डा. उत्कर्ष सिन्हा
यह वही संसद और वही लोकतंत्र है, लेकिन उसका चरित्र तेज़ी से बदलकर सवालों से डरने वाली सत्ता और असहाय होती विपक्षी आवाज़ों का रंग लेता जा रहा है। वह सदन, जिसे जनता ने अपने डर, अपने सपनों और अपने दुखों की आवाज़ बनाने के लिए बनाया था , अब टेलीविज़न फ्रेम, हेडलाइन मैनेजमेंट और आंकड़ों की जादूगरी का मंच ज़्यादा लगता है, जवाबदेही का मंच कम।
प्रधानमंत्री के “सार्थक बहस” वाले वाक्य और ज़मीनी हक़ीक़त के बीच की यह खाई ही आज के लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकेतक बन गई है, जहां चुनिंदा मुद्दों पर ताली बजती है, लेकिन असली सवाल दरवाज़े पर खड़े रह जाते हैं।
संसद का सत्र शुरू हो चुका है और खुद प्रधानमंत्री ने कहा कि वे सार्थक बहस चाहते हैं लेकिन अब सवाल ये है कि अगर पहलगाम आतंकी हमला, लालकिला मेट्रो स्टेशन विस्फोट, अमेरिका के एपेस्टिन मामला, अर्थव्यवस्था पर, रुपये की गिरती साख पर कोई चर्चा नहीं, बेलगाम बेरोजगारी पर कोई चर्चा नहीं, मजदूरों को गुलाम बनाने वाले कानूनों पर कोई चर्चा नहीं, गहन मतदाता सूची पुनरीक्षण कार्यक्रम पर कोई चर्चा नहीं, दिल्ली की हवा खतरनाक स्तर तक प्रदुषित होने पर, अडानी और अंबानी के लिए देश के बैंकों, जीवन बीमा निगम और अन्य सरकारी वित्तीय संस्थानों की पूंजी निवेश करने पर, देश की संपत्ति, संपदा और प्राकृतिक संसाधनों की लूट और भ्रष्टाचार पर कोई चर्चा नहीं , तो फिर चर्चा आखिर किन बातो पर होनी चाहिए ?

पहलगाम जैसे आतंकी हमले पर चुप्पी सिर्फ सुरक्षा नीति की बात नहीं, लोकतांत्रिक संवेदना की परीक्षा भी है। जब कहीं दूर घाटी में गोलियों की आवाज़ आती है तो उसकी गूंज सदन में सुनाई देनी चाहिए, क्योंकि वही देश की सर्वोच्च पंचायत है, जहां शहीदों की चिंता और आम नागरिक के डर को शब्द मिलते हैं। अगर वहां हमले का ज़िक्र भी प्रतीकात्मक औपचारिकता से आगे न बढ़ सके, तो संदेश साफ़ है – राष्ट्रीय सुरक्षा भी अब गहन विमर्श से ज़्यादा शक्ति प्रदर्शन और बयानबाज़ी की वस्तु बन चुकी है। अंदरूनी सुरक्षा पर असहमति रखने वाली किसी भी आवाज़ को “राष्ट्रविरोधी” करार देने की प्रवृत्ति ने संसद की बहस को और संकीर्ण कर दिया है।
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दिल्ली के लालकिला मेट्रो स्टेशन के पास हुआ विस्फोट सिर्फ दिल्ली की सुरक्षा का मामला नहीं, यह राजधानी के बीचोबीच नागरिक असुरक्षा का प्रतीक है। यह वही शहर है जहां से देश को आश्वासन मिलना चाहिए कि व्यवस्था चौकन्नी है, लेकिन जब इतने गंभीर धमाके के बाद भी सदन में लंबी, खुली और लाइव बहस न हो, तो जनता को लगता है कि उनका दर्द बस कुछ न्यूज़ क्लिप्स भर है। ऐसी घटनाओं पर विस्तार से चर्चा इसलिए ज़रूरी है कि खुफिया तंत्र की नाकामियों से लेकर आपदा प्रबंधन, मुआवज़े और दीर्घकालिक सुरक्षा-नीति तक हर स्तर पर सुधार की राह वहीं से निकलती है। जब ये चर्चा टलती है, तो यह केवल सरकार की सुविधा नहीं, लोकतंत्र की असफलता भी बन जाती है।
