प्रो. अशोक कुमार
महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अनुत्तीर्ण (Fail) होने पर छात्रों द्वारा किए जा रहे आंदोलन एक जटिल सामाजिक और शैक्षणिक घटना को दर्शाते हैं। ये विरोध प्रदर्शन उच्च शिक्षा प्रणाली में संरचनात्मक (Structural) कमियों को उजागर करते हैं, लेकिन साथ ही, ये छात्रों के बीच पनप रही उत्तरदायित्व से बचने की प्रवृत्ति को भी दर्शाते हैं। इस समस्या को केवल एक दृष्टिकोण से देखना अधूरा होगा।
पहला पहलू: व्यवस्था की विफलता और मूल्यांकन में अविश्वास
छात्रों के आंदोलनों का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा प्रणाली की वास्तविक खामियों पर आधारित है, जो उन्हें विरोध करने के लिए मजबूत आधार प्रदान करता है।
- मूल्यांकन प्रणाली की अपारदर्शिता (Lack of Transparency in Evaluation)
यह आंदोलनों का सबसे प्रमुख कारण है। जब हजारों छात्र एक साथ एक ही परीक्षा में अनुत्तीर्ण होते हैं, तो यह संदेह पैदा करता है कि मूल्यांकन प्रक्रिया में गंभीर त्रुटियाँ हैं।
दोषपूर्ण जाँच: छात्रों का आरोप है कि शिक्षक जल्दबाजी में या लापरवाही से कॉपियाँ जाँचते हैं, जिसके कारण कई बार अच्छे प्रदर्शन के बावजूद अंक कम आते हैं।
पुनर्मूल्यांकन की जटिलता: पुनर्मूल्यांकन प्रक्रिया धीमी, महंगी और अक्सर अविश्वसनीय होती है, जिससे छात्र कानूनी या प्रशासनिक मार्ग अपनाने के बजाय सीधे आंदोलन का रास्ता चुनते हैं।
- शैक्षणिक अव्यवस्था और संसाधन की कमी
कई सरकारी संस्थानों में, छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिल पाती है, लेकिन परीक्षा का मानक उच्च रखा जाता है।
शिक्षक की कमी: कक्षाओं में पर्याप्त और योग्य शिक्षकों की कमी के कारण पाठ्यक्रम समय पर पूरा नहीं हो पाता।
आउट ऑफ सिलेबस’ प्रश्न: कभी-कभी प्रश्नपत्र पाठ्यक्रम से बाहर के या अत्यंत कठिन होते हैं, जिससे छात्रों को लगता है कि उन्हें अन्यायपूर्ण तरीके से अनुत्तीर्ण किया गया है।
- प्रशासनिक अनिश्चितता
परीक्षा परिणामों में अत्यधिक देरी या अचानक कठोर नीतियां लागू करने से छात्रों में हताशा पैदा होती है, जो सामूहिक विरोध को बढ़ावा देती है।
दूसरा पहलू: छात्रों की उदासीनता और उत्तरदायित्व से मुक्ति की तलाश
आंदोलन का दूसरा, और अक्सर अनदेखा किया जाने वाला पहलू, छात्रों के अपने शैक्षणिक दायित्वों से मुख मोड़ने की प्रवृत्ति से जुड़ा है।
कक्षाओं में घटती उपस्थिति (Declining Class Attendance)
यह एक सामान्य समस्या है कि कई छात्र नियमित रूप से कक्षाओं में उपस्थित नहीं होते हैं। वे सोचते हैं कि डिग्री केवल परीक्षा पास करने का परिणाम है, न कि लगातार सीखने की प्रक्रिया का।
अंतिम समय की तैयारी: अधिकतर छात्र परीक्षा से ठीक पहले ‘शॉर्टकट नोट्स’ या गाइड बुक्स पर निर्भर रहते हैं। जब यह रणनीति विफल हो जाती है, तो वे अपनी विफलता का दोष पूरी व्यवस्था पर डाल देते हैं।
‘पास होने’ को ही एकमात्र लक्ष्य मानना
भारत में शिक्षा को करियर की गारंटी माना जाता है। इस दबाव में, कई छात्र ज्ञान या कौशल प्राप्त करने के बजाय केवल डिग्री प्राप्त करने को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं। अनुत्तीर्ण होने पर उन्हें लगता है कि उनकी डिग्री और करियर दोनों खतरे में हैं, जिससे वे अपनी गलती स्वीकार करने के बजाय व्यवस्था को झुकाने के लिए एकजुट होते हैं।
दोषारोपण की संस्कृति का उदय (The Rise of Blame Culture)
जब भी मूल्यांकन में कोई छोटी-मोटी त्रुटि मिलती है, तो छात्रों का एक वर्ग इसे अपनी व्यक्तिगत विफलता को छिपाने के लिए एक ‘ढाल’ के रूप में इस्तेमाल करता है। वे आंदोलन की सामूहिक शक्ति का उपयोग करके, बिना पढ़ाई किए पास होने का अनुचित दबाव बनाने का प्रयास करते हैं।
निष्कर्ष: समाधान के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण
भारत में उच्च शिक्षा के ये आंदोलन एक दोहरी चेतावनी हैं।
व्यवस्था के लिए चेतावनी: विश्वविद्यालय और महाविद्यालय अपनी प्रशासनिक एवं मूल्यांकन प्रक्रियाओं में तत्काल पारदर्शिता लाएँ, और शिक्षण की गुणवत्ता में सुधार करें ताकि छात्रों का विश्वास बहाल हो सके।
छात्रों के लिए चेतावनी: छात्रों को यह समझना होगा कि डिग्री का मूल्य तभी है जब वह वास्तविक ज्ञान और कौशल पर आधारित हो। आंदोलन ज्ञान प्राप्त करने का विकल्प नहीं हो सकता।
सच्चा समाधान तभी निकलेगा जब प्रशासन अपनी खामियां सुधारेगा, और छात्र अपनी शैक्षणिक ज़िम्मेदारी को स्वीकार करते हुए नियमित अध्ययन के प्रति गंभीर होंगे। इन दोनों पक्षों के बीच संतुलन स्थापित किए बिना, ये विरोध प्रदर्शन उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को लगातार खोखला करते रहेंगे।
(पूर्व कुलपति गोरखपुर, कानपुर विश्वविद्यालय, विभागाध्यक्ष राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर)
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