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जब प्रधानमंत्री ने मुस्लिम महापुरूषों के लिए छलकाई श्रृद्धा

केपी सिंह

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव को लेकर बोलते हुए संसद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वाणी में मुस्लिम महापुरूषों के लिए जब श्रृद्धा के झरने बहे तो लोगों को विचित्र लगा। उन्होंने सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान का स्मरण किया। कहा कि एक बार उन्हें सीमांत गांधी के पैर छूने का सौभाग्य मिला था। बेगम हजरत महल के प्रति भी उन्होंने विशेष आदर जताया।

प्रधानमंत्री जब यह भाषण दे रहे थे तो आधुनिक भारत के प्रस्थान बिन्दु के मर्म को छू रहे थे। यह प्रस्थान बिन्दु है, मिलीजुली संस्कृति वाला भारत जिसे लेकर माना जाता है कि भाजपा को देश के वर्तमान का यह स्वरूप स्वीकार नहीं है। एक समय वैदिक भारत था। इसके बाद बौद्ध भारत अस्तित्व में आया। फिर सनातनी भारत बना।

इस्लामिक आक्रणकारियों द्वारा भारत को पदाक्रांत करने की शुरूआत के साथ 11वी, 12वी शताब्दी से देश में एक और युग का शुभारम्भ हुआ। इसके अंत में मुगल आये तब तक भारत की सांस्कृतिक परिस्थितियां वैसे ही एक और करवट बदल चुकी थी जैसे बौद्धकाल के बाद सनातन काल में हुए हस्तक्षेप से बदली थी। देश की आबादी का एक बड़ा भाग धर्मान्तरित हो चुका था। दूसरी ओर मुगल थे जो बाहरी होकर भी अपने वतन वापिस लौटने का विकल्प खो चुके थे। इसलिए उनके सामने अब इस देश को ही अपना समझने की बाध्यता थी और यहां की अपनी हुकुमत को मजबूत रखने के लिए सभी वर्गो को विश्वास में लेकर चलने की नीति उनकी स्थितियों की सहज उपज थी।

देश में जिस तरह से मिलीजुली संस्कृति की शुरूआत यहां से हुई वह आयातित न होकर प्राकृतिक थी। मुगलों के इस्लामिक शासन में भी सर्वधर्म समभाव का पुट था। भक्ति काल को फलने फूलने की स्वतंत्रता, क्षत्रिय राजाओं के साथ लगातार रिश्तेदारी, उन्हें सेना में बड़े पद, होली दीपावली जैसे हिन्दुओं के मुख्य पर्व बादशाहों द्वारा राजकीय स्तर पर मनाने, मंदिरों को जागीर लगाने और यहां तक कि दीन इलाही जैसे नये पंथ के प्रवर्तन की चेष्टा जिससे सनातनियों और इस्लामिक अनुयायियों को एकाकार किया जा सके इत्यादि उपक्रमों में उनकी यह अभीप्सा तलाशी जा सकती है।

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मिलीजुली संस्कृति का बीज अग्रेजों के आने तक इतना फल फूल चुका था कि फिरंगी शासन ने दोनों में राष्ट्रीय अस्मिता को साझा तौर पर आहत किया और 1857 की बगावत में इसी कारण हिन्दू और मुसलमानों दोनों को मुगल बादशाह की कयादत मंजूर हुई। जबकि क्रांतिकारियों में एक से एक पराक्रमी और लड़ाके थे। दूसरी ओर अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर मूल रूप से शायर था, लड़ाका नहीं।

यह फिरंगियों की खुशकिस्मती रही कि वे इस तूफानी बगावत को विफल करने में कामयाब हो गये। लेकिन उन्होंने एक सबक सीखा कि अपनी हुकुमत की जड़ मजबूत करने के लिए इस देश में साजी संस्कृति की जड़ों को खोद डालों। अपनी मानसिक संतानों को भी यह दीक्षा घुट्टी में पिलाने के बाद वे यहां से गये।

