उबैद उल्लाह नासिर
हिन्दू मुस्लिम धर्म आधारित राजनीति देश और समाज के लिए जहर हलाहल है
मुसलमानों की अपनी पार्टी हिन्दुओं की अपनी पार्टी सिखों की अपनी पार्टी जंग आज़ादी के दौरान यह सोच उभरी थी लेकिन महात्मा गांधी पंडित नेहरु सरदार पटेल मौलाना आज़ाद सुभाशचन्द्र बोस यहाँ तक की शुरूआती दिनों में जिन्नाह तक इस विचार के घोर विरोधी थे लेकिन अंग्रेजों की साज़िश ने ऐसा दांव खेला की जिन्नाह न सिर्फ इस विचारके समर्थक बने बल्कि देश के बटवारे तक पर अड़ गए . यहाँ यह बात बताना ज़रूरी है की जिन्नाह और उनके चेले चपाटों को छोड़ कर उस समय के सभी मुसलिम नेता और उलमा इस विचार के घोर विरोधी थे . मौलाना आज़ाद केअलावा मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना अबुल अला मौदूदी, मौलन अनजर शाह कश्मीरी, खान अब्दुल गफ्फार खान आदि सभी उलमा और मुसलिम नेता गण धर्म की बुनियाद पर सियासी पार्टियों के गठन के विरोधी थे, इन दूरदृष्ट वाले नेताओं ने बटवारे का पूरी ताक़त से विरोध किया सडकों पर लीगी लम्पटों की गालियाँ सुनीं, मौलाना आज़ाद को जूते का हार तक पहनाया गया मगर उन्होंने उस खतरे का आखिरी दम तक विरोध किया जो मुस्लिम लीग के उन्मादियों ने बटवारे की शक्ल में देश के सामने खड़ा कर दिया था .
मुस्लिम लीग को अन्ग्रेज़ो का और संघियों का समर्थन हासिल था इया ,बंगाल सिंध और NWFP में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने साझा सरकारें तक बनाई थीं, जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की साझा सरकार में उप मुख्यमंत्री थे जिसके मुख्यमंत्री चौधरी फजल इलाही थे जिन्होंने मुस्लिम लीग के ढाका इजलास में पाकिस्तान का प्रस्ताव पेश किया था . जिन्नाह और सावरकर दोनों अन्ग्रेजों के परम मित्र थे, लेकिन कोई एक भी ऐसा सुबूत नही है कि आरएसएस और हिन्दू महासभा ने अंग्रेजों को बटवारा न करने के लिए कोई मेमोरंडम तक दिया हो, या जिन्नाह को विश्वास में लेने और विभाजन की जिद छोड़वाने का प्रयत्न किया हो .
मुस्लिम लीग के जहरीले और “पाकिस्तान का मतलब क्या ला इलाहा इल लल्ला “ जैसे अधार्मिक गैर इस्लामी और घोर विभाजनकारी नारों ने देश के वातावरण को प्रदूषित कर रखा था दूसरी तरफ हिन्दू राष्ट्र की मांग देश में हिटलरी प्रयोग दोहराने का खुला इरादा जिसका अध्यन करने डॉ मुंजे जर्मनी और इटली गये थे . धर्म की बुनियाद पर देश के बटवारे की मांग से देश का कैसा माहौल रहा होगा समझा जा सकता है . कांग्रेस इस आग को बुझाने की भरपूर कोशश कर रही थी वह हिन्दू पार्टी मुस्लिम पार्टी की सोच का विरोध कर रही थी उसका यह दावा सही था कि मुस्लिम लीग से ज्यादा मुस्लिम नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस के पास हैं . वह हिन्दुओं की भी उतनी ही है जितनी मुसलमानों की, सिखों की ईसाईयों और समूचे समाज की है . इस मामले में उसे मुस्लिम लीग का भी विरोध झेलना पड़ रहा था और आरएसएस व हिन्दू महासभा का भी .
लगभग एक सदी के बाद यह विभाजनकारी विचार फिर सर उठाने लगा है “नज़रिय ऐ पाकिस्तान “ की तरह अब देश के मुसलमानों को “अपनी कयादत “ का जहर पिलाया जा रहा है और जिस तरह मुस्लिम लीग और जिन्नाह को आरएसएस और हिन्दू महासभा का मूक समर्थन हासिल था ठीक उसी तरह आज बीजेपी का मूक समर्थन आल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लेमीन और बारिस्टर असदउद्दीन ओवैसी को हासिल है . बीजेपी की चाल है की जिस तरह जिन्नाह खुद को एक क्षत्र मुस्लिम नेता के तौर पर पेश करते थे उसी तरह ओवैसी भी मुस्लिम नेता के तौर पर उभरें ताकि कांग्रेस समेत अन्य सेक्युलर पार्टियों को जो 15 % वोट बैंक है उस में और बिखराव हो और उसका रास्ता बिलकुल साफ़ हो जाये . यह हिन्दू नेता मुस्लिम नेता और हिन्दू पार्टी मुस्लिम पार्टी का जो खेल है वह देश की “भावनात्मक एकता और अखंडता “ के लिए जहर हलाहल है .
