अशोक कुमार
भारत में विश्वविद्यालयों में एक साथ दो डिग्रियां मान्य होने के नियम को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) ने स्वीकृति दे दी है।
यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 (NEP 2020) के तहत छात्रों को अधिक लचीलापन और बहु-विषयक शिक्षा के अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से किया गया है।
विश्वविद्यालयों में एक साथ दो डिग्रियों को मान्य करना एक प्रगतिशील कदम है जो छात्रों को अधिक लचीलापन और अवसर प्रदान करता है। अकादमिक दृष्टिकोण से, यह छात्रों के ज्ञान के क्षितिज को व्यापक बनाने और उन्हें भविष्य के लिए अधिक तैयार करने की क्षमता रखता है।
दोहरी डिग्री का प्रावधान उच्च शिक्षा में एक सकारात्मक बदलाव हो सकता है, लेकिन इसकी सफलता शिक्षकों की कमी , नियुक्ति , फर्जीवाड़े को रोकने के लिए उठाए गए कदमों पर बहुत निर्भर करेगी। यदि इन चुनौतियों का प्रभावी ढंग से सामना नहीं किया जाता है, तो यह नीति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल हो सकती है और शिक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा सकती है।
भारत में उच्च शिक्षा के सामने शिक्षकों की कमी एक गंभीर और पुरानी समस्या है। ऐसे में जब हम एक साथ दो डिग्रियों की बात करते हैं, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे पास पर्याप्त शिक्षक और संसाधन हैं जो इस नई व्यवस्था को सफलतापूर्वक लागू कर सकें।
शिक्षकों की कमी के बावजूद दोहरी डिग्री की बात करना एक बड़ी चुनौती है। यह दर्शाता है कि नीतिगत सुधारों को लागू करने से पहले जमीनी हकीकत और आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता का आकलन करना कितना महत्वपूर्ण है।
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शिक्षकों की कमी और दोहरी डिग्री: एक विरोधाभास?
मौजूदा कमी: देशभर के कई विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। विशेषकर सरकारी संस्थानों में, संकाय की कमी अक्सर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में बाधा डालती है। कुछ विषयों में तो विशेषज्ञ शिक्षकों का अभाव और भी अधिक होता है।
कार्यभार में वृद्धि: यदि छात्र बड़ी संख्या में दोहरी डिग्री कार्यक्रमों का विकल्प चुनते हैं, तो शिक्षकों पर कार्यभार और भी बढ़ जाएगा। उन्हें एक साथ दो अलग-अलग पाठ्यक्रमों के छात्रों को पढ़ाना, मूल्यांकन करना और मार्गदर्शन देना पड़ सकता है।
विशेषज्ञता का अभाव: एक शिक्षक भले ही अपने मूल विषय में विशेषज्ञ हो, लेकिन दोहरी डिग्री के तहत दूसरे विषय को पढ़ाने के लिए उसे उस विषय में भी पर्याप्त ज्ञान और विशेषज्ञता की आवश्यकता होगी। यदि ऐसा नहीं होता है, तो दोनों ही डिग्रियों की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है।
संसाधन और ढांचागत कमी: शिक्षकों की कमी के साथ-साथ, कई संस्थानों में पर्याप्त क्लासरूम, प्रयोगशालाएं और अन्य शिक्षण-अधिगम संसाधन भी कम होते हैं। दोहरी डिग्री के लिए इन्हें भी बढ़ाना होगा।
निश्चित रूप से, यह भी चिंता बिल्कुल जायज है कि दोहरी डिग्री के प्रावधान से फर्जी डिग्रियों की संभावना बढ़ सकती है। यह एक गंभीर चुनौती है जिस पर नियामक निकायों, विशेषकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) और विश्वविद्यालयों को गंभीरता से ध्यान देना होगा।
दोहरी डिग्री का प्रावधान की सफलता फर्जीवाड़े को रोकने के लिए उठाए गए कदमों पर भी बहुत निर्भर करेगी। यदि इन चुनौतियों का प्रभावी ढंग से सामना नहीं किया जाता है, तो यह नीति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में विफल हो सकती है और शिक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा सकती है।
निजी विश्वविद्यालय निश्चित रूप से इस नीति का लाभ उठाएंगे, और यह उनके लिए छात्रों को आकर्षित करने और नए कार्यक्रम विकसित करने का एक अवसर है। हालांकि, नियामक निकायों को यह सुनिश्चित करना होगा कि निजी विश्वविद्यालय शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखें और केवल वाणिज्यिक लाभ के लिए छात्रों का शोषण न करें। अंततः, इस नीति की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे कितनी अच्छी तरह लागू किया जाता है और विश्वविद्यालय छात्रों के लिए एक सहायक और गुणवत्तापूर्ण सीखने का माहौल कैसे प्रदान करते हैं।
(लेखक, कानपुर एवं गोरखपुर विश्वविद्यालयों के पूर्व कुलपति तथा राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के पूर्व विभागाध्यक्ष हैं।)”