1947 आते-आते जब अग्रेजों के लिए भारत में सीधे शासन को संचालित रखना दुरूह बन गया तो यहां से अपना बोरिया बिस्तर उठाने के पहले उन्होंने कुचक्र नहीं छोड़े। मोहम्मद अली जिन्नाह जिसने एक समय गांधी जी को इस्लामिक विश्व में खिलापत की बहाली के लिए आंदोलन चलाने पर फटकारा था। अपनी कुंठाओं के कारण उनका मोहरा बन बैठा और उसके माध्यम से अग्रेजों ने पाकिस्तान की नीव रखी ताकि प्रतिक्रिया में भारत हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए अग्रसर हो और दोनों ही देश मिलीजुली संस्कृति से दूर जाने के प्राकृतिक अपकर्म के चलते तबाही में गर्क हो जायें।

पाकिस्तान का गठन इस्लामिक लिहाज से भी गुनाह था बल्कि काफिराना हरकत थी। मक्का और मदीना इस्लामिक दुनिया में सबसे पाक स्थान हैं जिनके समानांतर पाकिस्तान नाम से कोई जगह बन ही नहीं सकती। लेकिन जिस जिन्नाह ने जीवन में पहली नमाज पाकिस्तान के निर्माण के बाद पढ़ी हो तब उसे वजू बनाना और सिजदे में बैठना न आ रहा हो उसे इस्लामिक मर्म को समझने का शऊर कहां से आ सकता था। पाकिस्तान बना तो इस्लाम फेल हो गया।

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इस्लाम का दावा मजहब की ऐसी विशाल छतरी बनाने का है जिसके साये में इंसानियत को बांटने वाली नस्ली पहचानें मिट जाया करती हैं। लेकिन क्या पाकिस्तान में ऐसा हुआ। पाकिस्तान बनते ही वहां बांग्ला नस्ली अस्मिता ने ऐसा सिर उठाया कि वह दो फाड़ हो गया। यही हालत वहां आज बलूची, पंजाबी और सिंध नस्लों की है। अगर सही लोकतंत्र पाकिस्तान में कायम हो जाये तो इनका नस्लवाद इस्लामिक छतरी को फाड़कर तार-तार कर देगा और पाकिस्तान के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।

दूसरी ओर भारत ने सर्वधर्म समभाव वाले राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ते हुए विश्व बिरादरी में कई मामलों में पश्चिमी देशों से ज्यादा सभ्य और लोकतांत्रिक उसूलों में आगे वाले देश की गुरूता और गरिमा हासिल की है। यहां की संस्थायें पश्चिम की संस्थाओं से ज्यादा पेशेवर और आधुनिक साबित हुई हैं। जलन के शिकार अग्रेजों ने भारत के इस मान सम्मान को कभी हजम नहीं किया और शुरूआत में कई दशकों तक वे भारत की उपलब्धियों को नकार कर इसे मदारियों और सपेरों के देश में ही प्रस्तुत करते रहे पर जब वे सूरज को दीपक दिखाने की औकात में सिमट गये तब उन्हें भारत की महिमा के सामने सिर झुकाना पड़ा।

आधुनिक विश्व में भारत के गौरव के इस ध्रुव को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी प्रखर सहज बुद्धि के कारण पहचानते हैं। इसलिए प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने हमेशा मिलीजुली संस्कृति की खुशबू के अनुरूप मुसलमानों की चर्चा उनकी संवेदना का ख्याल रखने का सलीका दिखाते हुए की है।

रामजन्म भूमि मंदिर के संबंध में उन्होंने इसी कारण अंत तक संयम बनाये रखा। जबकि इस वजह से वे हिन्दू पक्ष के एक बड़े वर्ग का कोपभाजन बने जिसका भी उन्हें बखूबी एहसास था। यहां तक कि संविधान की प्रतिष्ठा के निर्वाह की उच्चतम प्रतिबद्धता दिखाते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद अयोध्या की यात्रा आज तक नहीं की क्योंकि अयोध्या विवाद प्रांग्य न्याय था। इस बीच अयोध्या विवाद पर फैसला आ चुका है और अब वे वहां राम मंदिर शिलान्यास के लिए पहली बार पहुंचेगे। इस निरंतरता के मद्दे नजर सीएए को लेकर मुसलमानों को किसी भी तरह के शुबहा से उबारने के लिए संसद में जो कहा उसे विश्वसनीय माना जाना चाहिए।