अमेरिका के एपस्टीन मामले पर चर्चा न होना सतही तौर पर गैर-ज़रूरी लग सकता है, पर असल में यह वैश्विक सत्ता-संरचनाओं, मानव तस्करी, यौन शोषण और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के अंधेरे गठबंधनों का आईना है। एक परिपक्व संसद विदेशी मामलों पर भी बहस करती है, ताकि दुनिया के बदलते समीकरणों और शक्ति-संबंधों को समझकर अपनी विदेश नीति और घरेलू कानूनों को मज़बूत कर सके। अगर ऐसे मुद्दों पर भी असहज चुप्पी रहे, तो उसका मतलब यह नहीं कि समस्या नहीं है, बल्कि यह होता है कि वैश्विक पूंजी और अपने-अपने “दोस्ताना रिश्तों” की राजनीति के सामने सदन भी संकोच में है।
बर्बाद होती अर्थव्यवस्था, गिरती रूपया, बेलगाम बेरोज़गारी – ये सारे मुद्दे इस लोकतंत्र के असल नागरिक संकटों की जड़ में खड़े हैं। महंगाई, अधर में लटके स्टार्टअप, छोटे व्यापारियों की टूटती कमर, कृषि की अस्थिरता, और नौकरी की तलाश में भटकती पीढ़ी – इन सबकी रपट संसद के पटल पर रोज़ खुलनी चाहिए। बजट भाषणों की चमकदार पंक्तियाँ और “विश्वगुरु” के नारे अगर बेरोज़गार युवा की जेब में पड़े खाली बटुए से नहीं टकराते, तो लोकतंत्र का नैतिक आधार ही खोखला हो जाता है। अर्थव्यवस्था पर विमर्श से भागना सरकार को क्षणिक राहत देता है, लेकिन समाज की नसों में बेचैनी और अविश्वास भर देता है।
मज़दूरों को व्यावहारिक रूप से “सस्ते और आज्ञाकारी संसाधन” बनाने वाले श्रम क़ानूनों पर बहस न होना, संसद के श्रमजीवी चरित्र के अपमान जैसा है। जिन लोगों की ईंट-ईंट की मेहनत से यह संसद, ये शहर, ये फैक्ट्रियां खड़ी हैं, उनकी हक़ीक़त – ओवरटाइम, अस्थायी नौकरी, बिना सुरक्षा काम, ठेका प्रणाली – वहीं से अदृश्य कर दी जाती है जहां उनके हक़ की रक्षा की जानी चाहिए। संसद में यदि श्रम अधिकारों, यूनियनों की स्वायत्तता, न्यूनतम वेतन, सामाजिक सुरक्षा पर गंभीर बहस न हो सके, तो यह साफ़ हो जाता है कि आर्थिक नीतियों के केंद्र में इंसान नहीं, पूंजी और उत्पादन लागत की गणित बैठ गई है।
विपक्षी नेताओं पर झूठे या अतिरंजित एफआईआर, एजेंसियों का दुरुपयोग और मतदाता सूची में गड़बड़ियों जैसे मुद्दों पर चर्चा का अभाव सीधे-सीधे लोकतंत्र की जड़ पर प्रहार है। जब जांच एजेंसियाँ राजनीतिक प्रतिशोध का औज़ार लगने लगें और चुनाव आयोग के प्रक्रियागत निर्णयों पर भरोसा कम होने लगे, तो संसद वह जगह होनी चाहिए जहां सत्तापक्ष कटघरे में खड़ा होकर सफाई दे और आवश्यक सुधारों पर सहमति बने। अगर वहीं चुप्पी हो या शोर-शराबे के बीच असली प्रश्न दबा दिए जाएँ, तो आम मतदाता को यह संदेश मिलता है कि सत्ता के खेल में उसकी साझेदारी बस वोट डालने तक सीमित कर दी गई है।
