Wednesday - 10 January 2024 - 5:39 PM

सदियों पुरानी है राजा और महाराजा के बीच की लड़ाई

न्यूज डेस्क

मध्यप्रदेश में इन दिनों सियासी गलियारे में काफी हलचल मची हुई है। दरअसल एमपी में जो हुआ उसके पीछे कोई आज की कहानी नहीं है बल्कि सदियों पुरानी कहानी है। ये कहानी महाराजा और राजा के बीच की है जोकि कई साल पुरानी है। आइये जानते हैं कि सिंधिया के इस्तीफे के पीछे सदियों पुरानी कहानी आखिर है क्या?

राघोगढ़ और सिंधिया घराने की बीच की लड़ाई

वहीं ऐसे भी कयास लगाये जा रहे है कि सिंधिया के कांग्रेस से इस्तीफा देने के पीछे कमलनाथ से ज्यादा पूर्व मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह का हाथ रहा है। एमपी की राजनीति पर गहरी परख रखने वालों की मानें तो सिंधिया का कमलनाथ से ज्यादा दिग्विजय सिंह से मनमुटाव है। दरअसल, मध्य प्रदेश की राजनीति में राघोगढ़ और सिंधिया घराने के बीच आपसी होड़ की कहानी बहुत ही दिलचस्प है।

यह कहानी करीब 202 साल पुरानी बताई जा रही है। जब 1816 में, सिंधिया घराने के दौलतराव सिंधिया ने राघोगढ़ के राजा जयसिंह को युद्ध में मात दे दी थी। इसके बाद से ही राघोगढ़ को ग्वालियर राज के अधीन हो गया।

 

इसका बदला लेने का मौका जब दिग्विजय सिंह को लेने को मिला तो वो भी पीछे नहीं हटें। और उन्होंने 1993 में माधव राव सिंधिया को मुख्यमंत्री पद की होड़ में परास्त करके बराबर कर दिया था। खास बात ये है कि मध्य प्रदेश की राजनीति में आई इस हलचल के पीछे भी ज्योतिरादित्य सिंधिया बनाम दिग्विजय सिंह का मामला सामने आ रहा है।

राज्यसभा के लिए आमने सामने

जबकि मौजूदा समय में यह लड़ाई राज्यसभा सीट के लिए सामने आ गयी है। सिंधिया और दिग्विजय की दावेदारी राज्य सभा सीट के लिए है। दिग्विजय सिंह राज्य सभा में अपनी वापसी चाहते हैं जबकि ज्योतिरादित्य सिंधिया भी राज्य सभा की सीट चाहते हैं।

गौरतलब है कि मध्य प्रदेश से राज्य सभा की तीन सीटें हैं, इसमें एक-एक सीट बीजेपी और कांग्रेस के खाते में जा सकती है। सिंधिया इसी राज्य सभा सीट से कांग्रेस हाई कमान और कमलाथ सरकार के सामने दबाव डाल रहे थे।

इससे पहले कई सालों पहले एक इंटरव्यू में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा था कि सिंधिया नाम से उन्हें कभी किसी भी तरह की कोई मदद नहीं मिली। उनके पिता माधवराव ने उन्हें इस नाम के बिना भी बेहतर ज़िंदगी जीने के बारे में बचपन में ही बताया था।

बीते विधान सभा चुनाव में मुख्यमंत्री नहीं बन पाने को भी आप यहीं से देख सकते हैं कि उन्हें सिंधिया होने का फ़ायदा नहीं मिला। लेकिन सिंधिया अपनी राजनीतक समझ और क़द दोनों का दायरा बड़ा करते जा रहे हैं।

पिछले एक साल से किनारे कर रही सरकार

ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि पिछले कुछ समय से ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने राजनीतिक करियर के सबसे लो प्वाइंट पर चल रहे हैं। पहले 2018 में कमलनाथ से वे राज्य के मुख्यमंत्री पद की होड़ में पिछड़ गए। इसके बाद वो अपने संसदीय प्रतिनिधि रहे केपी यादव से 2019 में परंपरागत लोकसभा सीट ‘गुना’ से चुनाव हार गये।

इसके अलावा जब उन्हें लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उन्हें ज़िम्मेदारी दी गयी उसमें भी पार्टी अपना खाता नहीं खोल पायी।

प्रदेश राजनीति में भी शुरू हुई अनदेखी

कांग्रेस ने जब पिछले विधान सभा चुनाव में वापसी की तो उसमें सिंधिया का सबसे महत्वपूर्ण योगदान था। सिंधिया के उस चुनाव में असर को जानना चाहते हैं तो ऐसे जानिए कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी अभियान में सिंधिया विरोध को हवा दी थी, उस समय बीजेपी का अभियान ही था- ‘माफ़ करो महाराज, हमारा नेता शिवराज।’

2018 के विधान सभा चुनाव में सिंधिया ने पूरे राज्य में सबसे ज्यादा चुनावी सभाओं को संबोधित किया। उन्होंने क़रीब 110 चुनावी सभाओं को संबोधित किया, इसके अलावा 12 रोड शो भी किए। उनके मुक़ाबले में दूसरे नंबर पर रहे कमलनाथ ने राज्य में 68 चुनावी सभाओं को संबोधित किया था.

लेकिन असल मुश्किलें चुनावी नतीजे आने के बाद शुरू हुई। इस मुश्किल दौर के बारे में मध्य प्रदेश कांग्रेस के एक नेता ने बताया कि सिंधिया की मेहनत के चलते 15 साल के बाद कांग्रेस सत्ता में वापसी करने में सफल रही, वे मुख्यमंत्री नहीं बन पाए लेकिन उनका योगदान सबसे ज्यादा था, अब कमलनाथ जी और दिग्विजिय जी मिलकर उनकी लगातार अनदेखी कर रहे थे।

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