शबाहत हुसैन विजेता

सीएए और एनआरसी के खिलाफ पूरे देश में औरतों ने मोर्चा संभाल लिया है। दिल्ली के शाहीन बाग से शुरू हुआ विरोध का सिलसिला देश के तमाम सूबों तक फैल गया है। तेज़ सर्दी, कोहरे और बारिश से बेपरवाह औरतें अपने मासूम बच्चो के साथ इंसाफ की मांग करती हुई सड़कों पर जमा हैं।
हुकूमत का कहना है कि किसी भी हिन्दुस्तानी के साथ नाइंसाफी नहीं हो रही, सिर्फ घुसपैठियों के खिलाफ सरकार अभियान चला रही है। धरने पर बैठी औरतों को पहले भ्रमित बताया गया, फिर राजनीतिक दलों का मोहरा करार दिया गया, फिर इल्ज़ाम लगा कि पांच-पांच सौ रुपये लेकर धरने का नाटक चल रहा है। इतना सब करने के बाद भी जब धरना खत्म कराने में कामयाबी नहीं मिली तो पुलिस की लाठियों का इस्तेमाल किया गया। जमा देने वाली सर्दी में औरतों के कम्बल छीन लिए गए। इसका भी असर नहीं हुआ तो नया इल्ज़ाम आया कि घण्टाघर के धरने में पाकिस्तान के समर्थन में नारे लग रहे हैं।
धरना तो लोकतंत्र का बुनियादी हक़ है। धरना तो डेमोक्रेसी की पहचान है। आम आदमी की आवाज़ को डंडे के बल पर खामोश करा देना तो डेमोक्रेसी का क़त्ल है। दिल्ली के शाहीन बाग से लेकर लखनऊ के घण्टाघर तक पुलिस के जरिये जो तानाशाही का खेल खेला जा रहा है, वह न सिर्फ शर्मनाक है बल्कि हिन्दुस्तान में औरत को जो मुकाम दिया गया है उसके साथ भी बहुत बड़ा मज़ाक है।

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आम हिन्दुस्तानी की बात तो छोड़ दी जाए नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने बेंगलुरु में कहा कि सीएए संवैधानिक कानूनों का उलंघन है। उन्होंने कहा कि विपक्ष में एकता होती और वह साथ होते तो प्रदर्शन आसान हो जाते। हुकूमत सीएए को समझाने के लिए रैलियां कर रही है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री चुनावी रैलियों में सीएए के बारे में बात कर रहे हैं लेकिन जब सब कुछ सही है तो हुकूमत धरना देने वालों के बीच क्यों नहीं पहुंच जाती। औरतें अगर भ्रमित हैं तो उनके बीच जाकर उनके भ्रम को दूर किया जा सकता है लेकिन उनके बीच तो लाठी लेकर पुलिस जा रही है।
दिल्ली के शाहीन बाग, पटना के सब्ज़ी बाग, सहारनपुर के देवबन्द, इलाहाबाद, अलीगढ़ और लखनऊ के अलावा बिहार के समस्तीपुर समेत देश के तमाम शहरों में हज़ारों की तादाद में औरतें रात-दिन खुले आसमान के नीचे हैं। इस धरने की सबसे खास बात यह है कि सबके हाथों में तिरंगे हैं, संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की तस्वीरें हैं, हिन्दू-मुस्लिम साथ रहे हैं साथ रहेंगे के नारे हैं। इन धरनों में इन्कलाब जिंदाबाद तो है लेकिन किसी के नाम पर भी मुर्दाबाद लफ्ज़ की हुंकार नहीं है, फिर भी इन धरनों को कैसे भी खत्म कराने की तैयारी है।

हिन्दुस्तान के लोगों ने महंगाई का दंश झेल लिया, नोटबन्दी बर्दाश्त कर ली, महंगा पेट्रोल खरीद लिया, डेढ़ सौ रुपये की प्याज़ वाले दिन देख लिए, तीन तलाक़ बिल पर खामोशी छाई रही, धारा 370 के मुद्दे पर किसी ने कुछ नहीं कहा, अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए भी ज़मीन रामलला को दे दी कि मन्दिर तोड़कर मस्जिद बनाने के सबूत नहीं मिले, फिर भी सब चुप रहे ताकि मुल्क के हालात बेहतर रहें लेकिन एनआरसी और सीएए के बीच सरकार ने जो रिश्ता जोड़ा उसने देश में उबाल ला दिया।
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हुकूमत स्मूथली चलती है तो सबको अच्छा लगता है। पांच साल तक नरेन्द्र मोदी की सरकार स्मूथली चली तो नई सरकार को पहले से बड़ा बहुमत मिला। नई सरकार ने हिन्दू-मुसलमान के बीच फ़र्क़ का बीज डालकर गंगा-जमुनी तहजीब में आग लगाने की कोशिश की तो औरतों ने घर में रहना मंज़ूर नहीं किया।
एनआरसी और सीएए के रिश्ते ने डर का जो माहौल तैयार किया है उसे समझना हो तो दिल्ली के शाहीन बाग में बीस दिन के दुधमुंहे के साथ धरना दे रही महिला की बातों से समझा जा सकता है। उसने कहा कि जब अपना घर खतरे में है, जब हमारी जानें खतरे में हैं, तो बीस दिन के बच्चे को बचाकर क्या करें। हम जिस मुल्क में पैदा हुए, जिसने हमें रोटी दी, कपड़ा दिया, सर छुपाने को छत दी, जिससे हमने मोहब्बत की, हम उसी मोहब्बत को साबित करें। आखिर हम कैसे साबित करें कि यही हमारा घर है और यही हमारा वतन है।
सड़कों पर जो आधी आबादी का समुद्र उमड़ने लगा है, दरअसल वह उस डर से उभरा है जिसमें अपने वतन से हाथ छूट जाने का खतरा नज़र आ रहा है। लोग परेशान हैं कि हमारी ही चुनी हुई हुकूमत हमसे हमारे इसी देश का होने का सबूत मांग रही है। लोग परेशान हैं कि आखिर हम अपने माँ-बाप, दादा-दादी और नाना-नानी के बर्थ सर्टिफिकेट कहाँ से लाएं?

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देश में ऐसी आग लगी है कि महंगाई, बेरोज़गारी, मन्दिर-मस्जिद सब पीछे छूट गया है। पैसे लेकर धरना देने का इल्जाम भी कुबूल है, पुलिस की लाठियां भी बर्दाश्त हैं, पुलिस कम्बल छीन ले तो सर्दी सहने को बदन भी तैयार है। हर ज़ुल्म हर सितम, हर दर्द बहुत छोटा है, बस हमसे हमारा वतन न छिन जाए। यह डर सबसे बड़ा डर है।
पुलिस ज़ोर ज़बरदस्ती पर आमादा है। धारा 144 का हवाला देकर हवा में लाठियां तनी हैं। लाठी के सामने निडर खड़ी औरत चिल्लाती है कि जब हमने धरना शुरू किया था तब धारा 144 नहीं थी। वह पूछती है कि धारा 144 में सरकारी रैली हो सकती है क्या?
सवाल बहुत से हैं जो फ़िज़ा में तैर रहे हैं। धरने में जीन्स पहने एक छोटी सी बच्ची हाथ में बैनर लिए है:-
ज़िन्दा रहे तो वतन मुबारक
नहीं रहे तो कफ़न मुबारक।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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