
प्रशस्य दत्त
आज शायद समाज में विवाह को एक बंधन जो दो लोगों को एक डोर में बांधता है उस तरह से देखते हैं ,शायद हम इसे कई बार ऐसे भी देखते हैं जहाँ समाज के दो सक्षम सदस्य और उनके परिवारों का आपसी मेल। ये परिभाषायें हमे कई बार लोगों के मन में विवाह को एक समाजिक अथवा शारीरक बंधन के रूप में प्रस्तुत करती हैं।
जब हमारी सीमायें निर्धारित कर दी जाती हैं या हम एक ही प्रवेश में ढल जाते हैं तो हम शायद कई बार बंधा हुआ महसूस करते हैं और फिर आज़ादी की ओर जाना चाहते हैं। कई बार यही सामाजिक बंधन जब हम बिना समझे या आत्म चिंतन के अपना लेते हैं और जब परिस्थितियां बदलती हैं और बदलाव की ज़रुरत होती है वहां हम अपनी सोच को सिमित पाते हैं और हमारे मन में सवाल खरे होते होते हैं , चिंतायें भी आती हैं शायद।
यदि विवाह को हम अध्यात्म और प्रेम जो ह्रदय से उत्पन्न होता है उस दृष्टि से देखें तो विवाह एक बंधन न होकर एक अवसर प्रदान करता है। जहाँ हम खुद की सीमाओं से परे जाकर दो जीवन दो सोच एक होती हैं। इस दृष्टि से न तो मैं कौन हूँ तुम कौन हो का कोई अर्थ रह जाता है,और न ही कोई सीमा जो हमे बाँध सके।
जब एक व्यक्ति को दुसरे से ख़ुशी मिलती है वह स्वयं ही खिंचा चला आता है ,सोच अगर नहीं मेल खाती तो वह उस प्रेम और ख़ुशी के कारण दुसरे को समझने की कोशिश करता है। वे दोनों एक दुसरे के लिए खुद की सीमायें लांगना चाहते हैं। खुद से ऊपर उठना दुसरे को समझना ही अध्यात्म का एक मार्ग है। जब परस्पर प्रेम जो दुसरे की खुशी में हो , बिना किसी शर्त के हो तोह वह बंधन नहीं रह जाता वोह हमे बंधन से मुक्त कर देता है , मैं ये हूँ तुम वो हो , मैं और तुम का बंधन।
इसमें न समाजिक ढांचा मान्य रखता है न ही देह की सुंदरता की बाँधा। जब हम स्वयं को समय दें और स्वयंअपनी आंतरिक ख़ुशी को जाने और महसूस करें तो हम खुद ही उस व्यक्ति की ओर जायेंगे जो हमारी आंतरिक सुंदरता को समझे , एक दुसरे की ख़ुशी में खुश हो। ऐसे दो लोग हर परिस्थिति में एक दुसरे को और गहराई से समझने का अवसर देखेंगे।
उन्हें बदलाव अपनी सीमाओं को पार करने का अवसर लगेगा। इनकी ख़ुशी हर पल के साथ बढ़ेगी वह खुद ही अधयात्म के मार्ग पर होंगे , आध्यात्मिक प्रेम का मार्ग।
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यदि हम इस पर स्वयं चिंतन करें तोह शायद हम कभी भी किसी भी रिश्ते को एक बंधन की जगह सीमाओं के परे जाकर एक होने का मार्ग बना सकते हैं।
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