मतदाता सूची पुनरीक्षण में वोट चोरी या हेराफेरी जैसे आरोप लोकतंत्र के लिए सामान्य शिकायतें नहीं, चेतावनी की घंटियां हैं। यदि एक भी गंभीर आरोप बिना परीक्षण के हवा में छोड़ दिया जाए, तो समूचे चुनाव तंत्र पर भरोसा डगमगा जाता है। मतदान प्रक्रिया, ईवीएम, वीवीपैट, बूथ प्रबंधन, और मतदाता सूची की पारदर्शिता जैसे विषयों पर विशेष चर्चा और संसदीय समिति की गहन समीक्षा होनी चाहिए। यह काम मीडिया डिबेट का नहीं, संसद का है; लेकिन जब संसद ही इस जिम्मेदारी को दरकिनार कर दे, तो लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अविश्वास की आग फैलना स्वाभाविक है।
दिल्ली की ज़हरीली हवा सिर्फ पर्यावरण नहीं, सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा का प्रश्न है। सांस लेते हर बच्चे, बुज़ुर्ग और मज़दूर की फेफड़ों में जो ज़हर घुल रहा है, उसका प्रतिनिधि केवल “एयर क्वालिटी इंडेक्स” की संख्या नहीं, बल्कि वह संसद है जो इन नागरिकों की जान की कीमत पर चुप बैठी है। बहस होनी चाहिए थी कि उद्योग, वाहनों, निर्माण, पराली, ऊर्जा नीति, और शहरी नियोजन – सबको मिलाकर दीर्घकालिक समाधान क्या होगा, और किस स्तर पर किसकी जवाबदेही तय होगी। जब प्रदूषण पर चर्चा को भी “राजनीतिक नौटंकी” कहकर टाल दिया जाए, तो यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य पर गंभीर सवाल बन जाता है।
अडानी-अंबानी जैसे कारपोरेट घरानों के लिए सार्वजनिक बैंकों, एलआईसी और अन्य सरकारी वित्तीय संस्थानों की पूंजी को जोखिम में डालने के आरोप, सुनने में भले ही “वामपंथी नारा” लगें, पर इनका केंद्र आम नागरिक की मेहनत की कमाई है। सार्वजनिक बैंक और बीमा संस्थाएँ जनता के भरोसे पर खड़ी होती हैं; उनके निवेश निर्णयों में पारदर्शिता और जवाबदेही सर्वोच्च होनी चाहिए। संसद में यह पूछना स्वाभाविक और ज़रूरी है कि किस प्रोजेक्ट या कंपनी में कितना निवेश हुआ, जोखिम का मूल्यांकन कैसे हुआ, और यदि नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई कौन करेगा। जब इस पर बोलना भी “विकास-विरोधी” घोषित कर दिया जाए, तो असल में विकास के नाम पर कारपोरेट हितों को लोकतांत्रिक निगरानी से मुक्त किया जा रहा होता है।
देश की संपत्ति, प्राकृतिक संसाधनों – खनिज, जंगल, नदियाँ, तट – की तेज़ी से हो रही निजीकरणनुमा लूट और उससे जुड़े भ्रष्टाचार पर संसद की चुप्पी शायद सबसे खतरनाक विकास है। भूमि-अधिग्रहण, खनन पट्टों, जंगल कटाई, नदी जोड़ो या मोड़ो जैसी नीतियों में जब स्थानीय समुदायों और पर्यावरणीय संतुलन की बलि चढ़ती है, तो सबसे पहले सवाल उठना चाहिए कि क्या सरकार जनता के ट्रस्टी के रूप में काम कर रही है या ठेकेदार के रूप में। यदि संसदीय समितियाँ, प्रश्नकाल, और विशेष बहसें इन फैसलों की गहन जांच से बचती रहें, तो लोकतंत्र सिर्फ चुनावी प्रक्रिया का नाम रह जाएगा, शासन की नैतिकता और जनहित की आत्मा उससे निकल जाएगी।
अंततः सवाल यह नहीं कि यह कैसी संसद है, बल्कि यह है कि इस संसद को हमने किस दिशा में जाने दिया है। जब सदन के भीतर असहमति को दुश्मनी, आलोचना को देशद्रोह, और बहस की मांग को “ड्रामा” कहकर खारिज कर दिया जाता है, तो लोकतंत्र का असली संकट शुरू होता है।
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