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विडम्बना यह है कि अमित शाह व अन्य भाजपा नेता इसकी तस्दीक नहीं होने देते। विचार धारा के स्तर पर भाजपा में अवसरवाद और कपटाचार का बोलवाला है। पार्टी के निशाने पर हमेशा मुगल भारत और मिलीजुली संस्कृति रहती है जिससे लगता है कि वे अग्रेजों के एजेंडे को पूरा करने के लिए समर्पित हो रहे हैं।

यह संयोग नहीं हो सकता कि जिस भाजपा ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के 150 वर्ष पूरे होने पर देश भर में अलग तरह का जश्न मनाया था उस भाजपा ने सत्ता में आने के बाद 1857 की क्रांति को विस्मृति के गर्त में धकेल दिया। जब 1857 की क्रांति विफल हो गई तो अग्रेजों के दमन चक्र से बचने के लिए देश भक्त सेनानियों के परिवार अपने घरों से सब कुछ छोड़कर पलायन कर गये। उनकी संतानों को उनके पूर्वजों के बारे में नहीं बताया गया ताकि अग्रेजी शासन में परिवार सुरक्षित रह सके।

आजादी के तत्काल बाद प्रथम स्वाधीनता संग्राम के वीर लड़ाकों के वंशजों को तलाशा जा सकता था लेकिन काग्रेस की सरकारें ऐसा नहीं कर सकती थी क्योंकि वे पर्दे के पीछे अग्रेजों से समझौते के बंधन में बंधी थी। उन्होंने नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की भी परवाह जानबूझकर नहीं की और प्रथम स्वाधीनता संग्राम के शहीदों की भी नहीं। पर अब भाजपा की सरकार भी यह नहीं कर रही है। क्योंकि कहीं न कहीं अग्रेजों का साया आज भी मंडरा रहा है।

प्रथम स्वाधीनता संग्राम को याद करने से साझा संस्कृति की विरासत को मजबूती मिलेगी। इस संस्कृति और मुगल राज के प्रति उनकी तिक्तता अतिरिक्त है और मुसलमान उनके निशाने पर। अमित शाह ने दिल्ली विधान सभा चुनाव में तो इस मामले में इंतहा कर दी। धर्म के आधार पर विग्रह को तपाये रखना इस देश का बुरा सोचने वालों का लक्ष्य रहा है।

भले ही भाजपा में एक वर्ग राजनैतिक कारणों से अजीब एजेंडे को हवा देता हो लेकिन इससे एक बड़े वर्ग में यह ग्रन्थि प्रभावी होती जा रही है कि मुसलमानों को दोयम दर्जे की नियति स्वीकार करने के लिए बाध्य किया जाना ही देश और हिन्दुओं के हित में है। इससे मिलीजुली संस्कृति की वह नींव हिली जा रही है जिस पर मजबूत भारत खड़ा है।

विडम्बना यह है कि प्रधानमंत्री जहां महात्मा गांधी के प्रति इतना श्रृद्धावनत हैं वहीं उन्हें अपमानित करने के बावजूद साध्वी प्रज्ञा और अनंत हेगड़े के खिलाफ भाजपा में कोई कार्रवाई नहीं हो पाती। इसी तरह संसद में जहां नरेन्द्र मोदी मुसलमानों से इतना मृदुल संवाद कर पाते हैं वहीं शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों से संवाद का रास्ता क्यों नहीं अपनाया जा रहा है। क्या इसे माना जाये कि प्रधानमंत्री भी अंदरखाने पार्टी के उच्छृंखल तत्वों के सामने असहाय हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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