जहां एक ओर बहुसंख्यकों की समप्र्दायिकता क्रूर अनैतिक असंवैधानिक और फासीवादी होती है वहीँ अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता आत्मघाती होती है . अगर हम बीजेपी आरएसएस की धर्म की बुनियाद वालीं राजनीति के विरोधी हैं तो हमें इसी पैमाने से मजलिस की राजनीति का भी विरोध करना होगा . धार्मिक उन्माद पर देश का बटवारा हो जाने पर भारतीय मुसलमान पीढ़ी दर पीढ़ी इसका खामियाजा भुगतते रहेंगे . वह एक ऐसे जुर्म की सजा पते रहेंगे जो उन्होंने क्या उनके पुरखों ने भी नहीं किया था और दो राष्ट्रवाद के ज़हरीले विचार को लात मार कर उसी सरज़मीन पर ही बसे रहने का फैसला किया था जहां वह सदियों से अपने हिन्दू सिख और अन्य धर्म के लोगों के साथ मिलजुल कर रह रहे थे . उन्होंने मौलाना आजाद के फैसले को माना और गांधी नहेरु के आश्वासन और आंबेडकर के संविधान के साथ ही साथ अपने गैर मुस्लिम पड़ोसियों पर भी विश्वास किया था . 2014 तक इस जख्म को भरने की भरपूर कोशिश की जाती रही मगर उसके बाद इस जख्म को रोज़ कुरेद कुरेद कर हरा किया जा रहा है, समाज का एक बड़ा वर्ग लगभग 60 % अभी भी इस जख्म को भरने में लगा हुआ है लेकिन जितना मजलिस की राजनीति और उसकी स्वीकारता मुसलमानों में बढ़ती जायेगी उतना ही यह वर्ग कमज़ोर होता जायेगा और जो बटवारा अभी 60 (सेक्युलर वोटर्स ) 40% (बीजेपी वोटर्स ) का है वह घटते घटते 15-20 % ही रह जाएगा . बीजेपी 80-20 का नारा यूँही नहीं दे रही है इसके लिये उसके पास एक सुविचारित स्कीम है जिसमें मजलिस जैसी पार्टियाँ और उनके तंग दिल तंग नज़र समर्थक रंग भर रहे हैं . भेड़ों की गडरिये से नाराजगी पर भेड़िये से दोस्ती वाली कहावत यह लोग चरितार्थ कर रहे हैं .
मगर इस तस्वीर का एक दूसरा रुख भी है . यह सोचना पड़ेगा कि जिन मुसलमानों ने मौलाना आजाद के बाद किसी दुसरे मुस्लिम को नहीं बल्कि पंडित नेहरु से ले कर डॉ मनमोहन सिंह ही नहीं काफी हद तक अटल बिहारी वाजपेयी तक पर विश्वास किया उन्हें अपना नेता माना वह महदूद दायरे में ही सही ओवैसी को अपना नेता क्यों मानने लगे, अपनी कयादत के एहसास उन में क्यों पैदा हुआ ? क्या सेक्युलर पार्टियों और सेक्युलर लीडरों ने कोई गलती नही की जो मुसलमानों ख़ास कर मुस्लिम नवजवानों में यह एहसास पैदा हुआ, विश्वास टूटा तो उसके टूटने के कोई कारण तो होगा ? क्या कभी इन सेक्युलर लीडरों ने आत्म मंथन किया . 2014 के बाद अर्थात मोदी युग शुरू होने से राजनीति और समाज का ऐसा ध्रुवीकरण हुआ है कि बकौल गुलाम नबी आज़ाद पहले जो उम्मीदवार मुझे चुनाव प्रचार में बुलाने के लिए लालायित रहते थे वह अब दिल से चाहते हैं कि मैं उनके चुनाव प्रचार में न आऊँ क्योंकि उन्हें हिन्दू वोट कट जाने का खतरा रहता है .
समाज का यह ध्रुवीकरण दफन हो चुके दोराष्ट्रवाद को नया जीवन दे रहा है खुले आम सरकार की सरपरस्ती और नयायालय की आँखों के नीचे मुसलमानों के संवेधानिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं डंके की चोट पर उनके धर्म पर हमला होता है, उन्हें घेर कर मारा जा रहा है और समाज का एक बड़ा वर्ग इसे सही भी मानने लगा है . नाज़ी जर्मनी का इतिहास जिन्होंने ने पढ़ा है वह समझ सकते हैं कि डॉ मुंजे जो सीख समझ कर जर्मनी से आये थे उसे अब सौ साल बाद लागू किया जा रहा है, मगर उसके खिलाफ कोई जन जागरण अभियान राहुल गांधी के अलावा न कोई दल चला रहा है और न ही कोई नेता सब सियासी गोटियाँ फिट करने में लगे हैं कोई आरएसएस से वैचारिक लड़ाई नहीं लड़ रहा है . मुसलमानों के लिए ही नहीं देश के लिए जो खतरा मुंह बाए खड़ा है उसके खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठती कोई मुहिम नहीं चलती ऐसे में ओवैसी सदन में और सदन से बाहर जब खुल कर इस राजनीति का विरोध करते है तो मुस्लिम नवजवानों को लगता है कि कोई है जो उनकी बात करता है उनका दर्द समझता है सच्चाई यह है कि सेक्युलर लीडरों ने ही ओवैसी की स्वीकार्यता बढ़ाई है और अब “ फ्रंकेस्टइन मॉन्स्टर” की तरह ओवैसी सेक्युलर पार्टियों को ही निगल रहे हैं . समय आ गया हा की सेक्युलर पार्टियाँ आत्ममंथन करें सही हो या गलत ओवैसी के वजूद को अब स्वीकार करना ही पड़ेगा वह कम से कम डैमेज कर सकें वह रास्ता अपनाना होगा .
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनके निजी विचार हैं )
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