तरफ बढ़ गए तो हज़रत महल पार्क के पास खड़े वाहनों में आगज़नी किसने की? वाहनों में आग लगने की सीसीटीवी फुटेज क्या कहती है?

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सरकार सख्ती से चलती है इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन तानाशाही से लोकतंत्र की हत्या हो जाती है इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। सरकार और लोकतंत्र दोनों ही अदालत की निगरानी में ही आगे बढ़ सकते हैं। कानून के ऊपर कुछ भी नहीं होता है। पुलिस ने जिन लोगों को पकड़ा और जेल भेजा वह कानून से जमानत मिलने के बाद ही जेल के दरवाजे से निकलकर अपने घर के दरवाजे में घुस पाए। वह दोषी हैं या नहीं इसका फैसला अभी अदालत से होना बाकी है। तो फिर सरकार ने अदालत से पहले ही दोषी कैसे साबित कर दिए? जिन लोगों के मामले कोर्ट में चल रहे हैं उनकी तस्वीरें आखिर दोषियों वाले होर्डिंग पर कैसे चस्पा कर दी गईं?

होर्डिंग पर तो फरार अपराधियों की तस्वीरें लगाई जाती हैं। जो लोग अपने घरों पर रह रहे हैं। जो रोज़ाना घरों से निकल रहे हैं और तमाम कार्यक्रमों में शामिल हो रहे हैं, जिनके पते भी होर्डिंग पर दर्ज हैं, उनसे नुकसान की भरपाई के नोटिस आखिर क्या दर्शाते हैं ?

यह होर्डिंग कहीं भय का राज स्थापित करने की पहल तो नहीं है। कहीं कानून के राज पर भय का राज तो हावी नहीं होने वाला। कहीं यह अदालत का कद कम जरने की पहल तो नहीं?

लोकतंत्र तो अपने हर नागरिक की आवाज़ को सुनता है। जहां आवाज़ ही दबा दी जाए वहां कैसा लोकतंत्र? सरकार के बनाये कानून के खिलाफ अगर अवाम ने आवाज उठाई है तो सरकार को अपनी अवाम को संतुष्ट करना चाहिए, न कि उसका गला ही घोंट देना चाहिए। अपराधियों की जगह जेल में होती है लेकिन लोकतंत्र को ज़िन्दा रखने के लिए अपराधियों को भी अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाता है। सरकार के सामने आवाज़ उठाने वालों के साथ अपराधियों वाला सलूक न लोकतंत्र के हित में है न देश के।

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(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)

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