विजय शंकर चतुर्वेदी
सोनभद्र नरसंहार में दस आदिवासियों की मौत के बाद यह आशंका उठने लगी है कि इस घटना के बाद कहीं यह जिला फिर से ‘लाल सलाम के नारों से न गूँजने लगे। आज भी सोनभद्र उत्तर प्रदेश के अति नक्सल प्रभावित क्षेत्र के रूप में दर्ज़ है। चार दशकों से नक्सलियों की लूटपाट, आगजनी, फिरौती और हत्या, लेबी वसूलने की घटनाओं का बमुश्क़िल पटाक्षेप हुआ है। प्रदेश और केंद्र सरकार के संयुक्त प्रयास का परिणाम था कि नक्सल घटनाएं यहां शून्य की तरह हो गयी थीं, जबकि इसकी सीमा से सटे छत्तीसगढ़ में नक्सली आये दिन खूनी खेल खेलते रहे।
उल्लेखनीय है कि यूपी के जनपद सोनभद्र की सीमा बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश से जुड़ती है, इतना ही नहीं सभी प्रदेशों के जुड़ने वाले इलाके जंगल और आदिवासी बाहुल्य हैं। नक्सलियों के लिए ये परिस्थितियां अनुकूल मानी जाती हैं।पहले भी नक्सली सोनभद्र को अपना गेटवे बनाना चाहते थे, इसी रास्ते से वे बेतिया से बलिया तक रेड कार्पेट जोन का विस्तार करना चाहते थे। सोनभद्र की आर्थिक परिस्थितियों में जमीन आसमान का अंतर भी उन्हें उद्वेलित करता था।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सोनभद्र के जिन युवक युवतियों ने नक्सलियों के साथ मिलकर बन्दूकें उठायीं उनमें 90 प्रतिशत भूमिविवाद से ही पीड़ित थे। कोई भी माओवाद से प्रभावित नहीं था। न ही उन्हें माओवाद के बारे में कोई जानकारी थी। उन्हें बस इतना मालूम था कि जो प्रशासन उनकी भूमि पर कब्जा नहीं दिला पा रहा या उनकी जमीन से उजड़ने से नहीं बचा पा रहा वहां न्याय की उम्मीद बेकार है।
नक्सली गुट भी इन्हें आसानी से बहका लेते थे और यह समझाने में सफल हो जाते थे कि वे ही आदिवासियों को न्याय दिला पाएंगे, उभ्भा के नरसंहार में झारखंड के कुछ नक्सलियों की भागीदारी की खबर ने केंद्रीय एजेंसियों के भी कान खड़े कर दिए, इस बात की जांच शुरू कर दी गयी है। कनेक्शन के सूत्र भी तलाशे जा रहे हैं। मुद्दाविहीन नक्सलियों को प्रशासनिक असंवेदनशीलता से अनायास एक मुद्दा मिल गया है जिसे नक्सली सिर्फ़ सोनभद्र में ही नहीं बल्कि बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी भुना सकते हैं।
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